show episodes
 
Artwork
 
कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
  continue reading
 
Artwork

1
Kahani Train

Nayi Dhara Radio

Unsubscribe
Unsubscribe
मासिक
 
कहानी ट्रेन यानी बच्चों की कहानियाँ, सीधे आपके फ़ोन तक। यह पहल है आज के दौर के बच्चों को साहित्य और किस्से कहानियों से जोड़ने की। प्रथम, रेख़्ता व नई धारा की प्रस्तुति।
  continue reading
 
Artwork

1
Nayidhara Ekal

Nayi Dhara Radio

Unsubscribe
Unsubscribe
मासिक+
 
साहित्य और रंगकर्म का संगम - नई धारा एकल। इस शृंखला में अभिनय जगत के प्रसिद्ध कलाकार, अपने प्रिय हिन्दी नाटकों और उनमें निभाए गए अपने किरदारों को याद करते हुए प्रस्तुत करते हैं उनके संवाद और उन किरदारों से जुड़े कुछ किस्से। हमारे विशिष्ट अतिथि हैं - लवलीन मिश्रा, सीमा भार्गव पाहवा, सौरभ शुक्ला, राजेंद्र गुप्ता, वीरेंद्र सक्सेना, गोविंद नामदेव, मनोज पाहवा, विपिन शर्मा, हिमानी शिवपुरी और ज़ाकिर हुसैन।
  continue reading
 
Artwork

1
Nayi Dhara Samvaad Podcast

Nayi Dhara Radio

Unsubscribe
Unsubscribe
मासिक
 
ये है नई धारा संवाद पॉडकास्ट। ये श्रृंखला नई धारा की वीडियो साक्षात्कार श्रृंखला का ऑडियो वर्जन है। इस पॉडकास्ट में हम मिलेंगे हिंदी साहित्य जगत के सुप्रसिद्ध रचनाकारों से। सीजन 1 में हमारे सूत्रधार होंगे वरुण ग्रोवर, हिमांशु बाजपेयी और मनमीत नारंग और हमारे अतिथि होंगे डॉ प्रेम जनमेजय, राजेश जोशी, डॉ देवशंकर नवीन, डॉ श्यौराज सिंह 'बेचैन', मृणाल पाण्डे, उषा किरण खान, मधुसूदन आनन्द, चित्रा मुद्गल, डॉ अशोक चक्रधर तथा शिवमूर्ति। सुनिए संवाद पॉडकास्ट, हर दूसरे बुधवार। Welcome to Nayi Dhara Samvaa ...
  continue reading
 
Artwork

1
Khule Aasmaan Mein Kavita

Nayi Dhara Radio

Unsubscribe
Unsubscribe
मासिक
 
यहाँ हम सुनेंगे कविताएं – पेड़ों, पक्षियों, तितलियों, बादलों, नदियों, पहाड़ों और जंगलों पर – इस उम्मीद में कि हम ‘प्रकृति’ और ‘कविता’ दोनों से दोबारा दोस्ती कर सकें। एक हिन्दी कविता और कुछ विचार, हर दूसरे शनिवार... Listening to birds, butterflies, clouds, rivers, mountains, trees, and jungles - through poetry that helps us connect back to nature, both outside and within. A Hindi poem and some reflections, every alternate Saturday...
  continue reading
 
Artwork

1
Udaya Raj Sinha Ki Rachnayein Podcast

Nayi Dhara Radio

Unsubscribe
Unsubscribe
साप्ताहिक
 
स्वागत है आपका नई धारा रेडियो की एक और पॉडकास्ट श्रृंखला में। यह श्रृंखला नई धारा के संस्थापक श्री उदय राज सिंह जी के साहित्य को समर्पित है। खड़ी बोली प्रसिद्ध गद्य लेखक राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह के पुत्र उदय राज सिंह ने अपने पिता की साहित्यिक धरोहर को आगे बढ़ाया। उन्होंने अपने जीवनकाल में बहुत से उपन्यास, कहानियाँ, लघुकथाएँ, नाटक आदि लिखे। सन 1950 में उदय राज सिंह जी ने नई धारा पत्रिका की स्थापना की जो आज 70+ वर्षों बाद भी साहित्य की सेवा में समर्पित है। उदयराज जी के इस जन्मशती वर्ष में हम उ ...
  continue reading
 
