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Friday, December 02, 2016

बीजेपी संगठन में भला कोई क्यों काम करे?

भारतीय जनता पार्टी ने लम्बे समय से इंतजार कर रही दिल्ली और बिहार इकाई को उनका नया अध्यक्ष दे दिया है। मनोज तिवारी को दिल्ली का अध्यक्ष बना दिया गया है। साथ ही बिहार इकाई का अध्यक्ष नित्यानंद राय को बना दिया गया है। उत्तर पूर्वी दिल्ली से बीजेपी सांसद मनोज तिवारी गायक हैं, भोजपुरी फिल्मों के अभिनेता हैं। संगठन में कोई खास काम नहीं किया है। लोकसभा चुनाव के ठीक पहले ही बीजेपी में आए हैं। नित्यानंद राय 4 बार विधायक रहे हैं और इस समय उजियारपुर संसदीय क्षेत्र से सांसद हैं। पहली नजर में तिवारी और राय के बीच कोई समानता नहीं नजर आती। लेकिन, इन दोनों के बीच एक ऐसी समानता है जिसने चुनाव वाले राज्य उत्तर प्रदेश के बीजेपी नेताओं की परेशानी बढ़ा दी है। दरअसल दोनों ही लोकसभा सांसद हैं। जनप्रतिनिधि हैं यानी चुनाव में इनको पहले टिकट मिला, फिर पदाधिकारी भी बना दिए गए। यही वो समानता है जिसने यूपी बीजेपी के नेताओं की परेशानी बढ़ा दी है। बीजेपी के टिकट की कतार में लगे नेता नई उलझन में हैं। दरअसल बीजेपी में एक अनकहा सा फरमान है कि किसी भी पार्टी पदाधिकारी को टिकट नहीं दिया जाएगा। इस चक्कर में कई लोगों को यूपी बीजेपी की नई टीम बनाते समय उसमें शामिल नहीं किया गया। उसके पीछे बड़ी सीधी सी वजह ये कि पार्टी पदाधिकारी चुनाव लड़ाने का काम करेंगे और ज्यादा से ज्यादा सीटों पर पार्टी प्रत्याशी को जिताने में जुटेंगे जबकि, खुद चुनाव लड़ने पर प्रत्याशी सिर्फ अपनी सीट के बारे में ही सोच सकेगा। इसी फॉर्मूले के तहत बहुत से लोगों को बीजेपी में पदाधिकारी नहीं बनाया गया। चुनावी रणनीति के लिहाज से ये काफी हद तक सही भी माना जा सकता है। लेकिन, उत्तर प्रदेश में हालिया पदाधिकारियों की नियुक्ति ने बीजेपी नेताओं को एक नई पहेली सुलझाने के लिए दे दी है। वो पहेली ये कि क्या अब बीजेपी में ज्यादातर पदाधिकारी सिर्फ जनप्रतिनिधि ही होंगे। कम से कम हाल में नियुक्त पदाधिकारियों के चयन से तो यही संदेश जाता दिखता है। उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्या बनाए गए। केशव इलाहाबाद की फूलपुर संसदीय सीट से चुनकर आए हैं।

केशव के अलावा शिवप्रताप शुक्ला उत्तर प्रदेश बीजेपी के उपाध्यक्ष हैं और साथ ही उन्हें पार्टी ने राज्यसभा में भी भेज दिया है। दूसरे उपाध्यक्षों में धर्मपाल सिंह विधायक हैं, आशुतोष टंडन (गोपाल) विधायक हैं। गोपाल टंडन लालजी टंडन के बेटे हैं। कल्याण सिंह के बेटे राजवीर सिंह भी सांसद हैं और प्रदेश उपाध्यक्ष हैं। सांसद सतपाल सिंह को भी प्रदेश का उपाध्यक्ष बनाया गया है। सुरेश राणा भी विधायक हैं, साथ ही प्रदेश उपाध्यक्ष भी। कानपुर से विधायक सलिल विश्नोई को भी पार्टी का महामंत्री बनाया गया है। जनप्रतिनिधियों का कब्जा सिर्फ अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, महामंत्री की कुर्सी तक ही नहीं है। एक महिला मोर्चा को छोड़कर यूपी में बीजेपी के सभी मोर्चे के अध्यक्ष जनप्रतिनिधि ही हैं। पिछड़ा मोर्चा का अध्यक्ष राजेश वर्मा को बनाया गया है। राजेश वर्मा सीतापुर से सांसद हैं। युवा इकाई का अध्यक्ष सुब्रत पाठक को बनाया गया है। सुब्रत पाठक कन्नौज से डिम्पल यादव के खिलाफ चुनाव लड़े थे और करीब 15 हजार मतों से हार गए थे। यानी पार्टी ने पहले सुब्रत को टिकट दिया और अब उन्हें पदाधिकारी भी बना दिया। सुब्रत पाठक कन्नौज के मजबूत नेताओं में हैं। लेकिन, सवाल वही है कि क्या बीजेपी में राजनीति करने वाले सिर्फ वही नेता महत्व पाएंगे, जो टिकट पाकर चुनाव जीत सकेंगे या चुनाव जीतने की हैसियत रखते हैं। यहां तक कि यूपी में अनुसूचित मोर्चा के अध्यक्ष कौशल किशोर भी सांसद हैं और अनुसूचित जनजाति मोर्चा अध्यक्ष छोटेलाल खरवार सोनभद्र से सांसद हैं। राजेश वर्मा और कौशल किशोर दोनों ही लोकसभा चुनाव से ठीक पहले ही बीजेपी में आए हैं। जनप्रतिनिधि को ही पदाधिकारी बनाने और पदाधिकारी को ही जनप्रतिनिधि बना देने की ये नई परम्परा यहीं खत्म नहीं होती है। उत्तर प्रदेश को अपने काम के लिहाज से बीजेपी ने 8 क्षेत्रों में बांट रखा है। उन 8 क्षेत्रों में से 3 के अध्यक्ष जनप्रतिनिधि ही हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाले काशी क्षेत्र के अध्यक्ष  लक्ष्मण आचार्य हैं और उन्हीं को पार्टी ने विधान परिषद सदस्य भी बनाया। पश्चिम क्षेत्र के अध्यक्ष भूपेंद्र सिंह विधान परिषद के सदस्य हैं। अवध क्षेत्र के अध्यक्ष मुकुट बिहारी वर्मा भी विधायक हैं।


सामान्य तौर पर देखने पर इसमें कोई भी गड़बड़ी नजर नहीं आती। लेकिन, ज्यादातर राजनीतिक पार्टियों का आधार मजबूत करने में बड़े आधार वाले नेताओं के साथ शानदार संगठन करने वाले नेताओं की भी बड़ी भूमिका रही है। भारतीय जनता पार्टी तो मूलत: संघ के पूर्णकालिक संगठन मंत्रियों के आधार पर संगठन तैयार करने वाली पार्टी रही है। जहां संगठन में अच्छा काम करने वालों को ही पदाधिकारी बनाए जाने की परम्परा रही है। अब सवाल ये है कि अगर जनप्रतिनिधियों को ही पदाधिकारी और पदाधिकारी को ही मनोनीत जनप्रतिनिधि बनाने की ये परम्परा मजबूत हो रही है, तो कौन संगठन का काम करेगा। भारतीय जनता पार्टी सत्ता में है, लगातार चुनाव जीत रही है। अभी हो सकता है कि इस गलत परम्परा के खतरे न दिख रहे हों। लेकिन, जब पार्टी का चुनावी आधार हल्का पड़ेगा, तो संगठन में काम करने वाले भी शायद ही मिलेंगे। संगठन हो या सरकार बीजेपी कुछ ही लोगों के हाथ में हर तरह की सत्ता जाने के बड़े खतरे की ओर बढ़ रही है। 
(ये लेख QUINTHINDI पर छपा है)

Friday, October 07, 2016

यूपी में बीजेपी की पॉलिटिकल “सर्जिकल स्ट्राइक”

करीब एक महीने पहले ही ये तय हो गया था कि स्वाति सिंह को उत्तर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी की महिला मोर्चा का अध्यक्ष बनाया जाएगा। लेकिन, एक सही मौके का इंतजार किया जा रहा था। और जब मायावती ने सर्जिकल स्ट्राइक पर सरकार को नसीहत दी और कहाकि बीजेपी को इसका राजनीतिक फायदा नहीं उठाना चाहिए, तो भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश में एक राजनीतिक सर्जिकल स्ट्राइक कर दी। ये राजनीतिक सर्जिकल स्ट्राइक है स्वाति सिंह को भारतीय जनता पार्टी महिला मोर्चा का प्रदेश अध्यक्ष बनाया जाना। ये वही स्वाति सिंह हैं, जिनकी पहचान अभी भी @BJPSwatiSingh की पहचान ट्विटर पर बीजेपी के पूर्व उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह की पत्नी के तौर पर ही है।
स्वाति सिंह के पति दयाशंकर सिंह जिस मायावती के खिलाफ टिकट बेचने के आरोप को लेकर शर्मनाक बयान देने की वजह से निकाले गए। उन्हीं मायावती की पार्टी के नसीमुद्दीन सिद्दीकी और दूसरे बड़े नेताओं की मौजूदगी में दयाशंकर सिंह की पत्नी स्वाति सिंह और उनकी नाबालिग बेटी के खिलाफ अभद्र बयानों ने स्वाति सिंह को घर की दहलीज से बाहर लाकर उत्तर प्रदेश में नारी स्वाभिमान की लड़ाई का बड़ा चेहरा बना दिया। इतना बड़ा चेहरा कि स्वाति के पति दयाशंकर सिंह को पार्टी से 6 साल से निकालने वाली भाजपा को स्वाति सिंह के पीछे खड़ा होना पड़ा।
पूरे प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी ने बेटी के सम्मान में भाजपा मैदान में नारे के साथ बड़ा प्रदर्शन किया। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़कर राजनीति शुरू करने वाले दयाशंकर सिंह लखनऊ विश्वविद्यालय के महामंत्री और अध्यक्ष रहे। लखनऊ विश्वविद्यालय की राजनीति के दौरान ही दयाशंकर सिंह और स्वाति सिंह का प्रेम हुआ, जिसकी परिणति विवाह के तौर पर हुई। लेकिन, स्वाति सिंह कभी भी सीधे तौर पर राजनीति में नहीं रहीं। बलिया जिले से आने वाले दयाशंकर सिंह ने विद्यार्थी परिषद से भारतीय जनता युवा मोर्चा का रास्ता पकड़ा। युवा मोर्चा के अध्यक्ष रहे दयाशंकर सिंह ने बाद भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय मंत्री और उपाध्यक्ष का जिम्मा भी संभाला। दयाशंकर की पहचान भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में एक ऐसे नेता के तौर पर होती रही है जिसके संबंध हर दौर में प्रदेश नेतृत्व से अच्छे रहे। यही वजह रही कि 2007 में दयाशंकर सिंह को बलिया से विधानसभा टिकट मिला। हालांकि, दयाशंकर सिंह चुनाव हार गए। और इसके बाद 2 बार विधान परिषद का प्रत्याशी घोषित होने के बाद वहां भी हार का ही सामना करना पड़ा।
लक्ष्मीकांत बाजपेयी के बाद जब केशव प्रसाद मौर्या प्रदेश अध्यक्ष बने, तो दयाशंकर सिंह को फिर से प्रदेश की टीम में उपाध्यक्ष के तौर पर शामिल कर लिया गया। लेकिन, उपाध्यक्ष बनने के बाद मऊ दौर पर गए दयाशंकर सिंह ने टिकटों की बिक्री पर मायावती के खिलाफ ऐसा शर्मनाक बयान दे दिया कि भारतीय जनता पार्टी के गले की हड्डी बन गए। हालात ऐसे कि न उगलते बन रहा था, न निगलते। मायावती की बहुजन समाज पार्टी सड़कों पर आ गई। और लगा कि 2017 का विधानसभा चुनाव शुरू होने से पहले ही भारतीय जनता पार्टी राज्य की राजनीति से बाहर हो गई। लेकिन, उसी समय स्वाति सिंह ने कमान संभाली और इस क्षत्राणी ने अपने तीखे तेवरों से राज्य की राजनीति का रुख बदल दिया। 48 घंटे में ऐसे हालात बन गए कि राज्य की जनभावना स्वाति सिंह के साथ मजबूती से खड़ी दिखने लगी। दयाशंकर से कन्नी काट रही भाजपा स्वाति सिंह के साथ खड़ी हो गई। लेकिन, इसके बावजूद भारतीय जनता पार्टी दयाशंकर सिंह को वापस पार्टी में लेने का फैसला करने का साहस नहीं कर पा रही थी। जबकि, पार्टी के भीतर भी दयाशंकर सिंह के खिलाफ हुई कार्रवाई से लोगों में नाराजगी थी।
खासकर सवर्णों में इस बात को लेकर बेहद आक्रोश था, इसीलिए बीजेपी नेतृत्व भी भ्रम की स्थिति में था। इसी बीच दयाशंकर सिंह और उनकी पत्नी स्वाति सिंह ने उत्तर प्रदेश के 7-8 जिलों में क्षत्रिय स्वाभिमान रैली की। रैली में स्वाति सिंह की शैली ने बीजेपी नेताओं को आश्वस्त कर दिया। स्वाति सिंह लगातार मायावती को चुनौती देती रहीं कि अगर वो किसी सामान्य सीट से लड़ेंगी, तो स्वाति सिंह उनके खिलाफ चुनाव लड़ेंगी। दयाशंकर लगातार प्रदेश बीजेपी से लेकर राष्ट्रीय नेतृत्व से अपनी वापसी की गुहार लगा रहे थे। और अंत में राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने बीच का रास्ता निकाला। स्वाति सिंह को महिला मोर्चा का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया गया। मायावती के एलओसी पार हुई सर्जिकल स्ट्राइक का राजनीतिक लाभ न लेने की बात कही और बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में स्वाति सिंह को अध्यक्ष बनाकर राजनीतिक सर्जिकल स्ट्राइक कर दी है। इतना तो तय है कि ये राजनीतिक सर्जिकल स्ट्राइक उत्तर प्रदेश की राजनीति के कई स्थापित समीकरणों को ध्वस्त करेगी। 

