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रविवार, 25 जून 2017

इमरजेंसी पर आज बस इतने ही हैं शब्‍द

देश केे लोकतंत्र  को 21 महीने का ग्रहण लगाने वाली
इमरजेंसी पर आज बस इतना ही कह सकती हूं  कि…इतिहास की एक घटना जिसने भारतवर्ष की  राजनैतिक दिशा-दशा, आरोह-अवरोह, घटना-परिघटना,  विचारधाराओं का विचलन और समन्‍वय के साथ-साथ  हमारी पीढ़ियों को लोकतंत्र की उपयोगिता व संघर्ष को  बखूबी परिभाषित कर दिया….उसे शब्‍दों में समेटा नहीं  जा सकता।
इमरजेंसी के दौरान राजनेताओं और उनके समर्थकों पर  क्‍या गुजरी यह तो नहीं बता सकती मगर चूंकि मेरे  पिता सरकारी डॉक्‍टर थे…सो नसबंदियों की अनेक  ”सच्‍चाइयां” उनके मुंह से गाहेबगाहे सुनीं जरूर हैं और  इस नतीजे पर पहुंची हूं कि किसी भी सर्वाधिकार  सुरक्षित रखने वाले सत्‍ताधीश का ”अहं” जब सीमायें  लांघता है तो वह अपने और अपने परिवार के लिए  इतनी बददुआऐं-आलोचनाएं इकठ्ठी कर लेता है जिसे  सदियों तक एक ”काली सीमारेखा” के रूप में परिभाषित  किया जाता है। ऐसा ही इमरजेंसी की घोषणा करते  वक्‍त पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किया था और आज  गांधी परिवार के लिए हर वर्ष की 25 जून को सिवाय  भर्त्‍सनाओं के पूरे देश से और कुछ नहीं आता।
बहरहाल आप देखिए ये ”दो उदाहरण”
पहला है वो फोटो जो इंदिरा गांधी के लिए ही नहीं  लोकतंत्र का मजाक उउ़ाने वाले किसी भी नेता के लिए  हमेशा याद किया जाता रहेगा। जी हां, जगमोहन लाल  सिन्हा का फोटो…

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल  सिन्हा का फोटो जिन्‍होंने 1975 में यू.पी. बनाम राज  नारायण मामले में कहा था ” “याचिका स्वीकृत की  जाती है, जिसका मतलब था “मिसेज़ गाँधी अनसीटेड.”
एक ऐतिहासिक दस्‍तावेज के अनुसार जगमोहन लाल  सिन्हा ने इस तरह की केस की सुनवाई ——
12 जून, 1975 की सुबह इंदिरा गांधी के वरिष्ठ निजी  सचिव एनके सेशन एक सफ़दरजंग रोड पर प्रधानमंत्री  निवास के अपने छोटे से दफ़्तर में टेलिप्रिंटर से आने  वाली हर ख़बर पर नज़र रखे हुए थे. उनको इंतज़ार था  इलाहाबाद से आने वाली एक बड़ी ख़बर का और वो  काफ़ी नर्वस थे.
ठीक 9 बजकर 55 मिनट पर जस्टिस जगमोहन लाल  सिन्हा ने इलाहाबाद हाइकोर्ट के कमरा नंबर 24 में  प्रवेश किया. जैसे ही दुबले पतले 55 वर्षीय, जस्टिस  सिन्हा ने अपना आसन ग्रहण किया, उनके पेशकार ने  घोषणा की, “भाइयो और बहनो, राजनारायण की  याचिका पर जब जज साहब फ़ैसला सुनाएं तो कोई  ताली नहीं बजाएगा.”
जस्टिस सिन्हा के सामने उनका 255 पन्नों का  दस्तावेज़ रखा हुआ था, जिस पर उनका फ़ैसला लिखा  हुआ था.
जस्टिस सिन्हा ने कहा, “मैं इस केस से जुड़े हुए सभी  मुद्दों पर जिस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ, उन्हें पढ़ूंगा.” वो  कुछ पलों के लिए ठिठके और फिर बोले, “याचिका  स्वीकृत की जाती है, “मिसेज़ गाँधी अनसीटेड.”
अदालत में मौजूद भीड़ को सहसा विश्वास नहीं हुआ  कि वो क्या सुन रही है. कुछ सेकंड बाद पूरी अदालत  में तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी. सभी रिपोर्टर्स अपने  संपादकों से संपर्क करने बाहर दौड़े.
वहाँ से 600 किलोमीटर दूर दिल्ली में जब एनके सेशन  ने ये फ़्लैश टेलिप्रिंटर पर पढ़ा तो उनका मुंह पीला पड़  गया.
उसमें लिखा था, “मिसेज़ गाँधी अनसीटेड.” उन्होंने  टेलिप्रिंटर मशीन से पन्ना फाड़ा और उस कमरे की ओर  दौड़े जहाँ इंदिरा गाँधी बैठी हुई थीं.
इंदिरा गाँधी के जीवनीकार प्रणय गुप्ते अपनी किताब  ‘मदर इंडिया’ में लिखते हैं, “सेशन जब वहाँ पहुंचे तो  राजीव गांधी, इंदिरा के कमरे के बाहर खड़े थे. उन्होंने  यूएनआई पर आया वो फ़्लैश राजीव को पकड़ा दिया.  राजीव गांधी पहले शख़्स थे जिन्होंने ये ख़बर सबसे  पहले इंदिरा गाँधी को सुनाई.”
1971 में रायबरेली सीट से चुनाव हारने के बाद  राजनारायण ने उन्हें हाई कोर्ट में चुनौती दी थी.
जस्टिस सिन्हा ने इंदिरा गांधी को दो मुद्दों पर चुनाव में  अनुचित साधन अपनाने का दोषी पाया. पहला तो ये  कि इंदिरा गांधी के सचिवालय में काम करने वाले  यशपाल कपूर को उनका चुनाव एजेंट बनाया गया  जबकि वो अभी भी सरकारी अफ़सर थे.
उन्होंने 7 जनवरी से इंदिरा गांधी के लिए चुनाव प्रचार  करना शुरू कर दिया जबकि 13 जनवरी को उन्होंने  अपने पद से इस्तीफ़ा दिया जिसे अंतत: 25 जनवरी  को स्वीकार किया गया.
जस्टिस सिन्हा ने एक और आरोप में इंदिरा गांधी को  दोषी पाया, वो था अपनी चुनाव सभाओं के मंच बनवाने  में उत्तर प्रदेश के अधिकारियों की मदद लेना. इन  अधिकारियों ने कथित रूप से उन सभाओं के लिए  सरकारी ख़र्चे पर लाउड स्पीकरों और शामियानों की  व्यवस्था कराई.
हांलाकि बाद में लंदन के ‘द टाइम्स’ अख़बार ने टिप्पणी  की, “ये फ़ैसला उसी तरह का था जैसे प्रधानमंत्री को  ट्रैफ़िक नियम के उल्लंघन करने के लिए उनके पद से  बर्ख़ास्त कर दिया जाए.”