Loading …
show series
 
कुम्हार अकेला शख़्स होता है | शहंशाह आलम जब तक एक भी कुम्हार है जीवन से भरे इस भूतल पर और मिट्टी आकार ले रही है समझो कि मंगलकामनाएं की जा रही हैं नदियों के अविरत बहते रहने की कितना अच्छा लगता है मंगलकामनाएं की जा रही हैं अब भी और इस बदमिजाज़ व खुर्राट सदी में कुम्हार काम-भर मिट्टी ला रहा है कुम्हार जब सुस्ताता बीड़ी पीता है बीवी उसकी आग तैयार करती है …
  continue reading
 
सागर से मिलकर जैसे / भवानीप्रसाद मिश्र सागर से मिलकर जैसे नदी खारी हो जाती है तबीयत वैसे ही भारी हो जाती है मेरी सम्पन्नों से मिलकर व्यक्ति से मिलने का अनुभव नहीं होता ऐसा नहीं लगता धारा से धारा जुड़ी है एक सुगंध दूसरी सुगंध की ओर मुड़ी है तो कहना चाहिए सम्पन्न व्यक्ति व्यक्ति नहीं है वह सच्ची कोई अभिव्यक्ति नहीं है कई बातों का जमाव है सही किसी भी …
  continue reading
 
एक बार जो | अशोक वाजपेयी एक बार जो ढल जाएँगे शायद ही फिर खिल पाएँगे। फूल शब्द या प्रेम पंख स्वप्न या याद जीवन से जब छूट गए तो फिर न वापस आएँगे। अभी बचाने या सहेजने का अवसर है अभी बैठकर साथ गीत गाने का क्षण है। अभी मृत्यु से दाँव लगाकर समय जीत जाने का क्षण है। कुम्हलाने के बाद झुलसकर ढह जाने के बाद फिर बैठ पछताएँगे। एक बार जो ढल जाएँगे शायद ही फिर ख…
  continue reading
 
आँगन | रामदरश मिश्रा तने हुए दो पड़ोसी दरवाज़े एक-दूसरे की आँखों में आँखें धँसाकर गुर्राते रहे कुत्तों की तरह फेंकते रहे आग और धुआँ भरे शब्दों का कोलाहल खाते रहे कसमें एक -दूसरे को समझ लेने की फिर रात को एक-दूसरे से मुँह फेरकर सो गये रात के सन्नाटे में दोनों घरों की खिड़कियाँ खुलीं प्यार से बोलीं- "कैसी हो बहना?" फिर देर तक दो आँगन आपस में बतियाते र…
  continue reading
 
शब्द जो परिंदे हैं | नासिरा शर्मा शब्द जो परिंदे हैं। उड़ते हैं खुले आसमान और खुले ज़हनों में जिनकी आमद से हो जाती है, दिल की कंदीलें रौशन। अक्षरों को मोतियों की तरह चुन अगर कोई रचता है इंसानी तस्वीर,तो क्या एतराज़ है तुमको उस पर? बह रहा है समय,सब को लेकर एक साथ बहने दो उन्हें भी, जो ले रहें हैं साँस एक साथ। डाल के कारागार में उन्हें, क्या पाओगे सि…
  continue reading
 
बचे हुए शब्द | मदन कश्यप जितने शब्द आ पाते हैं कविता में उससे कहीं ज़्यादा छूट जाते हैं। बचे हुए शब्द छपछप करते रहते हैं मेरी आत्मा के निकट बह रहे पनसोते में बचे हुए शब्द थल को जल को हवा को अग्नि को आकाश को लगातार करते रहते हैं उद्वेलित मैं इन्हें फाँसने की कोशिश करता हूँ तो मुस्कुरा कर कहते हैं: तिकड़म से नहीं लिखी जाती कविता और मुझ पर छींटे उछाल क…
  continue reading
 
परिचय | अंजना टंडन अब तक हर देह के ताने बाने पर स्थित है जुलाहे की ऊँगलियों के निशान बस थोड़ा सा अंदर रूह तक जा धँसे हैं, विश्वास ना हो तो कभी किसी की रूह की दीवारों पर हाथ रख देखना तुम्हारे दस्ताने का माप भी शर्तिया उसके जितना निकलेगा।द्वारा Nayi Dhara Radio
  continue reading
 