Sunday, October 25, 2015

बिहार के भले की सरकार बननी जरूरी

बिहार में किसी सरकार बनेगी, ये आठ नवंबर को तय होगा। लेकिन, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कह रहे हैं कि बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद देश में बीजेपी विरोधी मंच और मजबूत होगा। साथ ही नीतीश ये भी दावा कर रहे हैं कि ये नतीजे बिहार का भी भाग्य बदल देंगे। पहली बात सही हो सकती है कि अगर महागठबंधन की सरकार बनती है, तो देश में भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी विरोधी ताकतें एकजुट होंगी और पहले से मजबूती से होंगी। लेकिन, क्या महागठबंधन की जीत बिहार के लोगों, खासकर नौजवानों का भला कर पाएगी। इस सवाल का जवाब आंकड़ों से समझें, तो ना में ही मिलता है। नीतीश कुमार की अगुवाई में भारतीय जनता पार्टी के साथ चला एनडीए का बिहार देश का सबसे तेजी से तरक्की करना वाला राज्य बन गया था। 2012-13 में बिहार की तरक्की की रफ्तार पंद्रह प्रतिशत थी। जो, देश के किसी भी राज्य से ज्यादा थी। गुजरात, महाराष्ट्र जैसे देश के विकसित राज्य भी बिहार से पीछे छूट गए थे। जून 2013 में नीतीश कुमार ने बिहार में भारतीय जनता पार्टी से अलग होने का फैसला कर लिया। वजह गुजरात के उस समय के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाने का बीजेपी का फैसला था। नीतीश कुमार ने विधानसभा चुनावों के पहले अपनी सरकार का रिपोर्ट कार्ड पेश करते हुए दस प्रतिशत की तरक्की की रफ्तार को सबसे बड़ी उपलब्धि बताया। उसी रिपोर्ट में राज्य की बेहतर होती कानून व्यवस्था का भी जिक्र है। नीतीश कुमार के रिपोर्ट कार्ड के आधार पर देखें, तो मार्च 2013 तक पंद्रह प्रतिशत की तरक्की की दर मार्च 2015 तक दस प्रतिशत के नीचे आ गई है। सीधा सा मतलब है कि बिहार की तरक्की की रफ्तार में तेजी से कमी आई है। यही वो समय है जब नीतीश कुमार ने बीजेपी का साथ छोड़कर लालू प्रसाद यादव का साथ किया था।

नीतीश-बीजेपी गठबंधन टूटने के बाद से राज्य में अपराध के मामले तेजी से बढ़े हैं। सांप्रदायिक तनाव के मामले कई गुना बढ़े हैं। जनवरी 2010 से जून 2013 तक 226 सांप्रदायिक तनाव के मामले दर्ज हुए थे। जबकि, जून 2013 से 2015 के दौरान साढ़े छे सौ से ज्यादा सांप्रदायिकक तनाव के मामले दर्ज हुए हैं। सुशासन बाबू की छवि पर ये तगड़ा धक्का था। बिना बीजेपी के नीतीश की सरकार में बढ़ रहे अपहरण के मामले लालू प्रसाद यादव के जंगलराज की याद दिलाने लगते हैं। बिहार पुलिस के आंकड़ों के मुताबिक, 2010 में 924, 2011 में 1050, 2012 में 1188 अपहरण के मामले दर्ज हुए। 2013 से अपहरण के मामले तेजी से बढ़े हैं। 2013 में 1501, 2014 में 1982 और 2015 अगस्त महीने तक ही 1694 अपहरण के मामले दर्ज किए गए हैं। लेकिन, कमाल की बात ये है कि बिहार के चुनाव में तरक्की की रफ्तार या फिर अपराध, अपहरण के मामले चुनावी मुद्दा नहीं हैं। चुननावी मुद्दा पूरी तरह से जाति है। आरक्षण है। इस बहस में ये पूरी तरह से गायब है कि तरक्की रफ्तार बेहतर नहीं होगी और कानून-व्यवस्था की हालत दुरुस्त नहीं होगी तो, नौजवान को रोजगार कैसे मिल पाएगा। काबिल होने के बावजूद रोजगार न मिल पाना ही बिहार से पलायन की सबसे बड़ी वजह है। जो नौजवान बिहार में हैं। उनमें करीब आधे के लिए कमाई का जरिया सिर्फ और सिर्फ खेती ही है। बिहार में खेती की तरक्की की रफ्तार चार प्रतिशत से भी कम है। तो इसी से समझा जा सकता है कि खेती से नौजवान कितनी कमाई कर पा रहे होंगे। बचे-खुचे नौजवानों को कंस्ट्रक्शन क्षेत्र में मजदूरी का काम मिल रहा है।

खेती में खास तरक्की है नहीं और नए उद्योग भी नहीं लग रहे हैं। 2013 के आखिर के आंकड़ों के आधार पर पूरे राज्य में छोटे-बड़े सभी उद्योगों को जोड़ें, तो ये संख्या साढ़े तीन हजार से भी कम बैठती है। जो देश के उद्योगों का सिर्फ डेढ़ प्रतिशत है। देश के तेजी से तरक्की करने वाले राज्यों- तमिलनाडु (16.6%), महाराष्ट्र (13.03%), गुजरात (10.17%)- में ये दस प्रतिशत से ज्यादा है। विश्व बैंक के उद्योग लगाने के लिए भारत के बेहतर राज्यों की सूची में बिहार का स्थान इक्कीसवां आता है। इसलिए बिहार में उद्योगों का ना के बराबर होना चौंकाता नहीं है। गुजरात इस सूची में पहले स्थान पर है। झारखंड, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान का स्थान इसके बाद है। जाहिर है खेती में तरक्की की रफ्तार बेहद कम होने और उद्योगों के ना के बराबर होने से बिहार के नौजवानों के पास अपना घर, जमीन छोड़ने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं है। देश भर में उद्योगों में करीब तेरह करोड़ लोगों को रोजगार मिला हुआ है। बिहार में सिर्फ एक लाख सोलह हजार लोगों को उद्योगों में रोजगार मिला है। इसी से समझा जा सकता है कि बिहार में उद्योगों का हाल कितना बुरा है। इस वजह से बिहार पलायन कर रहा है। इस पलायन का भी सबसे दुखद पहलू ये है कि बिहार में ज्यादा पढ़ लेने का मतलब है कि बिहार में रोजगार मिलना मुश्किल है। बार-बार ये बात होती है कि बिहारी बिहार में नहीं टिक रहा है। लेकिन, इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि बिहार का नौजवान अगर अच्छे से पढ़ने के बाद रोजगार का बेहतर मौका खोज रहा है। तो उसे बिहार छोड़ना ही होगा। नीतीश कुमार भले ही दस साल के राज में देश के सबसे तेजी से तरक्की करने वाले राज्य का दावा पेश कर रहे हों। लेकिन, आंकड़े साफ बता रहे हैं कि बिहार एक राज्य के तौर पर अपने राज्य के नौजवानों को बेहतर जिंदगी देने का काम नहीं कर पाया है।


स्वास्थ्य के मामले में भी बिहार के हालात बहद खराब हैं। बच्चों का जीवन नहीं बच पा रहा है। बिहार में दस लाख लोगों पर एक भी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं है। बिहार में कुल 533 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र 2009 में थे। दुखद बात ये है कि 2014 तक एक भी नया सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं बना है। लेकिन, इन बातों में से कोई भी बिहार के चुनावी मुद्दे में शामिल नहीं है। वहां जातीय भावना उभारने की लड़ाई हो रही है। रोजगार, स्वास्थ्य, कानून-व्यवस्था कोई मुद्दा दिख नहीं रहा। लेकिन, बिहार में रह रहे बिहारी और बाहरी बिहारियों के लिए ये मुद्दा जरूर होगा। और आठ नवंबर को जिसकी भी सरकार बनेगी। इन्हीं मुद्दों के इर्द गिर्द बनेगी। बिहार की सरकार बिहार के भले के लिए बनेगी। 

Saturday, July 11, 2015

बिहार में बदल गए हैं जाति के नेता

बिहार विधान परिषद के चुनाव नतीजों ने राजनीतिक पंडितों के लिए पुनर्निरीक्षण की बुनियाद बना दी है। ज्यादातर राजनीतिक पंडितों, अनुमानों ने लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल और नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड के गठजोड़ के बाद बिहार में बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए की नैया डूबी ही मान ली है। बिहार में नीतीश का ही जनता दल यूनाइटेड है, भले इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव हों। सामान्य राजनीतिक समीकरण यही कह रहा है कि बिहार में जाति की राजनीति इस कदर हावी है कि अब  बीजेपी के लिए रामविलास का साथ होने के बावजूद चुनाव जीतना मुश्किल है। सामान्य राजनीतिक समीकरण कहता है कि यादव और दलित अगर जुड़ जाएं तो, फिर बिहार में किसी को भी सिंहासन पर बैठा सकता है। उस मुसलमान साथ आ जाएं तो, सोने पर सुहागा जैसा हो सकता है। और राजनीतिक विद्वान लालू-नीतीश के गठजोड़ से इसी सोने पर सुहागा जैसी स्थिति की कल्पना में हैं। लेकिन, ये सामान्य राजनीतिक समीकरण की बात थी। जबकि, अब बिहार का राजनीतिक समीकरण सामान्य नहीं रहा है। यादव पूरा का पूरा न लालू प्रसाद यादव के साथ है। और न ही मुसलमान। कुर्मी और दलितों में भी एनडीए ने रणनीतिक सेंध लगा दी है। रही-सही कसर खुद नीतीश कुमार ने जीतन राम मांझी को पार्टी से निकालकर कर दी। लेकिन, राजनीतिक समीकरण सीधा जोड़, घटाना या गुणा, भाग नहीं होता। अब उसमें नया मोड़ ये है कि 23 प्रतिशत दलित और 15 प्रतिशत यादव वोट अब सीधे लालू या नीतीश के खाते में नहीं जा रहा है। बिहार विधान परिषद चुनावों ने ये साफ भी कर दिया है।

