Saturday 11 April 2020

संस्कार धानी कोंडागाँव
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हरिहर वैष्णव
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कोंडानार से अपना सफर शुरू करने वाला और आगे चल कर कोंडागाँव नाम से अभिहित बस्तर सम्भाग की संस्कार धानी के नाम से जाना जाने वाला यह कस्बा अब नगराता जा रहा है। यह कहा जाये कि शहरीकरण के इस दानवी दौर में अपने संस्कार खोती जा रही 26898 (वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार) की आबादी वाली इस संस्कार धानी की आत्मा चीत्कार कर रही है तो कदाचित् अनुचित नहीं होगा। तथाकथित आधुनिकता और विकास की राह पर चल पड़ी इस संवेदनशील नगरी से संवेदनशीलता गधे के सिर से सींग की तरह गायब होती जा रही है। दादा-भैया जैसे आत्मीय सम्बोधन के साथ लोगों से बातें करने वाले कोंडागाँव के जन अब नयी पीढ़ी को इस आत्मीय सम्बोधन को भूलते देख गहरे विषाद से भर उठे हैं। इसकी जगह अब "सर", "हैलो" और "हाय" ने ले ली है। कभी अकूत भूमि के स्वामी रहे वनवासी अपनी भूमि कौड़ियों के मोल बेच कर हाशिये पर चले गये हैं। दिनोंदिन बढ़ती आबादी और यातायात के दबाव के चलते बन्धा तालाब के पास स्थित शिव मन्दिर से ले कर श्रीराम मन्दिर तालाब (बड़े तरई) तक मुख्य मार्ग के दोनों ओर खड़े रसीले और मीठे आमों के कई पेड़ जो कभी इस कस्बे की शोभा रहे, आज सौंदर्यीकरण की भेंट चढ़ चुके हैं। इन पेड़ों के कट जाने की पीड़ा मुझे भीतर तक सालती है और आजीवन सालती रहेगी। कारण, अपनी किशोरावस्था में इन पेड़ों से टपकते मीठे-रसीले आम बीनने के लिये सुबह 4.00 बजे जाग जाना मुझे अभी भी याद है। सड़क पर आने की देर नहीं और प्रत्येक पेड़ के नीचे आम के ढेर दिखलायी दे जाते। इन आमों पर किसी का कोई अधिकार नहीं होता था। जिसने बीन लिये आम उसके। इस तरह का एक आपसी समझौता हुआ करता था। कोई वाद-विवाद नहीं। किन्तु आज न तो आम के वे पेड़ हैं, न उनकी शीतल और गहरी छाँव और न उस तरह की आपसी समझदारी और सौहाद्र्र का कोई संस्कार और वातावरण! इसमें दोष किसी का नहीं है। यान्त्रिकता और अतिभौतिकता की ओर निरंकुश और तेजी से बढ़ते हमारे अनियन्त्रित कदमों के चलते यह तो होना ही था। संवेदनशीलता की भरी गगरी को रीतना ही था। 
यह नगरी न केवल संस्कारधानी के रूप में ख्यात रही है अपितु इस नगर की जलवायु भी आरम्भ से ही बस्तर सम्भाग के अन्य नगरों की तुलना में बिल्कुल भिन्न और स्वास्थ्यवद्र्धक रही है। शुक्र है कि आज भी जंगलों के लगातार कटते जाने के बावजूद इस नगर के तापमान में अन्य जगहों की अपेक्षा नरमाहट का अहसास होता है। 
इस गाँव के नामकरण और इतिहास को ले कर गोंडी और हल्बी भाषियों के बीच मतान्तर है। 
गोंडी भाषी श्री रमेश चन्द्र दुग्गा (निवासी ग्राम : पालकी, नारायणपुर जिला, वर्तमान में सहायक वन संरक्षक, रायपुर) के अनुसार इस गाँव का नाम गोंडी जनभाषा के शब्द "कोंडा" और "नार" से मिल कर बना था। "कोंडा" अर्थात् आँख और "नार" यानी गाँव। उनका कहना है कि अन्य स्थानों की तरह "कोंडानार" का नाम भी समय के साथ "कोंडागाँव" हो गया। बस्तर के कई गाँवों के नाम मूल गोंडी और हल्बी से अब परिवर्तित हो गये हैं। उदाहरण के लिये नगुर से नारायणपुर, जगतूगुड़ा से जगदलपुर, पाड़ेक् से पालकी, कड़ावेडा