सूर्य | नरेश सक्सेना ऊर्जा से भरे लेकिन अक्ल से लाचार, अपने भुवनभास्कर इंच भर भी हिल नहीं पाते कि सुलगा दें किसी का सर्द चुल्हा ठेल उढ़का हुआ दरवाजा चाय भर की ऊष्मा औ' रोशनी भर दें किसी बीमार की अंधी कुठरिया में सुना सम्पाती उड़ा था इसी जगमग ज्योति को छूने झुलस कर देह जिसकी गिरी धरती पर धुआँ बन पंख जिसके उड़ गए आकाश में हे अपरिमित ऊर्जा के स्रोत कोई…
  continue reading
 
लड़की | प्रतिभा सक्सेना आती है एक लड़की, मगन-मुस्कराती, खिलखिलाकर हँसती है, सब चौंक उठते हैं - क्यों हँसी लड़की ? उसे क्या पता आगे का हाल, प्रसन्न भावनाओं में डूबी, कितनी जल्दी बड़ी हो जाती है, सारे संबंध मन से निभाती ! कोई नहीं जानता, जानना चाहता भी नहीं क्या चाहती है लड़की मन की बात बोल दे तो बदनाम हो जाती है लड़की और एक दिन एक घर से दूसरे घर, अन…
  continue reading
 
जरखरीद देह - रूपम मिश्र हम एक ही पटकथा के पात्र थे एक ही कहानी कहते हुए हम दोनों अलग-अलग दृश्य में होते जैसे एक दृश्य तुम देखते हुए कहते तुमसे कभी मिलने आऊँगा तुम्हारे गाँव तो नदी के किनारे बैठेंगे जी भर बातें करेंगे तुम बेहया के हल्के बैंगनी फूलों की अल्पना बनाना उसी दृश्य में तुमसे आगे जाकर देखती हूँ नदी का वही किनारा है बहेरी आम का वही पुराना पे…
  continue reading
 
ख़ालीपन | विनय कुमार सिंह माँ अंदर से उदास है सब कुछ वैसा ही नहीं है जो बाहर से दिख रहा है वैसे तो घर भरा हुआ है सब हंस रहे हैं खाने की खुशबू आ रही है शाम को फिल्म देखना है पिताजी का नया कुर्ता सबको अच्छा लग रहा है लेकिन माँ उदास है. बच्चा नौकरी करने जा रहा है कई सालों से घर, घर था अब नहीं रहेगा अब माँ के मन के एक कोने में हमेशा खालीपन रहेगा !…
  continue reading
 
हम न रहेंगे | केदारनाथ अग्रवाल हम न रहेंगे- तब भी तो यह खेत रहेंगे; इन खेतों पर घन घहराते शेष रहेंगे; जीवन देते, प्यास बुझाते, माटी को मद-मस्त बनाते, श्याम बदरिया के लहराते केश रहेंगे! हम न रहेंगे- तब भी तो रति-रंग रहेंगे; लाल कमल के साथ पुलकते भृंग रहेंगे! मधु के दानी, मोद मनाते, भूतल को रससिक्त बनाते, लाल चुनरिया में लहराते अंग रहेंगे।…
  continue reading
 
तन गई रीढ़ | नागार्जुन झुकी पीठ को मिला किसी हथेली का स्पर्श तन गई रीढ़ महसूस हुई कन्धों को पीछे से, किसी नाक की सहज उष्ण निराकुल साँसें तन गई रीढ़ कौंधी कहीं चितवन रंग गए कहीं किसी के होंठ निगाहों के ज़रिये जादू घुसा अन्दर तन गई रीढ़ गूँजी कहीं खिलखिलाहट टूक-टूक होकर छितराया सन्नाटा भर गए कर्णकुहर तन गई रीढ़ आगे से आया अलकों के तैलाक्त परिमल का झो…
  continue reading
 
मृत्यु - विश्वनाथ प्रसाद तिवारी मेरे जन्म के साथ ही हुआ था उसका भी जन्म... मेरी ही काया में पुष्ट होते रहे उसके भी अंग में जीवन-भर सँवारता रहा जिन्हें और ख़ुश होता रहा कि ये मेरे रक्षक अस्त्र हैं दरअसल वे उसी के हथियार थे अजेय और आज़माये हुए मैं जानता था कि सब कुछ जानता हूँ मगर सच्चाई यह थी कि मैं नहीं जानता था कि कुछ नहीं जानता हूँ... मैं सोचता था फ…
  continue reading
 