 
जीतनराम मांझी मुसहर जाति से आते हैं। ये बिहार में महादलित वर्ग है। दरअसल भारतीय जनता पार्टी ने बड़ी चतुराई से दलितों में भी महादलित का नारा इसलिए मजबूत किया है जिससे नीतीश कुमार के महागठजोड़ से मुकाबला किया जा सके। जीतनराम मांझी ने मुख्यमंत्री रहते कुछ बड़े शानदार फैसले किए हैं। उन्होंने महिलाओं को आरक्षण दिया। साथ ही ठेके पर नियुक्त शिक्षकों को नियमित कर दिया। विवादित बयान के लिए ज्यादा जाने गए जीतन राम मांझी कमजोर ब्राह्मण और राजपूतों को भी आरक्षण की वकालत करते हैं। ये ऐसे फैसले हैं जिसका असर मत देते समय लोगों के दिमाग में जरूर होगा। और सबसे बड़ी बात ये है कि भले ही जीतनराम मांझी अलग पार्टी बनाकर चुनाव लड़ें, मतदाता के दिमाग में लगभग साफ है कि लालू-नीतीश एक साथ और बीजेपी-रामविलास और जीतनराम के साथ। रामविलास पासवान ने अपने जन्मदिन पर जीतनराम को केक खिलाकर ये साफ कर दिया कि कौन कहां खड़ा है।  और, सबके बाद बिहार में सारी लड़ाई जाति की ही है। लेकिन, अब इस जाति की लड़ाई में कई बड़े तथ्य जुड़ गए हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण देखने को मिला लोकसभा चुनाव में। जब रामकृपाल यादव ने बीजेपी के चुनाव चिन्ह पर लालू प्रसाद यादव की बेटी मीसा को हराया तो, साफ हो गया कि बिहार गोप समीकरण बदल रहा है। सिर्फ रामकृपाल यादव ही नहीं, बीजेपी के टिकट पर सीवान, उजियारपुर, और मधुबनी से भी जीतने वाले यादव ही हैं। और उन्होंने राष्ट्रीय जनता दल के प्रत्याशियों को हराया है। आरजेडी के बाहुबली सांसद पप्पू यादव भी अब लालू का साथ छोड़ चुके हैं। पूर्णिया, सहरसा, मुंगेर और भागलपुर में पप्पू यादव का कितना प्रभाव है, इस पर बहस हो सकती है लेकिन, इसे नकारना संभव नहीं है। पप्पू यादव ने अपनी नई पार्टी बना ली है। और राज्य में पदयात्रा पर निकल पड़े हैं। पप्पू यादव की छवि राष्ट्रीय स्तर पर कितनी भी खराब हो लेकिन, सच्चाई यही है कि यादव जाति के लोगों में पप्पू यादव का प्रभाव कई बार लालू प्रसाद यादव से भी ज्यादा दिखा है। शायद यही वजह भी रही कि लालू प्रसाद यादव ने पप्पू यादव को पार्टी से निकाल बार किया। क्योंकि, लालू प्रसाद यादव के उत्तराधिकारियों, मीसा-तेजप्रताप-तेजस्वी, में से कोई भी पप्पू यादव के आसपास भी खड़ा नहीं होता है। ये वही पप्पू यादव हैं जिन्होंने मई 2014 के लोकसभा चुनाव में मधेपुरा से शरद यादव को हरा दिया। जबकि, लोकसबा चुनावों में मोदी लहर में खुद लालू प्रसाद यादव की बेटी मीसा भारती और पत्नी राबड़ी देवी चुनाव हार गईं।
 
भूमिहार ब्राह्मण और राजपूतों को स्वाभाविक तौर पर भारतीय जनता पार्टी का वोटर माना जाता रहा है। बावजूद इसके कि बिहार की राजनीति में राजपूत और भूमिहार एक दूसरे के कट्टर विरोधी हैं। भूमिहार ज्यादा प्रभावशाली वर्ग है। और, लोकसभा चुनाव के बाद किसी भूमिहार को मंत्री न बनाने से भूमिहारों में गस्सा था। लेकिन, गिरिराज सिंह को मंत्री बनाकर नरेंद्र मोदी ने भूमिहारों को गुस्सा कम कर दिया है। इसके अलावा लालू-नीतीश के हाथ मिला लेने से इन दोनों जातियों के पास बीजेपी के पाले में जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं दिखता है। कुल मिलाकर बिहार की राजनीति में जाति खत्म नहीं हुई है। लेकिन, जातियों के नेता एक नहीं रह गए हैं। एक जाति के कई नेता हो गए हैं। और सबकी अपनी राजनीति है। इसलिए महागठजोड़ या महादलित कौन सा दांव इस विधानसभा चुनाव में हिट होगा। इसका अंदाजा लगाना सीधा तो नहीं है। कम से कम बिहार विधान परिषद के चुनाव ने तो ये साफ कर ही दिया है। विधान परिषद के चुनाव चाहे सीधे जनता के वोट से न चुने जाते हों। लेकिन, सच्चाई ये भी है कि ये इशारा महत्वपूर्ण इसलिए भी है कि ज्यादातर विधान परिषद चुनाव में सत्ता पक्ष के ही विधायक चुने जाते हैं। यहां सत्ता बदले भले न बदलने के तगड़े संकेत हैं, तभी ये परिणाम हैं।

Friday, February 13, 2015

28 फरवरी बीजेपी की घर वापसी की तारीख!


भारतीय जनता पार्टी के लिए इससे तगड़ा झटका कुछ नहीं हो सकता। वो भी ऐसे समय में जब कुछ ही समय पहले अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा को भारत बुलाकर और उन्हें अपना बचपन टाइप का दोस्त बताकर नरेंद्र मोदी ने सबको चकाचौंध कर दिया था। लग रहा था कि नरेंद्र मोदी ने जग जीत लिया है। लेकिन, ये क्या जगत छोड़िए, नरेंद्र मोदी और उनके सफलतम अध्यक्ष अमित शाह की अगुवाई वाली भाजपा दिल्ली ही हार गई। ये वो दिल्ली है, जिसे आप कितना भी नकारने की कोशिश करें। देश को समझ में यही दिल्ली आती है। ये दिल्ली चुनावी सर्वे के सैंपल साइज की तरह है। हालांकि, चुनावी सर्वे की ही तरह कई बार दिल्ली के चुनावी नतीजे भी गलत साबित होते हैं। लेकिन, सच्चाई ये भी है कि गलत साबित होने तक अबब इसी दिल्ली के चुवनावी नतीजे देश की दशा-दिशा बताएंगे। इस लिहाज से तो भारतीय जनता पार्टी की दशा-दिशा बेहतर खराब हो गई। लेकिन, क्या ऐसा सचमुच है। मेरी नजर में ऐसा बिल्कुल नहीं है। भारतीय जनता पार्टी की इतनी करारी हार की ढेर सारी समीक्षाएं हो रही हैं, होती रहेंगी। लेकिन, मैं समीक्षा नहीं करूंगा। मैं वो बात करने जा रहा हूं जो, देश के तौर पर भारत के लिए और उसी देश की मजबूती के लिए भारतीय जनता पार्टी के लिए बेहद जरूरी हैं।

फरवरी के महीने में दिल्ली की जबरदस्त हार भाजपा के सामने आई है। और हार क्या पूरी सफाई हो गई है। उस पर दिल्ली की इस हार के लिए जिम्मेदार जो भी ठहराया जाए। सच्चाई यही है कि दिल्ली की चुनावी कमान पूरी तरह से इस समय की भाजपा की शीर्ष तिकड़ी मोदी-शाह-जेटली के ही हाथ में था। और ये सब अच्छे से जानते हैं। इसलिए इस चुनाव के नतीजे सिर्फ विपक्षी दलों को ही नहीं भारतीय जनता पार्टी के भीतर का भी संतुलन बिगाड़ेंगे। लेकिन, ये बीजेपी के लिए घर वापसी का शानदार मौका है। बीजेपी के लिए घर वापसी मतलब आजकल चर्चा में आई घर वापसी नहीं बल्कि, लोगों का बीजेपी में 2014 की गर्मियों जैसा भरोसा वापस लौटने का है। जब दिल्ली के चुनाव हो रहे थे तो आम आदमी पार्टी एक बात बहुत जोर शोर से चिल्ला रही थी। वो ये था कि जब देश का वित्त मंत्री दिल्ली विधानसभा के चुनाव में ही सारी ऊर्जा, समय लगाएगा तो देश के बजट का क्या होगा। सीधे तौर पर ये बात लोगों को समझ में भी आती है। और भारतीय जनता पार्टी को भी ये बात समझनी होगी। क्योंकि, दिल्ली विधानसभा के चुनाव भले ही नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी  की नीतियों की हार न हों। लेकिन, अगर देश का बजट उस रास्ते पर जाता न दिखा तो देश का भरोसा निश्चित तौर पर नरेंद्र मोदी और पूर्ण बहुमत की भारतीय जनता पार्टी की सरकार से डिग सकता है। इसलिए इस फरवरी महीने के आखिर में पेश होने वाले बजट को अगर वित्त मंत्री अरुण जेटली संभाल पाए तो महीने के दूसरे हफ्ते में मिली हार आखिरी हफ्ते तक जीत में बदल सकती है। और ये बेहद आसान है। आसान इसलिए कि देश का संवैधानिक ढांचा ऐसा है जिसमें राष्ट्रीय नीतियों के क्रियान्वयन में राज्यों की हिस्सेदारी भले महत्वपूर्ण हो लेकिन, इसे बनाने का काम पूरी तरह से राष्ट्रीय सरकार यानी संसद को ही करना होता है। और अगले साल भर के लिए देश की दुनिया में छवि क्या होगी, इसी को पुख्ता करने का काम नरेंद्र मोदी-अरुण जेटली को 28 फरवरी को पेश होने वाले बजट के जरिए करना है। दिल्ली के चुनावों में अरविंद केजरीवाल ने भले ही मुफ्त बिजली, पानी, वाई-फाई का ऐसा हल्ला किया है कि लग रहा है दिल्ली ने मुफ्तउवा मूड में ही आम आदमी पार्टी को इतनी शानदार जीत दे दी है। लेकिन, ऐसा है नहीं। सच्चाई ये है कि आम आदमी पार्टी की शानदार जीत में पिछले विधानसभा से इस विधानसभा चुनाव के दौरान जुड़े दस लाख नए मतदाता (सीधा मतलब 18 साल के नौजवान) और पहले से ही नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल दोनों को एक साथ नायक मानने वाले नौजवान का ही पूरा योगदान है। दूसरा मतदाता वर्ग तो नौजवानों के साथ लगे-लगे पांच साल केजरीवाल के संयुक्त गान में शामिल हो गया। और कम से कम ये नौजवान मतदाता मुफ्तउवा नहीं देश की तरक्की के सपने देखने वाला है। इसका कतई ये मतलब नहीं है कि महंगाई पर सरकार काबू न करे। महंगाई पर काबू तो जरूरी है लेकिन, अगर ये मतदाता मुफ्त और सस्ते के चक्कर वाला होता तो बीजेपी को शानदार सफलता दिल्ली में मिलनी चाहिए थी। पेट्रोल-डीजल वैसे तो सस्ता हो ही रहा था। लेकिन, दिल्ली चुनावों के दौरान कच्चे तेल के चढ़ते भाव के बीच भी केंद्र ने तेल कंपनियों को इशारा करके शायद इसी नीयत से पेट्रोल-डीजल सस्ता कराया था। इसका सीधा सा मतलब है कि नए भारत को मुफ्त या सस्ता नहीं चाहिए। उसे अपनी जेब की ताकत बबढ़ती हुई दिखनी चाहिए। इसके लिए उसे रोजगार के मौके, कारोबार के मौके चाहिए। इसके उसे दस प्रतिशत की तरक्की सपना सच होने का रास्ता तेजी से तय होता दिखना चाहिए। इसके लिए उसे अपने भारत की ताकत दुनिया में बढ़ती हुई दिखनी चाहिए। इसके लिए उसे दिखना चाहिए कि देश की कंपनियां दुनिया की बड़ी कंपनियों के मुकाबले में बराबरी से खड़ी हैं। इसके लिए उसे दिखना चाहिए कि देश के बड़े प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थानों की गिनती दुनिया के बड़े शिक्षा संस्थानों के आसपास हो। इसके लिए उस नौजवान को ये दिखना चाहिए कि देश का बुनियादी ढांचा दुनिया के दूसरे देशों के बुनियादी ढांचे के मुकाबले में जरा सा भी कमजोर नहीं है।