से केरलापाल और सँदोड़ार से संधारा आदि। किन्तु हल्बी भाषी स्व. चमरु सिरहा (सरगीपाल पारा, कोंडागाँव) के अनुसार धान की महीन भूसी जिसे कोंडा कहा जाता है, के आधार पर इस गाँव का नाम कोंडागाँव हुआ था। वे एक किम्वदन्ती का हवाला देते हुए बताते थे कि गाँडा जाति (सरगीपाल पारा की रहवासी और छेरकिन डोकरी के नाम से जानी जाने वाली स्व. घिनई कोराम पति सकरु कोराम तथा इसी मोहल्ले के स्व. मँगतू कोराम के अनुसार गोंड जाति) की कोई एक बुढ़िया थी, जो प्राय: दूसरों के लिये धान कूटने का काम करती थी। धान कूटने के इस काम को काँडा ले जाना कहा जाता है। काँडा का नियम होता है 20 पायली धान कूट कर 9 पायली चावल वापस करना और शेष चावल तथा कोंडा (भूसी) मेहनताना के रूप में स्वयं रख लेना। किन्तु वह बुढ़िया इस नियम के विपरीत सारा चावल चाहे वह 10 पायली हो या 11, वापस कर दिया करती और केवल भूसी अपने लिये रख लेती। वही उसका मेहनताना होता। दुनिया की नजरों में उसके इसी ऊटपटाँग किन्तु उस बुढ़िया के हिसाब से युक्तियुक्त नियम के कारण उस बुढ़िया का नाम कोंडा डोकरी और बसाहट का नाम कोंडागाँव प्रचलित हो गया। बाद में (सुकालू राम, ग्राम कोटवार एवं गोपाल पटेल, ग्राम पटेल के अनुसार) बस्तर रियासत के तत्कालीन दीवान मिस्टर मिचेल के सुझाव पर इसका नामकरण कोंडानार से कोंडागाँव किया गया। 
दूसरी किम्वदंती (दुर्योधन मरकाम) के अनुसार नारंगी नदी में बोद मछली जिसे गोंडी में "कोण्डा मीन" कहा जाता है, बहुतायत से मिला करती थी। गोंडी में कोण्डा का अर्थ आँख और मीन का अर्थ मछली है। बोद मछली कानी होती है इसीलिये इसे हल्बी परिवेश में "कानी मछरी" भी कहा जाता है। कहा जाता है कि इस "कोण्डा मीन" की बहुतायत से उपलब्धता ही इस बसाहट के नामकरण का आधार बना और यह बस्ती "कोण्डानार" प्रचलित हो गयी। उल्लेखनीय है कि नार का अर्थ गोंडी में गाँव होता है। बोद मछली का सम्बन्ध (रमेश चन्द्र दुग्गा एवं दुर्योधन मरकाम के अनुसार) गोंड जनजाति की धार्मिक आस्था एवं विश्वास से जुड़ता है। 
तीसरी किम्वदंती (मनोज कुर्रे) के अनुसार कोई मरार (पनारा) परिवार बाहर से चल कर इधर आ रहा था तब उसकी "गोडेल गाड़ी" के पहिये वर्तमान हिंगलाजिन मन्दिर के आसपास कान्दा (कन्द) की नार (बेल) से लिपट कर बाधित हो गये और गाड़ी वहाँ से आगे नहीं बढ़ सकी। तब वह परिवार विवशता में वहीं ठहर गया। रात में परिवार के मुखिया को स्वप्न में बड़ी-बड़ी आँख वाली किसी देवी ने दर्शन दिये और उससे उसी जगह पर अपना ठिकाना बनाने को कहा। वह व्यक्ति सुबह उठा और आसपास के लोगों से उस स्वप्न की बात कही और उस देवी के विषय में बताया। तब उसे बताया गया कि उस देवी का नाम हिंगलाजिन है और उनकी बड़ी-बड़ी आँखों के कारण उन्हें "कोण्डा देवी" भी कहा जाता है। इस तरह "कोण्डा" शब्द से इस बस्ती का नाम कोण्डानार हुआ। यानी कोण्डा देवी का गाँव, कोण्डानार जो आगे चल कर कोण्डागाँव कहा जाने लगा।
कोंडागाँव के एक पुराने निवासी श्री महादेव यादव स्व. चमरु सिरहा, स्व. छेरकिन डोकरी और स्व. मँगतू राम कोराम द्वारा बतायी गयी किम्वदन्ती से अनभिज्ञ हैं किन्तु इसकी सत्यता पर प्रश्न चिन्ह भी नहीं लगाते। वे कोंडागाँव में जंगली जानवरों के आतंक के विषय में बताते हैं कि आज से लगभग 60-65 वर्ष पूर्व जब वे किशोर थे, उस समय शेर और जंगली सुअर कोंडागाँव बस्ती से होते हुए पूर्व दिशा की पहाड़ियों की ओर जाया-आया करते थे। तहसीलपारा में स्थित उनके घर के पीछे पेटफोड़ी (चीर घर) हुआ करता था। इसी चीर-घर के आसपास जंगली जानवर मँडराया करते थे। बड़ा खौफ था उन दिनों। 