इच्छाओं का घर | अंजना भट्ट इच्छाओं का घर- कहाँ है? क्या है मेरा मन या मस्तिष्क या फिर मेरी सुप्त चेतना? इच्छाएं हैं भरपूर, जोरदार और कुछ मजबूर पर किसने दी हैं ये इच्छाएं? क्या पिछले जन्मों से चल कर आयीं या शायद फिर प्रभु ने ही हैं मन में समाईं? पर क्यों हैं और क्या हैं ये इच्छाएं? क्या इच्छाएं मार डालूँ? या फिर उन पर काबू पा लूं? और यदि हाँ तो भी क…
  continue reading
 
स्वदेश के प्रति / सुभद्राकुमारी चौहान आ, स्वतंत्र प्यारे स्वदेश आ, स्वागत करती हूँ तेरा। तुझे देखकर आज हो रहा, दूना प्रमुदित मन मेरा॥ आ, उस बालक के समान जो है गुरुता का अधिकारी। आ, उस युवक-वीर सा जिसको विपदाएं ही हैं प्यारी॥ आ, उस सेवक के समान तू विनय-शील अनुगामी सा। अथवा आ तू युद्ध-क्षेत्र में कीर्ति-ध्वजा का स्वामी सा॥ आशा की सूखी लतिकाएं तुझको प…
  continue reading
 
अपनी देवनागरी लिपि | केदारनाथ सिंह यह जो सीधी-सी, सरल-सी अपनी लिपि है देवनागरी इतनी सरल है कि भूल गई है अपना सारा अतीत पर मेरा ख़याल है 'क' किसी कुल्हाड़ी से पहले नहीं आया था दुनिया में 'च' पैदा हुआ होगा किसी शिशु के गाल पर माँ के चुम्बन से! 'ट' या 'ठ' तो इतने दमदार हैं कि फूट पड़े होंगे किसी पत्थर को फोड़कर 'न' एक स्थायी प्रतिरोध है हर अन्याय का '…
  continue reading
 
ढेला | उदय प्रकाश वह था क्या एक ढेला था कहीं दूर गाँव-देहात से फिंका चला आया था दिल्ली की ओर रोता था कड़कड़डूमा, मंगोलपुरी, पटपड़गंज में खून के आँसू चुपचाप ढेले की स्मृति में सिर्फ़ बचपन की घास थी जिसका हरापन दिल्ली में हर साल और हरा होता था एक दिन ढेला देख ही लिया गया राजधानी में लोग-बाग चौंके कि ये तो कैसा ढेला है। कि रोता भी है आदमी लोगों की तरह…
  continue reading
 
ओ मन्दिर के शंख, घण्टियों | अंकित काव्यांश ओ मन्दिर के शंख, घण्टियों तुम तो बहुत पास रहते हो, सच बतलाना क्या पत्थर का ही केवल ईश्वर रहता है? मुझे मिली अधिकांश प्रार्थनाएँ चीखों सँग सीढ़ी पर ही। अनगिन बार थूकती थीं वे हम सबकी इस पीढ़ी पर ही। ओ मन्दिर के पावन दीपक तुम तो बहुत ताप सहते हो, पता लगाना क्या वह ईश्वर भी इतनी मुश्किल सहता है? भजन उपेक्षित …
  continue reading
 
तुम आईं | केदारनाथ सिंह तुम आईं जैसे छीमियों में धीरे- धीरे आता है रस जैसे चलते-चलते एड़ी में काँटा जाए धँस तुम दिखीं जैसे कोई बच्चा सुन रहा हो कहानी तुम हँसी जैसे तट पर बजता हो पानी तुम हिलीं जैसे हिलती है पत्ती जैसे लालटेन के शीशे में काँपती हो बत्ती। तुमने छुआ जैसे धूप में धीरे धीरे उड़ता है भुआ और अन्त में जैसे हवा पकाती है गेहूँ के खेतों को तु…
  continue reading
 
रात कटी गिन तारा तारा - शिव कुमार बटालवी अनुवाद: आकाश 'अर्श' रात कटी गिन तारा तारा हुआ है दिल का दर्द सहारा रात फुंका मिरा सीना ऐसा पार अर्श के गया शरारा आँखें हो गईं आँसू आँसू दिल का शीशा पारा-पारा अब तो मेरे दो ही साथी इक आह और इक आँसू खारा मैं बुझते दीपक का धुआँ हूँ कैसे करूँ तिरा रौशन द्वारा मरना चाहा मौत न आई मौत भी मुझ को दे गई लारा छोड़ न मे…
  continue reading
 