अब ये सब एक बजट में आखिर होगा कैसे। ये हो सकता है। बल्कि, सही मायने में हो रहा है। पिछले 9 महीने में नरेंद्र मोदी की सरकार ने देश की ताकत बढ़ाने वाला हर काम किया है। चाहे वो विदेश कूटनीति का मोर्चा हो या फिर देश की कारोबारी इज्जत दुनिया में बढ़ाने का मसला हो। दुनिया भारत की बढ़ती ताकत देख रही है और इस बढ़ती ताकत वाले भारत के साथ खड़ी हो रही है, दिखना चाह रही है। दुनिया का संतुलन भारत के लिहाज से तय हो रहा है। चीन के अखबार, थिंकटैंक ये बताने में लगे हैं कि अमेरिका के साथ भारत के कौन से विरोधाभास हैं जिनकी वजह से भारत का चीन के नजदीक आना ज्यादा स्वाभाविक है। ऐसा ही तर्क पश्चिमी मीडिया भारत और चीन के गठजोड़ पर दे रहा है। इसका मतलब सबको भारत चाहिए। इसलिए भारत अपनी शर्तें भी तय कर सकता है। ये अद्भुत समय है जब दुनिया में भारत अपनी शर्तें मनवाने की स्थिति में है और भारत का नौजवान देश की पहचान बदलने के लिए सरकार के हर उस फैसले के साथ खड़ा होता दिख रहा है जो देश की ताकत बढ़ाए। इसलिए नरेंद्र मोदी-अरुण जेटली का बजट इस दिशा में कड़े और बड़े फैसलों वाला बजट होना चाहिए। पिछला बजट तो कामचलाऊ था। ये अरुण जेटली का पहला पूर्ण बजट है। दुनिया में कारोबारी संतुलन ने अवसर दिया है कि सरकारी खजाने का घाटा बहुत कम हो गया है। डॉक्टर मनमोहन सिंह की ढेर सारी नीतियों को अच्छे से लागू करने से उन कड़वे फैसलों के सिर्फ अच्छे असर इस सरकार के हिस्से में आए हैं। अभी पूरे चार साल से ज्यादा इस सरकार के पास हैं। बजट ऐसा हो जिसकी अगली कड़ी अगले साल के बजट में दिखे। बजट साफ-साफ बताए कि कैसे पुरानी सरकार में नीतियों के रुके रहने की वजह से भारत की तरक्की की रफ्तार पर दुनिया की बड़ी संस्थाओं को संदेह था। बजट बताए कि कैसे अब इस सरकार में तेजी से फैसले लेने से दुनिया को भारत की ही तरक्की सबबसे तेज होती नजर आ रही है। ये बजट बताए कि बुनियादी सुविधाओं के मामले में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के फैसलों को तेज रफ्तार तरक्की के हाईवे पर ले जाने का ही काम ये सरकार कर रही है। और पहले से तेजी से कर रही है। 28 फरवरी ये भी तय करेगा कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की हार हुई है या फिर देश अभी भी नरेंद्र मोदी के साथ है। विश्व गुरू जैसा शब्द सीधे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दिया हुआ नजर आनने लगेगा। लेकिन, सच्चाई यही है कि बीजेपी और नरेंद्र मोदी के लिए 28 फरवरी की तारीख मजबूती से घर वापसी की तारीख है।
(ये लेख आज दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में छपा है)

Tuesday, April 29, 2014

संत चरित्र या कारोबारी चरित्र

साल 2013 के पहले महीने यानी जनवरी के आखिर में लंबी कसरत के बाद भारतीय जनता पार्टी ने जब राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर नितिन गडकरी की दोबारा ताजपोशी नहीं होने दी तो, अलग-अलग कयास लगाए गए। कोई लालकृष्ण आडवाणी के अड़ जाने की खबर ला रहा था तो कोई संघ के खुद की छवि को धक्का न लगने की कोशिश को। कुछ पत्रकार ये भी खबर ला रहे थे कि दरअसल नितिन गडकरी ने राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद जिस तरह से दिल्ली दरबार के डी4  को एकदम किनारे कर दिया था वो, बड़ी वजह बना। आज भी नितिन गडकरी पूरे ठसके से ये बात बोलते सुने जा सकते हैं कि पूर्ति के भ्रष्टाचार का मसला सिर्फ उन्हें हटाने के लिए लाया गया था। उसमें कोई सच्चाई नहीं है। हम जैसे सामान्य समझ और इस मामले में कम जानकारी रखने वाले लोगों को ये एक बार सही भी लगता है। क्योंकि, नितिन गडकरी के अध्यक्ष पद से हटने के बाद कभी पूर्ति की चर्चा न मीडिया ने की, न कांग्रेस ने। तो क्या नितिन गडकरी को भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से हटाकर गलती की। मेरी निजी राय में बिल्कुल नहीं। मेरी निजी राय यही है कि राजनीति से पहले अगर कोई और प्राथमिक काम किसी का है तो उसे कम से कम किसी पार्टी का राष्ट्रीय या प्रदेश अध्यक्ष भी नहीं बनना चाहिए। ऐसा नहीं है कि नितिन गडकरी ने राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते कुछ बेहतर नहीं किया। नितिन गडकरी ने ढेर सारे बेहतर काम किए। नितिन गडकरी के पहले के 11 अशोक रोड और उसके बाद के 11 अशोक रोड में जाकर कोई भी गडकरी की दूसरी क्षमताओं से प्रभावित हो सकता है। लेकिन, राजनीतिक आंकलन में गडकरी से चूक हुई जो, 2012 के उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में साफ दिखा। और इसीलिए मुझे हमेशा ये लगता है कि जो संघ विचारधारा से जुड़े चार्टर्ड अकाउंटेंट एस गुरुमूर्ति ने नितिन गडकरी पर पूर्ति विवाद के समय टिप्पणी की थी वो बड़ी महत्वपूर्ण है। गुरुमूर्ति ने ट्वीट किया था कि वो निजी तौर पर मानते हैं कि किसी भी राष्ट्रीय अध्यक्ष को कारोबार में नहीं होना चाहिए। क्योंकि, इससे हमेशा मुश्किलें खड़ी होती रहती हैं। और, छवि पर भी बुरा असर होता है। इसी छवि का बड़ा महत्व है।

अब ताजा मामला है रामदेव का। जब कोई योग गुरु रामदेव कहता है तो मुझे एतराज नहीं होता। लेकिन, जब स्वामी या बाबा रामदेव कहता है तो थोड़ा पचाने में मुश्किल होती है। क्योंकि, भाई रामदेव संत नहीं हैं। इस पर कोई चाहे तो मुझसे बहस कर सकता है। स्वामी रामदव बिना डिग्री के आयुर्वेदिक डॉक्टर हो सकते हैं। अच्छे योग चेतना जगाने वाले प्रभावी पुरुष हो सकते हैं। लेकिन, ये बात रामदेव मानने, समझने को तैयार नहीं हैं। इसीलिए वो फंस जाते हैं। रामदेव जैसे लोग दो चरित्र लेकर चलते हैं। एक चरित्र उनका योग गुरु और उनके लिहाज से स्वामी या बाबा रामदेव वाला है। दूसरा चरित्र कारोबारी रामदेव का है। एक गेरुआ कपड़े पहनता है, जिसमें से उनके बदन का काफी हिस्सा दिखता रहता है। दूसरे का हजारों करोड़ का कारोबार है। एक देश की बात करता रहता है और देश के खिलाफ दिखने वाली सरकार की हर हरकत का विरोध करता है। दूसरा अपने कारोबार के खिलाफ दिखने वाली सरकार की हर हरकत का विरोध करता है। रामदेव का एक चरित्र चुनाव में नरेंद्र मोदी का समर्थन इसलिए करता है कि उसे राष्ट्रवादी व्यक्ति को प्रधानमंत्र बनवाना है। उन्हीं रामदेव का दूसरा चरित्र नरेंद्र मोदी का समर्थन और सोनिया, राहुल गांधी का विरोध इसलिए करता है कि उनके पतंजलि योगपीठ के कारोबार पर प्रतिकूल असर न पड़े। दरअसल असल बात यही है कि जो एस गुरुमूर्ति ने कहा उसे में थोड़ा और आगे ले जाता हूं। मैं निजी तौर पर ये मानता हूं कि प्राथमिक कार्य के रूप में राजनीति, समाज कार्य में आने वाले लोग ही इसमें आगे रहें तो बेहतर। अब उसका उदाहरण ये है कि दुनिया भर में बड़े-बड़े कारोबारी ढेर सारे फाउंडेशन टाइप कुछ खोलकर लोगों की भलाई के लिए काम करते रहते हैं। वजह साफ है कि किसी भी कंपनी, कारोबार को बड़ा करने में ढेर सारे गलत काम करने पड़ते हैं और उन्हीं गलत कामों के अपराधबोध को कम करने के लिए कारोबारी, कंपनी के मालिक, चेयरमैन अपने, पत्नियों के नाम से कुछ पुण्य के काम करते रहते हैं। लेकिन, सोचिए कि बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन हो, नीता अंबानी वाली रिलायंस की फाउंडेशन हो, अजीम प्रेमजी वाली हो या दुनिया की कोई ऐसी कारोबारी संस्था की समाज कार्य करने वाली फाउंडेशन हो वो, अधिकतम कितनी रकम फाउंडेशन पर खर्च करेगी। दरअसल इसे समझने के लिए यही समझिए कि देश की ज्यादातर कंपनियां अपने मुनाफे का दो प्रतिशत भी कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलटी  (CSR) पर खर्च नहीं कर पाती हैं। इसके लिए बाकायदा कानून बनाने की जरूरत पड़ी है। अब जरा मुझे बताइए न कि कौन सा खांटी नेता है जिसने धर्मशाला बनवाई हो। जिसने गरीब बच्चों को खिलाने-पहनाने का काम दिखाया, बताया हो। क्योंकि, प्राथमिक तौर पर राजनीति करने वाले तो ये काम यानी समाज की बेहतरी के काम खुद ही करते रहते हैं। लेकिन, जो समाज के किसी न किसी हिस्से का हक मारकर खुद को बड़ा बनाते हैं। वो, कारोबारी, कंपनी के मालिक किसी का हक मारने की बददुआ न लगे, इसके लिए ढेर सारे समाजसेवा के काम करने लगते हैं। बताइए न कितने नौकरी करने वालों को आप जानते हैं जो अपनी सैलरी में से समाजसेवा का काम करते दिखते हैं। मुश्किल से मिलेंगे। हां, अगर नौकरी में अनाप-शनाप कमाई हो रही है तो जरूर कुछ समाजसेवी टाइप के वो होते दिखेंगे। पूरा सिद्धांत ही यही है कि कारोबारी, कारोबारी रहेगा तो कारोबार में किए गलत कामों को सही करने के लिए धर्मशाला खुलवाएगा, कुछ समाजसेवा के काम करेगा लेकिन, अगर कोई साधु, नेता कारोबारी होगा तो अपने कारोबार की गलतियों को सही साबित करने के लिए राजनीति, साधु के चोले का इस्तेमाल करेगा।


वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय की बाबा रामदेव के बारे में राय की कुछ लाइनें दिखीं। बड़े सलीके से वो सारी बात कह देती हैं। राम बहादुर राय कहते हैं कि ''बाबा रामदेव आर्य समाजी हैं, उन्होंने जो वस्त्र धारण किया है, वह् त्याग-तपस्या का वस्त्र है. बाबा भौतिक रुप से सन्यासी हैं और आध्यात्मिक रुप से कारोबारी. कोई व्यक्ति क्या है, इसका पता उसके आत्म तत्व से चलता है. एक कारोबारी में आत्म तत्व कम होता है . यह बात राम लीला मैदान में दिखाई भी पड़ी. रामदेव ने थोड़े समय के लिए ही सही सन्यास का वस्त्र छोड़ा. और उनका पुनर्जन्म हुआ. एक सन्यासी जब संन्यास का वस्त्र धारण करता है, तो उसका दूसरा जन्म होता है. और उसे उतार कर जब वह् महिला का वस्त्र पहनता है. तो उसका प्रेत जन्म होता है. वह् प्रेत अब किस-किस को नुकसान पहुँचाएगा और समाज का कितना भला करेगा, यह बड़ा प्रश्न है. बाबा ने अपना एक अवसर गन्वाया है और अब वे कोई भी प्रयास करेंगे, गन्वाया हुआ अवसर वापस नहीं आएगा.''
इसके आगे मैं अपनी राय जोड़ूं तो दरअसल बाबा रामदेव को वो गंवाया अवसर इसीलिए वापस नहीं मिलेगा क्योंकि, वो अपना आत्मबल कारोबार के मुनाफे में पूरी तरह से गंवा चुके हैं। उनका आत्मबल शायद अब इस बात से ज्यादा बढ़ता होगा कि उनके पतंजलि योगपीठ में कितने नए मरीज इलाज के लिए आ गए हैं। आत्मबल शायद इससे भी बढ़ता होगा कि हर दिन कितने हजार, लाख, करोड़ रुपये उन्हें पहले से ज्यादा मिल रहे हैं। आत्मबल शायद इससे भी बढ़ता होगा कि पतंजलि योगपीठ और कितना बड़ा ब्रांड बन चुका है। जाहिर है जब मामला ब्रांड या मुनाफे का होता है तो फिर आत्मबल या आत्मतत्व से ज्यादा जरूरत रणनीति की होती है। चमक-दमक की होती है। पैकेजिंग की होती है। और इसी ब्रांडिंग पैकेजिंग को बचाने के लिए वो मजबूत होते दिख रहे नरेंद्र मोदी के पीछे अपनी पूरी ताकत झोंक देते हैं। ये दूसरा वाला आत्मबल है। लेकिन, चूंकि असल वाला आत्मबल नहीं है तो वो महिलाओं के कपड़े पहनकर सरकार के सामने से भाग खड़े होते हैं। अरे उतना कमजोर आत्मबल वाला तो विश्वविद्यालय की राजनीति करने वाला छात्रनेता भी नहीं होता है। दरोगा, सिपाही की लाठी थाम लेता है। क्योंकि, उसकी कोई दुकान बंद होने का खतरा नहीं होता। रामदेव की तो बहुत बड़ी दुकान बंद होने का उसका मुनाफा घटने, कटने का डर है। और लोग भूल जाते हैं कि जब भारतीय जनता पार्टी के नरेंद्र मोदी जैसा मजबूत नेता नहीं था। पार्टी कमजोर होती जा रही थी। लोग कहने लगे थे कि अटल, आडवाणी के बाद बीजेपी खत्म ही समझो तो यही रामदेव थे जो अपनी पार्टी, सेना बनाकर भारत की सत्ता विजय का सपना देखने लगे थे। उस दौरान वो खुद को चाणक्य समझकर चंद्रगुप्त तैयार करने लगे थे। स्वामी रामदेव का यही दोहरा चरित्र है।

योग गुरु रामदेव आगे अपने राजनीतिक परिश्रम को न्यायसंगत बनाने के लिए गुरु वशिष्ठ, वाल्मीकि और उनके राम के साथ खड़े होने की घटना सुनाने लगे हैं। अब जरा ये भी बताते रामदेव जी की वशिष्ठ या वाल्मीकि महाराज को राज्य का भला करने के लिए कितने तरह के उत्पाद बनाने पड़े थे। कितनी योगपीठ बनानी पड़ी थी। कितने हेलीकॉप्टर लेने पड़े थे। कितनी जमीन खरीदनी पड़ी थी। कितने योग शिविर लगाने पड़े थे। रामदेव जी आप योग गुरु हैं। आपने देश में योग चेतना जगाने का अद्भुत काम किया है। उसी पर टिके रहिए। क्योंकि, उस योग चेतना जगाने के एवज में आपने अपना कारोबार खड़ा किया है। आपने जमकर मुनाफा कमाया है। आपने चमकती इमारतें खड़ी की हैं। इसलिए आप राजनीति के चक्कर में वैसे ही पड़िए जैसे कारोबारी पड़ते हैं। संत वाला चरित्र तो आप वैसे ही खो चुके हैं। एक कारोबारी की तरह किसी नेता का समर्थन, विरोध कीजिए और उसी लिहाज से मुनाफे, घाटे के लिए तैयार रहिए।

Tuesday, December 10, 2013

राज'नीति' और विरोध'नीति' की मानसिकता


कांग्रेस ही क्यों देश में राज करती है। ऐसा तो है नहीं कि कांग्रेस का विरोध करने वाले आज ही अरविंद केजरीवाल की शक्ल में जन्म लिए हों। आजादी के बाद से ही कांग्रेस के भीतर नेहरू-गांधी परिवार का विरोध करने वाले और बाहर पार्टी की शक्ल में कांग्रेस पार्टी का विरोध करने वाले बहुतेरे रहे हैं। सामाजिक संगठन के तौर पर दुनिया में मिसाल बना राष्ट्रीय स्वयंसेवक कै पैदाइश ही कांग्रेस विरोध से हुई है। फिर सवाल ये है कि आखिर इतने विरोध, विरोधियों के बाद भी कांग्रेस ही राज कैसे करती रहती है। मुझे लगता है कि इसका जवाब ये है कि कांग्रेस सारी कमियों के बाद राजनीति करती है और विरोध करने वाले ढेर सारी अच्छाइयों के बाद भी विरोधनीति। ये विरोधनीति कई बार राजनीति पर हावी होती है और समय-समय पर देश में जेपी आंदोलन, अन्ना आंदोलन या फिर अंत में 'आप' की अप्रत्याशित सफलता दिख जाती है। हर बार लगा है कि कांग्रेस खत्म हो गई। लेकिन, फिर वही सवाल खड़ा हो जाता है कि विरोध नीति से सरकार कैसे चल सकती है। उसके लिए तो राजनीति करनी होगी। आजादी के 65-66 सालों में लटपटाते, गिरते, पड़ते, कांग्रेस से बार-बार पिटते-पिटते विरोधनीति की अगुवा पार्टी भारतीय जनता पार्टी थोड़ा बहुत राजनीति भी सीख गई और अब ये कांग्रेस के लिए मुश्किल खड़ी कर रहा है। लेकिन, जब भी सिर्फ विरोधनीति से दूसरी पार्टियां कांग्रेस की राजनीति उलटने की कोशिश में लगीं तो वो थोड़ी दूर चलकर लड़खड़ाकर गिर गईं।

ऐसा नहीं है कि राजनीति में अच्छे लोग आते नहीं हैं या अच्छे लोग आना नहीं चाहते। होता ये है कि चाहे जो पार्टी हो अच्छे लोग चाहते हैं कि सबकुछ उनके लिहाज से हो। उनको सबकुछ अच्छा मिले जिसमें वो अच्छे से काम कर सकें। कभी अच्छे लोगों को नहीं देखा कि वो खराब करने वालों से ज्यादा मेहनत करके अच्छे को अच्छा रहने दें। यहां तक कि अच्छे लोग जरा सा खराब होती परिस्थितियों में हाथ बांधकर बैठ जाते हैं कि ये सब खराब हो रहा है। ये विरोधनीति है। जबकि, जो खराब लोग होते हैं वो खराब स्थितियां बनाने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं। सबकुछ इतना खराब कर देते हैं कि लगता है कि इतनी खराब स्थितियों में तो कोई अच्छा आदमी काम ही नहीं कर सकता। दरअसल इसमें राजनीति और विरोधनीति के साथ आने वाले यश अपयश का भी बड़ी भूमिका होती है। होता ये है कि विरोधनीति करने वाले ज्यादातर लोगों को अगर देखा जाए तो वो जवाबदेही से लगभग बच जाना चाहते हैं। वो ये चाहते हैं कि चूंकि वो आदर्श नेता हैं इसलिए आदर्श स्थितियां पहले बनें तब वो आदर्श तरीके से राजनीति करेंगे वरना वो विरोधनीति से ही काम चलाएंगे। अब सोचिए- अरविंद केजरीवाल या फिर उनके दबाव में बीजेपी के डॉक्टर हर्षवर्धन क्या कर रहे हैं। दोनों में कोई भी विरोधनीति छोड़कर राजनीति की तरफ बढ़ना नहीं चाह रहा है। क्यों- क्योंकि, दोनों ही अच्छे लोग हैं। दोनों राजनीति में आदर्श स्थितियों में काम करना चाहते हैं। इसके पहले भी हर्षवर्धन के सामने से बीजेपी के केंद्रीय नेताओं ने दिल्ली बीजेपी के नेतृत्व की डोर खींचकर किसी और को थमा दी थी। वो आदर्श राजनीति करना चाहते थे। इसलिए विरोधनीति तो चलाते रहे। लेकिन, राजनीति करने के लिए कुछ नहीं किया। बीजेपी के ही विजय गोयल ने राजनीति करने के लिए काफी कुछ किया। अरविंद जो विरोधनीति के तहत दिल्ली सरकार के खिलाफ धरना प्रदर्शन करते रहे। वो विजय गोयल राजनीति के लिए करते रहे। वो बेशर्मी से अरविंद क उठाए हर मुद्दे को हथियाते रहे। वो तो बुरा हो नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री बनने की इच्छा का। वरना विजय गोयल तो अरविंद की पार्टी से 2-4 ज्यादा क्या बराबरी की सीटों पर भी होते तो अब तक जोड़तोड़ से सरकार बनाने की पूरी कोशिश कर रहे होते। मैं विजय गोयल की राजनीति का पक्षधर नहीं हूं। लेकिन, डॉक्टर हर्षवर्धन जैसे विरोधनीति से राजनीति की ओर बढ़ें ये जरूर चाहता हूं। अब अरविंद केजरीवाल को ही लीजिए बार-बार वो ये कह रहे हैं कि जनता ने कांग्रेस विरोधी जनादेश दिया है लेकिन, हमें विपक्ष में बैठने का जनादेश मिला है। हम विपक्ष में बैठेंगे। उन्हीं की तरह के लेकिन, बीजेपी के नेता डॉक्टर हर्षवर्धन की तरफ से भी यही बयान आ रहा है कि हमने भी दिल्ली की जनता के लिए बड़े सपने मन में संजोए थे लेकिन, हमें वैसा जनादेश नहीं मिला इसलिए हम भी विपक्ष में बैठेंगे। ये विरोधनीति की राजनीति करने वाले दोनों नेताओं के बयान हैं। और जरा खांटी राजनीति करके सबको विरोधी बना देने वाली कांग्रेस पार्टी के नेताओं के बयान सुनिए। वो आप को बिना शर्त समर्थन देने को तैयार हैं। वो किसी भी तरह राजनीति करना चाह रहे हैं। सरकार बनाना चाह रहे हैं। दिक्कत यही है राजनीतिऔर विरोधनीतिकी मानसिकता की। अब सोचिए आठ सीटों वाली कांग्रेस किसी भी तरह राजनीति करना चाह रही है सरकार बनाना चाह रही है और 34 और 28 सीटों वाली बीजेपी और आप विरोधनीति करके ही चेहरा चमका रहे हैं। सरकार बनाने से बचना चाह रहे हैं। फिर बताइए जनता चुनाव किसलिए करती है। सिर्फ विरोध के लिए या चुनाव के लिए।