कुछ फोटो और -  इमरजेंसी लगाने को सिद्धार्थ शंकर रे द्वारा लिखा गया पत्र-



और अब दूसरा उदाहरण है अटल जी की कविता जो इमरजेंसी को बखूबी बयां करती है-
इमरजेंसी के कालेरूप को अपने शब्‍दों में ढालकर हमारे  सामने लाई गई अटल बिहारी वाजपेयी जी की एक  कविता पढ़िए जिसे आज प्रधानमंत्री ने अपने ”मन की  बात” कार्यक्रम में शेयर किया है। किसी भी जो  इमरजेंसी की भयावहता को बखूबी दर्शा सकते हैं अटल  जी के ये शब्द …आप भी पढ़िए-
एक बरस बीत गया

झुलासाता जेठ मास
शरद चांदनी उदास
सिसकी भरते सावन का
अंतर्घट रीत गया
एक बरस बीत गया

सीकचों मे सिमटा जग
किंतु विकल प्राण विहग
धरती से अम्बर तक
गूंज मुक्ति गीत गया
एक बरस बीत गया

पथ निहारते नयन
गिनते दिन पल छिन
लौट कभी आएगा
मन का जो मीत गया
एक बरस बीत गया।
अब इस दुआ के साथ कि भारत को कभी कोई और  इमरजेंसी न झेलनी पड़े, बेहतर हो कि हम अपने  इतिहास को याद रखें।
  • अलकनंदा सिंह