अपने पुरखों के लिए | विश्वनाथ प्रसाद तिवारी इसी मिट्टी में मिली हैं उनकी अस्थियाँ अँधेरी रातों में जो करते रहते थे भोर का आवाहन बेड़ियों में जकड़े हुए जो गुनगुनाते रहते थे आज़ादी के तराने माचिस की तीली थे वे चले गए एक लौ जलाकर थोड़ी सी आग जो चुराकर लाये थे वे जन्नत से हिमालय की सारी बर्फ और समुद्र का सारा पानी नहीं बुझा पा रहे हैं उसे लड़ते रहे, लड़ते …
  continue reading
 
अमलताश | अंजना वर्मा उठा लिया है भार इस भोले अमलताश ने दुनिया को रौशन करने का बिचारा दिन में भी जलाये बैठा है करोड़ों दीये! न जाने किस स्त्री ने टाँग दिये अपने सोने के गहने अमलताश की टहनियों पर और उन्हें भूलकर चली गई पीली तितलियों का घर है अमलताश या सोने का शहर है अमलताश दीवाली की रात है अमलताश या जादुई करामात है अमलताश!…
  continue reading
 
अत्याचारी के प्रमाण | मंगलेश डबराल अत्याचारी के निर्दोष होने के कई प्रमाण हैं उसके नाखुन या दाँत लम्बे नहीं हैं आँखें लाल नहीं रहती... बल्कि वह मुस्कराता रहता है अक्सर अपने घर आमंत्रित करता है और हमारी ओर अपना कोमल हाथ बढ़ाता है उसे घोर आश्चर्य है कि लोग उससे डरते हैं अत्याचारी के घर पुरानी तलवारें और बन्दूकें., सिर्फ़ सजावट के लिए रखी हुई हैं उसका…
  continue reading
 
मैं शामिल हूँ या न हूँ | नासिरा शर्मा मैं शामिल हूँ या न हूँ मगर हूँ तो इस काल- खंड की चश्मदीद गवाह! बरसों पहले वह गर्भवती जवान औरत गिरी थी, मेरे उपन्यासों के पन्नों पर ख़ून से लथपथ। ईरान की थी या फिर टर्की की या थी अफ़्रीका की या फ़िलिस्तीन की या फिर हिंदुस्तान की क्या फ़र्क़ पड़ता है वह कहाँ की थी। वह लेखिका जो पूरे दिनों से थी जो अपने देश के इति…
  continue reading
 
अम्बपाली | विश्वनाथ प्रसाद तिवारी मंजरियों से भूषित यह सघन सुरोपित आम्र कानन सत्य नहीं है, अम्बपाली ! -यही कहा तथागत ने झड़ जाएँगी तोते के पंख जैसी पत्तियाँ ठूँठ हो जाएँगी भुजाएँ कोई सम्मोहन नहीं रह जाएगा पक्षियों के लिए इस आम्रकुंज में -यही कहा तथागत ने दर्पण से पूछती है अम्बपाली अपने भास्वर, सुरुचिर मणि जैसे नेत्रों से पूछती है पूछती है भ्रमरवर्णी…
  continue reading
 
कौन हो तुम | अंजना बख्शी तंग गलियों से होकर गुज़रता है कोई आहिस्ता-आहिस्ता फटा लिबास ओढ़े कहता है कोई आहिस्ता-आहिस्ता पैरों में नहीं चप्पल उसके काँटों भरी सेज पर चलता है कोई आहिस्ता-आहिस्ता आँखें हो गई हैं अब उसकी बूढ़ी धँसी हुई आँखों से देखता है कोई आहिस्ता-आहिस्ता एक रोज़ पूछा मैंने उससे, कौन हो तुम ‘तेरे देश का कानून’ बोला आहिस्ता-आहिस्ता !!…
  continue reading
 
था किसका अधूरापन | नंदकिशोर आचार्य शुरू में शब्द था केवल' -शब्द जो मौन को आकार देता है इसलिए मौन को पूर्ण करता हुआ उसी से बनी है यह सृष्टि पर सृष्टि में पूरा हुआ जो था किसका अधूरापन?द्वारा Nayi Dhara Radio
  continue reading
 