मात्र यही राज'नीति' और विरोध'नीति' का फर्क है जिसकी वजह से Congress ने देश में सबसे लंबे समय तक राज किया। मेरी नजर में सबसे बड़ी वजह ये कि उसने लोगों के दिमाग में ये भर दिया कि सरकार चलाना तो कांग्रेस को ही आता है। BJP के लिए शानदार विपक्ष और फिर हमारी नीतियों जैसी ही सरकार वाली पार्टी का ठप्पा लगाने का काम भी कांग्रेस के प्रचार तंत्र ने बड़े सलीके से कर दिया। अब AAP इसी में फंसती दिख रही है। अभी तो नैतिकता के ऊंचे आदर्श पर सफल हुए अरविंद केजरीवाल को ये नहीं दिखेगा लेकिन, सच्चाई यही है कि चुनाव खत्म होते ही फिर चुनाव की आहट से कुछ अरविंद समर्थक भारतीयों पर ये जुमला काम करता दिख रहा है कि सरकार चलाना तो कांग्रेस को ही आता है। और सबसे बड़ी बात कांग्रेस ये प्रचार करेगी ही। Social Media पर सलीके से काबिज BJP का प्रचार तंत्र भी 'आप' की मिट्टी पलीद करने में लग गया है। जहां तक सार्वजनिक पैंतरे की बात है तो डॉक्टर हर्षवर्धन की शक्ल में बीजेपी के पास भी अरविंद केजरीवाल से कम साफ सुथरा चेहरा नहीं है। सोचिए कि अरविंद को तो अभी राजनीति को दलदल में पूरी तरह उतरना है बमुश्किल सवाल साल की बनी पार्टी के नेता हैं अरविंद। डॉक्टर हर्षवर्धन पिछले करीब तीन दशक से दिल्ली की राजनीति के जाने-पहचाने चेहरे हैं फिर भी बेदाग हैं। इसलिए AAP, BJP दोनों को समझना होगा कि देश में कांग्रेस विरोधी लंबे समय से बहुत हैं फिर भी कांग्रेस ही क्यों अल्पमत, बहुमत, जोड़ तोड़ की सरकार चलाने में कामयाब रहती है। #AAP हो या BJP दोनों को ये समझना होगा कि जनभावना पर खरे उतरने के लिए सरकार बनानी पड़ती है, चलानी पड़ती है। विरोधनीति से सरकार बनाने के करीब पहुंचा जा सकता है। सरकार बन भी सकती है। लेकिन, सरकार चलाने के लिए राजनीति चाहिए। कांग्रेस विरोधी पार्टियों को जनता के साथ, जनता के लिए राजनीति करनी होगी। वरना विरोधनीति का गुब्बारा फूटेगा और कांग्रेस फिर से राजनीति के जरिए सरकार बनाएगी, राज करेगी। विरोधनीति वाले बस विरोध करने के लिए बचे रह जाएंगे।

Wednesday, January 23, 2013

बीजेपी पार्टी विद द् डिफ्रेंस

वेबसाइट पर सबसे ऊपर विद डिफ्रेंस का नारा

आखिरकार पूरी भद्द पिटवाकर ही सही लेकिन, भारतीय जनता पार्टी उस मुश्किल से उबर गई जो, उसके लिए खुदकुशी की राह पर जाने जैसी हो गई थी। एक ऐसा राष्ट्रीय अध्यक्ष जो, राज्य स्तर पर भी कद्दावर नेताओं में नहीं गिना जाता था वो, बीजेपी का राष्ट्रीय अध्यक्ष था। वजह ये कि देश या कहें कि दुनिया के सबसे बड़े सामाजिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का आशीर्वाद पूरी तरह से उस राष्ट्रीय अध्यक्ष के साथ था। काया और माया (सबसे बड़ा रुपैया) से पार्टी चलाने की गडकरी नीति आखिरकार सफल नहीं हुई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का पूर्ण आशीर्वाद की खबरों से दूसरे-तीसरे दर्जे वाले पार्टी नेता भले ही खुलकर नितिन गडकरी के खिलाफ बोलने से बचते रहे लेकिन, जो पहली कतार में बैठने के हकदार बने हुए हैं वो, खुलकर गडकरी के नेतृत्व पर तगड़े सवाल खड़े करते रहे।
बार-बार ये कहा जाता रहा और अब भी जिस तरह से गडकरी ने जाते-जाते मुंबई एयरपोर्ट पर क्लीनचिट के बाद वापस लौटकर आने वाला बयान दिया उससे लग यही रहा है कि संघ का पूर्ण आशीर्वाद अभी भी उन्हीं के साथ है। लेकिन, इस बार के अध्यक्ष बनने के बीजेपी के पार्टी विद द् डिफ्रेंस वाले नारे को ताकत दी है। अटल-आडवाणी-मुरली मनोहर के दौर तक भारतीय जनता पार्टी के पार्टी विद द् डिफ्रेंस पर सवाल खड़े करने वाले भी कम ही थे। लेकिन, धीरे-धीरे कमजोर अध्यक्षों के दौर और फिर संघ-बीजेपी की रोज की खींचातानी की खबरों ने पार्टी विद द् डिफ्रेंस के नारे को कमजोर कर दिया था। बड़े-बड़े भ्रष्टाचार के बावजूद कांग्रेस, बीजेपी को बेहयाई से पलटकर ये जवाब देने लगी कि बीजेपी की सरकारें भी भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। एक लाख रुपए की बंगारू की बचकानी घूस वाली तस्वीर के बाद तो, ये आरोप धारदार हो गए थे। जिसका इस्तेमाल बीजेपी विरोधी पार्टियों के साथ कोई भी राजनीतिक विश्लेषक बीजेपी पर हमले के लिए करने लगा था।
फिर जब राजनाथ सिंह के ही पिछले कार्यकाल के बाद लालकृष्ण आडवाणी और उनकी D फोर मंडली के कॉकस से निकालने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक राज्य स्तर के नेता नितिन गडकरी को राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए लेकर आया तो, पार्टी विद द् डिफ्रेंस का एक और भ्रम टूटा। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पर रिमोट से सरकार चलाने का जो, आरोप लगा था उसका भी तोड़ मिल गया। मजबूती से ये जवाब आने लगा था कि अगर सोनिया गांधी बिना सरकार में हुए यूपीए की सुपर प्राइम मिनिस्टर हैं तो, संघ भी तो, बीजेपी का सुपर प्रेसिडेंट है।
वंशवाद का आरोप भी कांग्रेस पर उतना धारदार नहीं बैठ रहा था क्योंकि, राज्यों में बीजेपी नेताओं के पुत्र-पुत्रियां भी उसी आधार पर आगे बढ़ने लगे थे। और, पार्टी विद द् डिफ्रेंस की छवि बीजेपी को संभालना इससे भी मुश्किल हो रहा था कि वहां गांधी नाम के बिना सर्वोच्च तक नहीं पहुंचा जा सकता तो, यहां नागपुर का आशीर्वाद इसके लिए परम आवश्यक शर्त है। ये सच है कि नितिन गडकरी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और सरसंघचालक मोहनराव भागवत के आशीर्वाद ने ही 11 अशोक रोड पर कुर्सी संभालने का मौका दिया। लेकिन, सच ये भी है कि लालकृष्ण आडवाणी की बढ़ती उम्र से आने वाली विसंगतियों के बावजूद उनके नजदीकी बीजेपी नेताओं से ही बीजेपी की पहचान बनना भी बीजेपी के हित में नहीं था। इसीलिए मोहन भागवत को किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश हुई जो, संघ के व्यक्ति निर्माण के एजेंडे को बीजेपी में सलीके से लागू कर सके और पुराने निर्मित व्यक्ति उसको अपने पैमाने पर कसकर तोड़ न सकें।
काफी हद तक ये काम नितिन गडकरी ने किया भी। लेकिन, गडकरी की मुश्किल ये थी कि गडकरी जमीनी नेता कभी रहे नहीं। महाराष्ट्र में भी वो, विधान परिषद के जरिए ही सत्ता सुख ले पाते थे। और, सबसे बड़ी बात ये कि देश में क्या नब्ज चल रही है इसको भांपने का कोई यंत्र वो तैयार ही नहीं कर सके। तैयार कर सके तो, सिर्फ अपनी कारोबारी बुद्धि से सर्वे के जरिए देश को जानने का फॉर्मूला। देश सर्वे/पोल से जाना जा सकता तो, देश के नेता कोई और ही होते तो, गडकरी कैसे सफल होते। नहीं सफल हुए। दुखद ये कि शुद्ध संघ आशीर्वाद से राष्ट्रीय नेतृत्व का मौका पाने वाले गडकरी ने स्वयंसेवक के पैमाने पर बीजेपी की राजनीति को कसने के बजाय अवसरवादी पैमाने पर कसा। वो, अवसरवादी पैमाना ये कि कैसे भी करके यूपी में ढेर सारी सीटें लाओ। अवसरवादी पैमाना था तो, पार्टी विद द् डिफ्रेंस बीजेपी कैसे उस पर सफल हो पाती। असफल हो गई।
पार्टी विद द् डिफ्रेंस बीजेपी एक और वजह से थी। वो, वजह ये थी कि बिना संसाधन के वो, पार्टी चलाते थे। संघ, बीजेपी व्यक्ति, चरित्र निर्माण करते थे। संसाधन अपने आप जुट जाते थे। नितिन गडकरी नई परिभाषा लेकर आए। वो, उसी तरह पार्टी चलाना चाहते थे। जैसे, कांग्रेस चलती है। यानी सत्ता मिली रहे तो, संसाधन मिले रहते हैं और पार्टी भी मजबूत होती रहती है। कांग्रेस का फॉर्मूला है ये काम भी करता है कि पार्टी जमीन पर भले कमजोर रहे। सत्ता, संसाधन से मजबूत हो ही जाती है। गलती से पार्टी विद द् डिफ्रेंस बीजेपी भी कांग्रेसी फॉर्मूले को आजमाने लगी। यहां भी गडकरी गड़बड़ा गए।
अब राजनाथ सिंह का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनना चाहे जिन परिस्थितियों में हुआ हो लेकिन, इससे पार्टी विद द् डिफ्रेंस वाला बीजेपी का टैग फिर से उसे वापस मिलता दिख रहा है। या कहें कि पार्टी इसे फिर से पूरी ताकत से इस्तेमाल कर सकती है। गडकरी से नाराजगी दिखाने वाले शत्रुघ्न सिन्हा का बयान आया कि अगर गडकरी पहले ही चुनाव लड़ने से मना कर देते तो, पार्टी की छीछालेदर होने से बच जाती। लेकिन, मुझे लगता है कि ये अच्छा हुआ। बेहद नाराज यशवंत सिन्हा का बयान इस मामले में काफी अहम है। जब उनसे पूछा गया कि क्या वो, गडकरी से अभी भी नाराज हैं तो, उन्होंने कहाकि जो, हुआ उससे वो, बेहद खुश हैं। और, इस अध्यक्षी के चुनाव ने बीजेपी की ताकत और कांग्रेस की कमजोरी जाहिर कर दी है। यशवंत सिन्हा ने आगे बढ़कर कहाकि कांग्रेस चमचों की पार्टी है। और, वो खुली चुनौती दे रहे हैं कि अगर कोई कांग्रेस में सोनिया गांधी या राहुल गांधी के किसी फैसले के खिलाफ बोल पाए। यही बीजेपी की असल ताकत है। संघ और बीजेपी एक दूसरे के पूरक हैं। कई गैर स्वयंसेवक भी अब बीजेपी के बड़े नेता हैं और बनेंगे क्योंकि, वो संघ-बीजेपी जैसा ही सोचते करते हैं। इसका संतुलन भी काफी बेहतर हो रहा है ये भी इस अध्यक्षी के चुनाव में दिखा। अब इसी पार्टी विद द् डिफ्रेंस के वापस मिले टैग को बीजेपी अपने पक्ष में इस्तेमाल कर सके तो, 2014 उसके अनुकूल हो सकता है। और, इस टैग को बरकरार रखने का सबसे बड़ा जिम्मा सहमति के अध्यक्ष बने राजनाथ सिंह पर है।
(ये लेख दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में छपा है)