बुधवार, 25 जून 2014

इमरजेंसी...मेरे बालमन में अबतक छपी है

25.‍06.1975 के दिन लोकतंत्र पर लगे दाग को ढोते हुए हमें 39 साल हो गये मगर मेरे बचपन की वो स्‍मृतियां आज भी ज़हन में बराबर कौंध रही हैं कि किस तरह से प्रभावशाली लोग भी घरों में छुपने को विवश हुए जा रहे थे। चारों तरफ अफरातफरी मची थी।
तब छह साल की उम्र में मैं अपने आसपास होने वाली हलचलों को सिर्फ देख सकती थी मगर तब मैं इतनी छोटी थी कि उसे महसूस कर पाना मेरे दिमाग के पार था। बस घर की बालकनी में बैठी गली में पुलिस को देखकर भागती भीड़, दौड़ते लोगों में से कुछेक को पकड़ कर लेजाते पुलिसवाले अंकल...मां की किसी को कुछ ना बताने की पक्‍की हिदायत के संग ऊपर से झांकती मैं भी पुलिस को देखकर नीचे को झुक जाती, छुप जाती...। कभी ये छुपनछुपाई वाला खेल लगता तो कभी बड़ा अजीब सा ...कि हम घर में...कैद से ये कौन सा खेल खेल रहे हैं।
रात को जो एकाध बल्‍व रोशनी के लिए जलाकर छोड़ दिया जाता था, उसे भी मां नहीं जलाती थीं।
'क्‍यों नहीं जलाती हो वो आंगन के बाहर वाला बल्‍व, पूछने पर वो हरबार एक ही बात कहतीं कि तेरे 'ताऊ जी' को कुछ डाकू ढूढ़ रहे हैं, जिन्‍होंने पुलिस की वर्दी पहनी हुई है, वो घर घर जाकर पूछ रहे हैं कि ताऊ जी कहां हैं, अगर वो रोशनी देखेंगे तो ताऊ जी को पकड़ ले जायेंगे ना, इसीलिए बल्‍व अभी नहीं जलायेंगे।' जब बड़ी हुई तो जाना कि जिस घर में हम रहते थे वो जनसंघियों का घर था जिसके मालिक बड़े ताऊ जी थे, जिन्‍होंने मेरे पिता के व्‍यवहार से खुश होकर रहने को दिया था।
पापा सरकारी डॉक्‍टर थे बरेली के पचपेड़ा हॉस्‍पीटल में, अब बहुत ज्‍यादा तो याद नहीं कुछ । कुछ भूली सी स्‍मृतियां हैं जैसे कि एक नदी बहती थी घर के पास में जिसको पहले नाव से पार करते थे, फिर हॅस्‍पीटल आता था, बड़ी खूबसूरत सी जगह थी, फिल्‍मी स्‍टाइल वाली...बड़ा सा कंपाउंड जिसमें घुसते ही बाईं ओर बहुत ही सुंदर नन्‍हीं सी चारदीवारी से सजा हुआ सा एक कुंआ था जिसमें हल्‍की गिरारी वाली बाल्‍टी झूलती रहती थी। कंपाउंड के दाईं ओर हॉस्‍पीटल के लिए तीन कमरे दिए गये थे। कंपाउंड के ठीक बीच में बेहद खूबसूरत मंदिर था, मंदिर में कौन से भगवान विराजे थे... अब ये तो ठीक ठीक ठीक याद नहीं मगर उसकी घंटियों से मुझे लटकना अच्‍छा लगता था। हम वहां कुल डेढ़ साल ही रह पाये और इसी दौरान वो घटनायें घटीं जिन्‍हें अब हम इमरजेंसी के नाम से जानते हैं , उनकी भयावहता की बात करते हैं क्‍योंकि किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए ऐसी घटनायें एक दाग होती हैं ...बस।
उन दिनों की स्‍मृतियों में तैर जाते हैं वो दिन कि कैसे पुलिस से बचने के लिए मां के द्वारा वो अटपटी सी हरकतें किया जाना बिल्‍कुल भी अच्‍छा नहीं लगता था मुझे।ये भी अच्‍छा नहीं लगता था कि मेरे डॉक्‍टर पिता रात रात भर हॉस्‍पीटल में रहें ।मां बताती थीं कि पापा को सीएमओ से आदेश मिला था कि कम से कम डेढ़ सौ केस तो हर रोज करने ही हैं।केस का मतलब लोगों की नसबंदी कर देना था जो तब हम बच्‍चों की समझ से परे था कि बिना बीमारी के ऑपरेशन क्‍यों किये जा रहे हैं सबके।खैर... धरपकड़ के इसी माहौल में मंदिर के पुजारी बाबा को भी पकड़ लिया गया। बाद में घर में सब कानाफूसी कर रहे थे कि बाबा की भी नसबंदी करा दी गई। पापा मां को बता रहे थे कि हम क्‍या करें पुलिस का पहरा रहता है ,वो ही पकड़ कर लाते हैं और हमें तो हर हाल में ऑपरेशन करना होता है। छोटी सी बच्‍ची मैं नहीं जानती थी कि क्‍यों पूरा लगभग डेढ़ साल से ज्‍यादा का वक्‍त पापा का ऐसे बीता, ये तब ही जाना जब बड़ी हुई कि पापा जैसे और भी लोग थे जो सरकारी आदेशों को मानने के आगे विवश थे। 
बहरहाल अब कह सकती हूं कि पता नहीं वो कैसे कैसे दिन थे और कैसी कैसी जागती सी रातें कि आज भी हम उन काली स्‍मृतियों को भुला नहीं पा रहे हैं।
आज 39 साल बाद भी मुझे वो सारे सीन याद हैं जस की तस।
- अलकनंदा सिंह