कबाड़खाना | प्रतिभा सक्सेना हर घर में कुछ कुठरियाँ या कोने होते हैं, जहाँ फ़ालतू कबाड़ इकट्ठा रहता है. मेरे मस्तिष्क के कुछ कोनों में भी ऐसा ही अँगड़-खंगड़ भरा है! जब भी कुछ खोजने चलती हूँ तमाम फ़ालतू चीज़ें सामने आ जाती हैं, उन्हीं को बार-बार, देखने परखने में लीन भूल जाती हूँ, कि क्या ढूँढने आई थी!द्वारा Nayi Dhara Radio
  continue reading
 
बारिश चमत्कार की तरह होती है | शहंशाह आलम बारिश चमत्कार की तरह होती है उसने मुझे यह बात इस तरह बताई जिस तरह कोई अपने भीतर के किसी चमत्कार के बारे में बताता है उसने बारिश को लेकर जो कुछ कहा सच कहा मैंने भी देखा बारिश को प्रार्थना की मुद्रा में पेड़ के पत्तों पर बरसते पूरी तरह चमत्कारी।द्वारा Nayi Dhara Radio
  continue reading
 
ये भरी आँखें तुम्हारी | कुँअर बेचैन जागती हैं रात भर क्यों ये भरी आँखें तुम्हारी! क्या कहीं दिन में तड़पता स्वप्न देखा सुई जैसी चुभ गई क्या हस्त-रेखा बात क्या थी क्यों डरी आँखें तुम्हारी। जागती हैं रात भर क्यों, ये भरी आँखें तुम्हारी! लालसा थी क्या उजेरा देखने की चाँद के चहुँ ओर घेरा देखने की बन गईं क्यों गागरी आँखें तुम्हारी। जागती है रात भर क्यों…
  continue reading
 
ज़िन्दगी तेरे घेरे में रहकर - श्योराज सिंह 'बेचैन' ज़िन्दगी तेरे घेरे में रहकर क्या करें इस बसेरे में रहकर इस उजाले में दिखता नहीं कुछ आँख चुंधियाएँ, पलके भीगी सी रहकर अब कहीं कोई राहत नहीं है दर्द कहता है आँखों से बहकर हाँ, हमी ने बढ़ावा दिया है ज़ुल्म सहते हैं ख़ामोश रहकर मुक्ति देखी ग़ुलामी से बदतर क्यों चिढ़ाते हैं आज़ाद कहकर घूँट भर पीने लायक न छोड़ी म…
  continue reading
 
ख़ाली जगह | अमृता प्रीतम सिर्फ़ दो रजवाड़े थे – एक ने मुझे और उसे बेदखल किया था और दूसरे को हम दोनों ने त्याग दिया था। नग्न आकाश के नीचे – मैं कितनी ही देर – तन के मेंह में भीगती रही, वह कितनी ही देर तन के मेंह में गलता रहा। फिर बरसों के मोह को एक ज़हर की तरह पीकर उसने काँपते हाथों से मेरा हाथ पकड़ा! चल! क्षणों के सिर पर एक छत डालें वह देख! परे – स…
  continue reading
 
तुम हँसी हो | अज्ञेय तुम हँसी हो - जो न मेरे होंठ पर दीखे, मुझे हर मोड़ पर मिलती रही है। धूप - मुझ पर जो न छाई हो, किंतु जिसकी ओर मेरे रुद्ध जीवन की कुटी की खिड़कियाँ खुलती रही हैं। तुम दया हो जो मुझे विधि ने न दी हो, किंतु मुझको दूसरों से बाँधती है जो कि मेरी ही तरह इंसान हैं। आँख जिनसे न भी मेरी मिले, जिनको किंतु मेरी चेतना पहचानती है। धैर्य हो त…
  continue reading
 
चूल्हे के पास - मदन कश्यप गीली लकड़ियों को फूँक मारती आँसू और पसीने से लथपथ चूल्हे के पास बैठी है औरत हज़ारों-हज़ार बरसों से धुएँ में डूबी हुई चूल्हे के पास बैठी है औरत जब पहली बार जली थी आग धरती पर तभी से राख की परतों में दबाकर आग ज़िंदा रखे हुई है औरत!द्वारा Nayi Dhara Radio
  continue reading
 