Monday, January 21, 2013

बीजेपी आजतक - ताजा स्टेटस अपडेट


ऐसे ही आज मैंने कुछ स्टेटस अपडेट्स डाले। एक बार उसे एक साथ पढ़ा तो, मुझे लगा कि ये तो, जाने-अनजाने भारतीय जनता पार्टी के ताजा हाल का विश्लेषण जैसा कुछ हो गया। ये पांचों स्टेटस एक साथ चिपका रहा हूं। क्योंकि, आज कई संयोग एक साथ बने हैं संघ के सबसे बड़े सपोर्ट सिस्टम वाले राज्य उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह लौटे हैं। बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर पुराने नितिन गडकरी की ताजपोशी की रिपोर्ट आ रही है। और, फिर से संघ-बीजेपी पर हिंदू आतंकवाद का आरोप लगा है। व्यक्ति निर्माण ही मूल सवाल दिख रहा है।
 
1- गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे आश्वस्त हैं कि तीसरी बार यूपीए की सरकार बन जाएगी। और, इस चुनाव में बीजेपी-संघ के शिविरों से निकले आतंकवादी वोट नहीं डालेंगे और न ही उनके सगे-संबंधी-शुभचिंतक। और, वोट डालेंगे तो, भी इतने कम हो गए हैं कि सरकार यूपीए की ही बनेगी। तो, शिंदे साहब इन आतंकवादियों के खिलाफ मुदकमे-जेल की कार्रवाई यूपीए 2 में होगी या यूपीए 3 का इंतजार करें। #rss #bjp #terrorism

 2- राम जेठमलानी के बेटे Mahesh Jethmalani नितिन गडकरी के खिलाफ BJP अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ना चाहते हैं और वो, इतने भर से ही #tweeter पर नंबर 1 पर हैं। इस नब्ज को संघ, बीजेपी समझे तो, बेहतर। #rss #FB #BJP

3- कल्याण सिंह BJP में वापस आ गए हैं। कार्यकर्ता उत्साहित हैं। कल्याण भी पुराने जोश में भाषण देने की कोशिश कर रहे हैं। कह रहे हैं हमने 60 लोकसभा जिता के दी हैं। अब तो, 50 की ही बात कर रहे हैं। पूरे प्रदेश के दौरे की बात कह रहे हैं। चुनाव नहीं लड़ेंगे ये भी कह रहे हैं। जय श्रीराम का नारा लगा रहे हैं। बजरंगबली को भी याद कर रहे हैं। लेकिन, खांसने लगते हैं। क्या पुराने दिन लौटेंगे
4- एक जमाने में कल्याण सिंह, उमा भारती की अनुशासनहीनता को संघ के खिलाफ समझाकर उन्हें बाहर कर दिया गया। और, ये करने-कराने वाले ही बीजेपी के बड़े नेता हो गए। अब नितिन गडकरी सिर्फ पुराने बीजेपी नेताओं कल्याण सिंह-उमा भारती की वापसी कराके राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रिय हैं।

और अंत में –

5- बीजेपी का काम अच्छा। बड़े-बड़े नाम अच्छे। फिर भी BJP को मजबूत बनाने का असली काम उसके काम और बड़े-बड़े नाम से ज्यादा शिंदे-दिग्विजय जैसों के बयान क्यों करने लगे हैं। #BJP #RSS इस पर सोचेगा क्या?

नहीं सोच रहे हैं तो, सोचिए कि जब सरकार के खिलाफ इतना गुस्सा लोगों में हो फिर भी आपकी बात पर भारत का लोकतंत्र भरोसा जताने को तैयार क्यों नहीं है?

Tuesday, January 10, 2012

ये कौन सी बीजेपी बना रहे हैं गडकरी?

बीजेपी नेता विनय कटियार के साथ मुस्कुराते बाबूसिंह कुशवाहा
देसी कहावत है कि ऐसा काम कभी मत करो कि धन भी जाए और धर्म भी जाए। लेकिन, उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी ने जिस तरह के फैसले लिए हैं उसे देखकर तो, यही साबित होता दिख रहा है। उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों की आहट मिलते ही नितिन गडकरी ने उमा भारती को पार्टी में शामिल कराकर एक अच्छा संकेत दिया था कि अब कम से कम बीजेपी में चेहरा कौन है- इस सवाल के संकट  से तो बचा जा सकेगा। और, उमा भारती की बीजेपी में वापसी से तेजी में एक बदलाव ये देखने को मिला था कि बीजेपी का कैडर जो, 2007 की करारी हार के बाद और फिर लोकसभा चुनावों में पिछड़ने के बाद चुपचाप घर बैठ गया था, काफी हद तक उठ खड़ा हुआ। लगा कि एक राज्य के नेता से देश के नेता बन गए गडकरी ने खुद को उस लिहाज से फैसले लेने के लिए तैयार कर लिया है और यूपी की जंग जीतकर या सम्मानजनक संख्या लाकर वो, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहनराव भागवत की पसंद को सही साबित कर देंगे। नितिन गडकरी ने उत्तर प्रदेश में जहां भी बैठक की, सभा की, कार्यकर्ताओं से साफ कहा कि टिकट में किसी की नहीं चलेगी। नेताओं की परिक्रमा मत करिए जो, 2007 के बाद 5 साल विधानसभा में रहा होगा। सर्वे में उसकी स्थिति जीतने की दिखेगी तो, टिकट उसके घर भेज दिया जाएगा। लगा कि गडकरी बीजेपी में रामराज्य लाने जा रहे हैं। लेकिन, नितिन गडकरी पर शायद कारोबारी अंदाज में नफा-नुकसान का गणित समझने की आदत ऐसी हावी हुई कि वो, राजनीतिक नफा-नुकसान का गणित समझने में अब नाकाम से दिख रहे हैं। बीजेपी अभी भी प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं और भ्रमित नेताओं वाली पार्टी ही बनी हुई है।
उत्तर प्रदेश में 2007 में 51 सीटें थीं। बीजेपी तीसरे नंबर की पार्टी थी। लेकिन, उस चुनाव की अच्छी बात ये थी कि करीब 70-80 सीटों पर एकदम नए प्रत्याशी पार्टी ने उतारे थे। ये वो, प्रत्याशी थे जो, परिषद के रास्ते भारतीय जनता युवा मोर्चा में काम कर रहे थे। इन प्रत्याशियों में कुछ ने अच्छे वोट पाए, कुछ कम अच्छे वोट हासिल कर पाए। लेकिन, इन प्रत्याशियों ने इस भरोसे कि अगली विधानसभा में उन्हें ही टिकट मिलेगा पांच सालों तक विधानसभा नहीं छोड़ी। और, खराब विधानसभा में भी पार्टी को इस स्थिति में ला दिया कि बूथ स्तर तक बीजेपी का कार्यकर्ता 90 के दशक की तरह नहीं तो, उसके आसपास दिखने लगा। ये वो नेता थे जो, परिक्रमा की राजनीति नहीं कर रहे थे। पूरी प्रदेश बीजेपी के कार्यकर्ता, नेता बिहार की तर्ज पर राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी के सर्वे फॉर्मूले के हिट होने की उम्मीद में खुश थे। लेकिन, जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते गए नितिन गडकरी के कॉर्पोरेट स्टाइल के फैसले पार्टी पर भारी पड़ते दिखने लगे। कम उम्र गडकरी से उम्मीद लगाए बैठे बीजेपी के युवा नेताओं को सबसे ज्यादा निराशा हुई है। पहले से बीजेपी की बुनियाद मजबूत करने में लगे प्रदेश के संगठन मंत्री को चुनाव के ठीक पहले बिहार भेज दिया गया। उसकी भरपाई संजय जोशी को उत्तर प्रदेश में राजनीतिक जीवनदान देकर करने की कोशिश की गई। लेकिन, गलतियों की शुरुआत हो चुकी थी। उमा भारती और संजय जोशी की अच्छी नेता और संगठनकर्ता की जोड़ी का इस्तेमाल ठीक से होने के बजाए उल्टा होने लगा। यूपी में बीजेपी- ज्यादा जोगी मठ उजाड़ वाली- जिस बीमारी से ग्रसित थी वो, और संक्रामक हो गई।
इसी उठापटक में सारे दलों के ज्यादातर प्रत्याशियों की लगभग सूची आने के बाद भी बीजेपी की पहली सूची ही नहीं दिखी। बड़ी मुश्किल से पहली सूची जारी हुई। तब तक उमा भारती की नाराजगी इतनी बढ़ चुकी थी कि उन्होंने चुनाव लड़ने से ही मना कर दिया। उस पर उमा भारती के भारी विरोध के बावजूद बाबू सिंह कुशवाहा जैसे घोटालों के आरोपी विशुद्ध बसपाई के साथ बादशाह सिंह को पार्टी में लाने के फैसले ने आग में घी का काम किया। सीबीआई के छापे के बाद एक ही दिन में पहले मुख्तार अब्बास नकवी और फिर विनय कटियार को इस मामले पर सफाई देते नहीं बन पड़ रहा था। अब ये कहकर बचने की कोशिश थी कि कुशवाहा मायावती के विभीषण हैं। लेकिन, सवाल यही था कि अब उत्तर प्रदेश की जनता इस विभीषण को बीजेपी के किस राम के लिए यूपी की लंका सौंपने में मदद करे। नुकसान समझ में सबको आ गया था। उमा भारती के अलावा भी बीजेपी के सारे बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली इस फैसले से बेहद नाराज थे। लेकिन, पिछड़े-अतिपिछड़े मतों के प्रतिक्रिया में विरोधी खेमे में जाने के डर से बाबू सिंह कुशवाहा अभी भी बने हुए हैं।
खैर, पार्टी को पीछे ले जाने वाले फैसले बढ़ ही रहे थे। गोरखपुर मंडल में तो, ठीक है कि बीजेपी के सांसद योगी आदित्यनाथ के कहने पर ही सारी सीटें बांटी गईं। ठीक है योगी का प्रभाव है वो, सीटें जिता सकते हैं। लेकिन, आजमगढ़ आते-आते तो, गजब हो गया- बीजेपी को लगा कि रमाकांत यादव के अलावा बीजेपी है ही नहीं। परिवार में ही बीजेपी रह गई। फिर भी ठीक है कि रमाकांत यादव बीजेपी की ही सांसद हैं। लेकिन, जौनपुर में क्या हुआ। बीजेपी की विधानसभा सीटें तय करने का जिम्मा पार्टी ने बीएसपी के सांसद धनंजय सिंह को सौंप दिया। माना जा रहा है कि धनंजय से बातचीत करने के लिए बीजेपी के नेता और नितिन गडकरी की हिट सर्वे टीम धनंजय से मिलती रही। ऐसे में कल्याण सिंह का ये आरोप दमदार लगने लगता है कि बीजेपी-बीएसपी में कुछ सांठगांठ है। आर्थिक सौदे के कल्याण सिंह के आरोप को अगर राजनीतिक ही मानें तो, भी। क्योंकि, बीएसपी से ठीक चुनाव के पहले निकाले गए बाबू सिंह कुशवाहा, बादशाह सिंह, दद्दन मिश्रा, अवधेश वर्मा और पिछले दरवाजे से धनंजय सिंह बीजेपी में हैं। कुछ टिकट भी पा चुके हैं। कुछ टिकट दिलवाकर ताकत दिखा रहे हैं।
ये राजनीतिक पार्टी है लेकिन, राजनीतिक समझ का अभाव साफ दिख रहा है। उत्तर प्रदेश और दूसरे चार राज्यों का विधानसभा चुनाव इस मायने में ऐतिहासिक है कि ये बहुत बड़े आंदोलन के बाद का चुनाव है। भले ही इस आंदोलन में कोई राजनीति न होने का दावा किया गया हो लेकिन, सच्चाई यही है कि भ्रष्टाचार और अपराध के खिलाफ हुआ अन्ना हजारे का आंदोलन देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक भावना तैयार करने में कामयाब रहा है। और, लालकृष्ण आडवाणी ने राजनीति के संन्यास आश्रम वाली उम्र में भी इस बात को समझकर यात्रा निकाली जो, काफी हद तक अन्ना आंदोलन के अच्छे असर को बीजेपी के लिए लाने में कामयाब दिख रही थी। लेकिन, चुनाव में जिस तरह बीजेपी ने टिकट बंटवारा किया। भ्रष्टाचारियों-अपराधियों को टिकट बांटे। कहीं न कहीं उसका बुरा असर होता साफ दिख रहा है। गडकरी अपने गृह राज्य, देश और देश के सबसे बड़े राज्य में चुनौतियों में उलझ गए दिख रहे हैं।

फिर से 2007 में लौटें तो, उत्तर प्रदेश की जनता समाजवादी पार्टी के जंगलराज से त्रस्त थी। उस समय बीजेपी यही दावेदारी नहीं पेश कर पाई थी कि वो, समाजवादी पार्टी का विकल्प बन सकती है। परिणाम सबके सामने है। मायावती के साथ बीजेपी का वोटर चुपचाप ऐसे जुड़ गया कि मायावती देश में सोशल इंजीनियरिंग की उस्ताद बन गईं। फिर चुनाव है और चुनाव से ठीक पहले अगर संदेश ये जा रहा है कि बीजेपी-बीएसपी में सांठगांठ है या फिर बीएसपी से निकाल बाहर किए भ्रष्टाचारी-अपराधी बीजेपी में जगह पा रहे हैं तो, समझा जा सकता है कि परिणाम क्या आने वाला है। नितिन गडकरी का लक्ष्य 115-120 सीटों का है कहीं ऐसा न हो कि ये लक्ष्य सचिन की सौंवी सेंचुरी जैसा साबित हो जाए। और, सचिन को तो, हर मैच के कुछ दिन-महीने बाद मौका मिलता रहता है। यहां तो, मौका पांच साल बाद ही मिलेगा।

Tuesday, May 25, 2010

मीडिया का अछूत गांधी

 इस गांधी की चर्चा मीडिया में अकसर ना के बराबर होती है और अगर होती भी है तो, सिर्फ और सिर्फ गलत वजहों से। मीडिया और इस गांधी की रिश्ता कुछ अजीब सा है। न तो मीडिया इस गांधी को पसंद करता है न ये गांधी मीडिया को पसंद करता है। इस गांधी के प्रति मीडिया दुराग्रह रखता है। किस कदर इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि देश के पहले परिवार से निकले इस गांधी के भाई राहुल गांधी के श्रीमुख से कुछ भी अच्छा बुरा निकले तो, मीडिया उसे लपक लेता है और अच्छा-बुरा कुछ भी करके चलाता रहता है। जब ये दूसरा गांधी यानी वरुण गांधी कहता है कि उत्तर प्रदेश में 2012 में बीजेपी सत्ता में आएगी और हम सत्ता में आए तो, मायावती की मूर्तियां हटवाकर राम की मूर्तियां लगवाएंगे तो, किसी भी न्यूज चैनल पर ये टिकर यानी नीचे चलने वाली खबर की पट्टी से ज्यादा की जगह नहीं पाती है लेकिन, जब मायावती के खिलाफ देश के पहले परिवार का स्वाभाविक वारिस यानी राहुल गांधी मायावती के खिलाफ कुछ भी बोलता है या कुछ नहीं भी बोलता है तो, भी सभी न्यूज चैनलों पर बड़ी खबर बन जाती है यहां तक कि हेडलाइंस भी होती है।

वरुण गांधी को ये बात समझनी होगी कि आखिर उसके अच्छे-बुरे किए को मीडिया तवज्जो क्यों नहीं देता। वरुण को ये समझना होगा कि जाने-अनजाने ये तथ्य स्थापित हो चुका है कि उनका चचेरा भाई राहुल गांधी अपने पिता राजीव गांधी की उस विरासत को आगे बढ़ा रहा है जो, गांधी-नेहरु की असली विरासत मानी जाती है। वो, राजीव गांधी जो नौजवानों के सपने का भारत बनाना चाहता था लेकिन, जिसकी यात्रा अकाल मौत की वजह से अधूरी रह गई। लेकिन, जब वरुण गांधी की बात होती है तो, सबको लोकसभा चुनाव के दौरान वरुण गांधी का मुस्लिम विरोधी भाषण ही याद आता है। और, तुरंत याद आ जाता है कि ये संजय गांधी का बेटा है जो, जबरदस्ती नसबंदी के लिए कुख्यात था। यहां तक कि आपातकाल का भी पूरा ठीकरा संजय गांधी के ही सिर थोप दिया जाता है। मीडिया ये तो कहता है कि आपातकाल ने इंदिरा की सरकार गिरा दी, कांग्रेस को कमजोर कर दिया। लेकिन, मीडिया आपातकाल के पीछे के हर बुरे कर्म का जिम्मेदार संजय गांधी को ही मानता है। यहां तक कि कांग्रेस में रहते हुए भी संजय गांधी सांप्रदायिक और अछूत गांधी बन गया। राजीव की कंप्यूटर क्रांति की चर्चा तो खूब होती है लेकिन, देश की सड़कों पर हुआ सबसे बड़ी क्रांति मारुति 800 कार के जनक संजय गांधी को उस तरह से सम्मान कभी नहीं मिल पाया।

और, फिर जब वरुण गांधी बीजेपी के जरिए लोकतंत्र में सत्ता की ओर बढ़ने की कोशिश करने लगा फिर तो, वरुण के ऊपर पूरी तरह से अछूत गांधी का ठप्पा लग गया। इसलिए वरुण को समझना होगा कि इस देश का मूल स्वभाव किसी भी बात की अति के खिलाफ है। फौरी उन्माद में एक बड़ा-छोटा झुंड हो सकता है कि ऐसे अतिवादी बयानों से पीछे-पीछे चलता दिखाई दे लेकिन, ये रास्ता ज्यादा दूर तक नहीं जाता। इसलिए वरुण गांधी को दो काम तो तुरंत करने होंगे पहला तो ये कि मीडिया से बेवजह की दूरी बनाकर रखने से अपनी अच्छी बातें भी ज्यादा लोगों तक नहीं पहुंचेंगी ये समझना होगा। हां, थोड़ी सी भी बुराई कई गुना ज्यादा रफ्तार से लोगों के दिमाग में स्थापित कराने में मीडिया मददगार होगा। दूसरी बात ये कि अतिवादी एजेंडे को पीछे छोड़ना होगा। जहां एक तरफ राहुल गांधी भले कुछ करे न करे- गरीब-विकास की बात कर रहा हो वहां, वरुण गांधी को राम की मूर्तियां कितना स्थापित करा पाएंगी ये समझना होगा। राम के नाम पर बीजेपी को जितना आकाश छूना था वो छू चुकी अब काम के नाम पर ही बात बन पाएगी।

ऐसा नहीं है कि वरुण गांधी को पीलीभीत से सिर्फ भड़काऊ भाषण की वजह से ही जीत मिली है। वरुण गांधी अपने क्षेत्र के हर गांव से वाकिफ हैं। राहुल के अमेठी दौरे से ज्यादा वरुण पीलीभीत में रहते हैं। लेकिन, वरुण के कामों की चर्चा मीडिया में बमुश्किल ही होती है। वरुण गांधी ने अपने लोकसभा क्षेत्र में 2000 गरीब बेटियों की शादी कराई ये बात कभी मीडिया में आई ही नहीं। जबकि, छोटे-मोटे नेताओं के भी ऐसे आयोजनों को मीडिया में थोड़ी बहुत जगह मिल ही जाती है। जाहिर है वरुण गांधी की मीडिया से दूरी वरुण गांधी के लिए घातक बन रही है।

वरुण गांधी से हुई एक मुलाकात में एक बात तो मुझे साफ समझ में आई कि कुछ अतिवादी बयानों और मीडिया से दूरी को छोड़कर ये गांधी अपने एजेंडे पर बखूबी लगा हुआ है। वरुण गांधी को ये अच्छे से पता है कि फिलहाल राष्ट्रीय राजनीति में नहीं उसकी परीक्षा उत्तर प्रदेश की राजनीति में होनी है। वरुण का लक्ष्य 2012 में होने वाला उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव है जिसमें वरुण बीजेपी को सत्ता में लाना चाहता है और खुद मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठना चाहता है। वरुण के इस लक्ष्य को पाने में सबसे अच्छी बात ये है कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी का कार्यकर्ता अभी के नेतृत्व से बुरी तरह से निराश है और उसे वरुण गांधी में एक मजबूत नेता नजर आ रहा है। बीजेपी में अपनी राजनीति तलाशने वाले नौजवान नेताओं को ये लगने लगा है कि वरुण गांधी ही है जो, फिर से बीजेपी के परंपरागत वोटरों में उत्साह पैदा कर सकता है। शायद यही वजह है कि 14 अशोक रोड पर उत्तर प्रदेश के हर जिले से 2-4 नौजवान नेता वरुण गांधी से मुलाकात करने पहुंचने लगे हैं।

वरुण गांधी के पक्ष में एक अच्छी बात ये भी है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वरुण को यूपी बीजेपी का नेता बनाने का मन बना चुका है। वरुण गांधी को संघ प्रमुख मोहनराव भागवत का अंध आशीर्वाद भले न मिले लेकिन, अगर वरुण भविष्य के नेता के तौर पर और राहुल गांधी की काट के तौर पर खुद को मजबूत करते रहे तो, संघ मशीनरी पूरी तरह से वरुण के पीछे खड़े होने को तैयार है। वरुण गांधी को ये बात समझ में आ चुकी है यही वजह है कि भारतीय जनता युवा मोर्चा के अध्यक्ष का पद न लेकर बीजेपी में राष्ट्रीय सचिव बनने के बाद भी वरुण सिर्फ और सिर्फ उत्तर प्रदेश के बारे में सोच रहे हैं।

अभी कुछ दिन पहले जब मीडिया में वरुण गांधी की तस्वीरें दिखीं थीं तो, सभी चैनलों पर यही देखने को मिला कि वरुण चप्पल पहनकर इलाहाबाद में क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद का माल्यार्पण करने चले गए थे। किसी भी अखबार या टीवी चैनल पर ये खबर देखने-पढ़ने को नहीं मिली कि वरुण जौनपुर में एक बड़ी रैली करके लौट रहे थे। राष्ट्रीय सचिव बनने के बाद ये वरुण की पांचवीं रैली थी और वरुण इस साल 20 और ऐसी रैलियां करके पूरे प्रदेश तक पहुंचने की कोशिश में हैं। अरसे बाद बीजेपी के जिले के नेताओं को ऐसा नेता मिला है जिसकी रैली के लिए बसें भरने में उन्हें ज्यादा प्रयास नहीं करना पड़ रहा है।

ये गांधी भारतीय राजनीति की लंबी रेस का घोड़ा दिख रहा है। लेकिन, वरुण को उग्र बयानों से हिंदुत्ववादी नेता बनने के बजाए बीजेपी का वो नेता बनने की कोशिश करनी होगी जो, जगह कल्याण सिंह के बाद उत्तर प्रदेश में कोई बीजेपी नेता भर नहीं पाया है। और, ये जगह अब राम की मूर्तियां लगाने वाले बयानों से नहीं उत्तर प्रदेश के नौजवान को ये उम्मीद दिखाने से मिल पाएगी कि राज्य में ही रहकर उसकी बेहतरी के लिए क्या हो सकता है। उत्तर प्रदेश के 18 करोड़ लोगों को एक नेता नहीं मिल रहा है। अगर वरुण ये करने में कामयाब हो गए तो, भारतीय राजनीति में एक अलग अध्याय के नायक बनने से उन्हें कोई नहीं रोक पाएगा। वरुण की उम्र अभी 30 साल के आसपास है और वरुण के पास लंबी राजनीति करने का वक्त भी है, गांधी नाम भी और बीजेपी जैसी राष्ट्रीय पार्टी का बैनर भी। बस उन्हें खुद को अछूत गांधी बनने से रोकना होगा।
(this article is published on peoples samachar's edit page)

शिक्षक दिवस पर दो शिक्षकों की यादें और मेरे पिताजी

Harsh Vardhan Tripathi हर्ष वर्धन त्रिपाठी  9 वीं से 12 वीं तक प्रयागराज में केपी कॉलेज में मेरी पढ़ाई हुई। काली प्रसाद इंटरमी...