कोर्ई आदमी मामूली नहीं होता | कुंवर नारायण अकसर मेरा सामना हो जाता इस आम सचाई से कि कोई आदमी मामूली नहीं होता कि कोई आदमी ग़ैरमामूली नहीं होता आम तौर पर, आम आदमी ग़ैर होता है इसीलिए हमारे लिए जो ग़ैर नहीं, वह हमारे लिए मामूली भी नहीं होता मामूली न होने की कोशिश दरअसल किसी के प्रति भी ग़ैर न होने की कोशिश है।…
  continue reading
 
बाज़ार | अनामिका सुख ढूँढ़ा, गैया के पीछे बछड़े जैसा दुःख चला आया! जीवन के साथ बँधी मृत्यु चली आई! दिन के पीछे डोलती आई रात बाल खोले हुई। प्रेम के पीछे चली आई दाँत पीसती कछमछाहट! ‘बाई वन गेट वन फ़्री!' लेकिन अतिरेकों के बीच कहीं कुछ तो था जो जस का तस रह गया लिए लुकाठी हाथ- डफ़ली बजाता हुआ और मगन गाता हुआ- ‘मन लागो मेरो यार फ़क़ीरी में!…
  continue reading
 
माँ - दामोदर खड़से नदी सदियों से बह रही है इसका संगीत पीढ़ियों को लुभा रहा है आकांक्षाओं और आस्थाओं के संगम पर वह धीमी हो जाती है... उफनती है आकांक्षाओं की पुकार से पीढ़ियाँ, बहाती रही हैं इच्छा-दीप और निर्माल्य बिना जाने कि थोड़ी-सी आँच भी नदी को तड़पा सकती है पर नदी ने कभी प्रतिकार नहीं किया... हर फूल, हवन, राख को पहुँचाया है अखंड आराध्य तक कभी नह…
  continue reading
 
हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी | निदा फ़ाज़ली हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी फिर भी तनहाईयों का शिकार आदमी सुबह से शाम तक बोझ ढोता हुआ अपनी ही लाश का ख़ुद मज़ार आदमी हर तरफ़ भागते दौड़ते रास्ते हर तरफ़ आदमी का शिकार आदमी रोज़ जीता हुआ रोज़ मरता हुआ हर नए दिन नया इंतज़ार आदमी ज़िन्दगी का मुक़द्दर सफ़र दर सफ़र आख़िरी साँस तक बेक़रार आदमी…
  continue reading
 
बादल राग | अवधेश कुमार बादल इतने ठोस हों कि सिर पटकने को जी चाहे पर्वत कपास की तरह कोमल हों ताकि उन पर सिर टिका कर सो सकें झरने आँसुओं की तरह धाराप्रवाह हों कि उनके माध्यम से रो सकें धड़कनें इतनी लयबद्ध कि संगीत उनके पीछे-पीछे दौड़ा चला आए रास्ते इतने लंबे कि चलते ही चला जाए पृथ्वी इतनी छोटी कि गेंद बनाकर खेल सकें आकाश इतना विस्तीर्ण कि उड़ते ही चल…
  continue reading
 
समय और बचपन - हेमंत देवलेकर उसने मेरी कलाई पर टिक टिक करती घड़ी देखी तो मचल उठी वैसी ही घड़ी पाने के लिए उसका जी बहलाते स्थिर समय की एक खिलौना घड़ी बाँध दी उसकी नन्हीं कलाई पर पर घड़ी का खिलौना मंज़ूर नहीं था उसे टिक टिक बोलती, समय बताती घड़ी असली मचल रही थी उसके हठ में यह सच है कि बच्चे समय का स्वप्न देखते हैं लेकिन मैं उसे समय के हाथों में कैसे सौंप दू…
  continue reading
 
बरसों के बाद | गिरिजा कुमार माथुर बरसों के बाद कभी हम-तुम यदि मिलें कहीं देखें कुछ परिचित-से लेकिन पहिचाने ना। याद भी न आये नाम रूप, रंग, काम, धाम सोचें यह संभव है पर, मन में माने ना। हो न याद, एक बार आया तूफान ज्वार बंद, मिटे पृष्ठों को पढ़ने की ठाने ना। बातें जो साथ हुई बातों के साथ गई आँखें जो मिली रहीं उनको भी जानें ना।…
  continue reading
 
प्रेम में मैं और तुम | अंशू कुमार एक दिन तुम और मैं जब अपनी अपनी धुरी पर लौट रहे होंगे ख़ाली हाथ, बेआवाज़ और बदहवास अपने-अपने हिस्से के सुख और दुःख लिए अब कब मिलेंगे, मिलेंगे भी या नहीं जैसे ख़ौफ़नाक सवाल लिए अनंत ख़ालीपन के साथ तब सबसे अंत में हमारे हिस्से का प्रेम ही बचेगा जो अगर बचा सकता तो बचा लेगा हमें एक बार फिर से मिलने की उम्मीद में...!…
  continue reading
 
बारिश या पुण्यवर्षा | अरुणाभ सौरभ धरती पर गिरती बूँदें बारिश की छोटी - छोटी ये बूँद-बूँद गोलाइयाँ धरती को चुंबन है आकाश का या धरती से आकाश के मिलने का सबूत या प्यार है मर मिटनेवाला या प्यार की सिफ़ारिश ये बारिश है या हृदय के भीतर की बची हुई करुणा हमारे भीतर की बची हुई मनुष्यता पितरों के पुण्य की पुष्पवर्षा इसी के सहारे जीते हैं हम इसे देखकर जवान हो…
  continue reading
 
जगत के कुचले हुए पथ पर भला कैसे चलूं मैं? | हरिशंकर परसाई किसी के निर्देश पर चलना नहीं स्वीकार मुझको नहीं है पद चिह्न का आधार भी दरकार मुझको ले निराला मार्ग उस पर सींच जल कांटे उगाता और उनको रौंदता हर कदम मैं आगे बढ़ाता शूल से है प्यार मुझको, फूल पर कैसे चलूं मैं? बांध बाती में हृदय की आग चुप जलता रहे जो और तम से हारकर चुपचाप सिर धुनता रहे जो जगत क…
  continue reading
 
अकाल और उसके बाद | नागार्जुन कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद…
  continue reading
 
संतान साते - नीलेश रघुवंशी माँ परिक्रमा कर रही होगी पेड़ की हम परिक्रमा कर रहे हैं पराये शहर की जहाँ हमारी इच्छाएँ दबती ही जा रही हैं । सात पुए और सात पूड़ियाँ थाल में सजाकर रखी होंगी नौ चूड़ियाँ आठ बहन और एक भाई की ख़ुशहाली और लंबी आयु पेड़ की परिक्रमा करते कभी नहीं थके माँ के पाँव। माँ नहीं समझ सकी कभी जब माँग रही होती है वह दुआ हम सब थक चुके होते…
  continue reading
 
जो हुआ वो हुआ किसलिए | निदा फ़ाज़ली जो हुआ वो हुआ किसलिए हो गया तो गिला किसलिए काम तो हैं ज़मीं पर बहुत आसमाँ पर ख़ुदा किसलिए एक ही थी सुकूँ की जगह घर में ये आइना किसलिएद्वारा Nayi Dhara Radio
  continue reading
 
बचाओ - उदय प्रकाश चिंता करो मूर्द्धन्य 'ष' की किसी तरह बचा सको तो बचा लो ‘ङ’ देखो, कौन चुरा कर लिये चला जा रहा है खड़ी पाई और नागरी के सारे अंक जाने कहाँ चला गया ऋषियों का “ऋ' चली आ रही हैं इस्पात, फाइबर और अज्ञात यौगिक धातुओं की तमाम अपरिचित-अभूतपूर्व चीज़ें किसी विस्फोट के बादल की तरह हमारे संसार में बैटरी का हनुमान उठा रहा है प्लास्टिक का पहाड़ …
  continue reading
 
जब मैं तेरा गीत लिखने लगी/अमृता प्रीतम मेरे शहर ने जब तेरे कदम छुए सितारों की मुट्ठियाँ भरकर आसमान ने निछावर कर दीं दिल के घाट पर मेला जुड़ा , ज्यूँ रातें रेशम की परियां पाँत बाँध कर आई...... जब मैं तेरा गीत लिखने लगी काग़ज़ के ऊपर उभर आईं केसर की लकीरें सूरज ने आज मेहंदी घोली हथेलियों पर रंग गई, हमारी दोनों की तकदीरें…
  continue reading
 
Loading …

त्वरित संदर्भ मार्गदर्शिका