मेरे पिता शासकीय सेवा में थे और जगदलपुर से स्थानान्तरण पर 1968 के मई-जून महीने में हम कोंडागाँव आये थे। उस समय यह दरअसल एक गाँव ही था। आबादी थी यही कोई 7 से 10 हजार के बीच। जगदलपुर-रायपुर राष्ट्रीय राजमार्ग के दोनों ओर लम्बवत् बसाहट थी। गाँव के पूर्व दिशा में मुख्य मार्ग से लगभग 3 किलोमीटर की दूरी पर दण्डकारण्य परियोजना का कार्यालय, कर्मचारियों के निवास और एक चिकित्सालय। तब इस रविन्द्रनाथ टैगोर (आरएनटी) चिकित्सालय का नाम, जिसे स्थानीय लोग डीएनके अस्पताल के नाम से जानते हैं, बहुत प्रसिद्ध हुआ करता था। चिकित्सा और चिकित्सा-सुविधाओं के लिहाज से लोग जिला मुख्यालय जगदलपुर के महारानी अस्पताल की बजाय इस अस्पताल को ज्यादा तवज्जो दिया करते थे। किन्तु इस अंचल में दण्डकारण्य परियोजना की समाप्ति के साथ ही स्थानीय जनता के पुरजोर विरोध के बावजूद राजनैतिक उदासीनता के चलते इस चिकित्सालय पर से केन्द्र शासन का नियन्त्रण समाप्त हो गया। इसके साथ ही इस अस्पताल की दुर्दशा के दिन आरम्भ हो गये। इस चिकित्सालय में पदस्थ चिकित्सक डॉ. डी. भन्ज कुशल चिकित्सकों में से थे, जो अब कोंडागाँव के ही हो कर रह गये हैं। मुख्य मार्ग पर ही बस स्टैण्ड था। आज भी उसी जगह पर है किन्तु तब उसके पूर्व दिशा में बसाहट नहीं थी। उधर झाड़ियाँ हुआ करती थीं और सूर्यास्त के साथ ही उस ओर से जाने में लोगो को पसीने छूट जाया करते थे। आज यह इलाका आबाद है और विकास नगर का नाम पा चुका है। सरगीपाल पारा में जब हमने 1970 में मकान बनाया उस समय हमारा मकान अन्तिम सिरे पर था। हमारे घर से लगभग 30 मीटर की दूरी से ही साल का छोटा-सा जंगल लगा हुआ था और इधर भी सूर्यास्त के बाद जाने की हिम्मत नहीं होती थी। कभी यहाँ साल का बड़ा-सा जंगल रहा होगा तभी इस जगह का नाम सरगीपाल हुआ। साल का स्थानीय नाम सरगी (अथवा सरई) है। 
कोंडागाँव को संस्कार धानी कुछ यो ही नहीं कहा जाता। यह अलग बात है कि आज के बदलते परिवेश में दुर्भाग्यवश यह नाम अपनी सार्थकता खोता चला जा रहा है। बहरहाल, बाँसुरी वादन के लिये स्व. श्यामलाल रवानी, रामचरित मानस, मातासेवा और फाग गायन के लिये स्व. पूरन महाराज (पूरन शर्मा), स्व. रतनसिंह देवांगन और स्व. श्यामदास वैष्णव चर्चित रहे हैं। इसी तरह कस्बे को भागवतमय बनाने के लिये भागवत कथा के आयोजनों में स्व. अयोध्या प्रसाद पाणिग्राही एवं उनका परिवार, श्री जागेश्वर प्रसाद गुप्ता, श्री जगरुप गुप्ता, श्री हरिहर सिंह गौतम और स्व. मोहन गोलछा की सक्रिय भागीदारी भी उल्लेखनीय रही है। योग को लोकप्रिय बनाने की दिशा में अहर्निश प्रयास कर रहे श्री बीरेन्द्र धर, श्री योगेन्द्र देवांगन, श्रीमती मधुलिका देवांगन, श्री लखनलाल पटेल और उनके साथियों का परिश्रम फल-फूल रहा है। प्रति वर्ष वर्षा ऋतु में जगदलपुर-रायपुर मार्ग पर भँवरडिही (जुगानी) और मार्कण्डेय नदी (काकड़ीघाट) तथा कोंडागाँव-नारायणपुर मार्ग पर भँवरडिह नदी (किबई कोकोड़ी) और छेरीबेड़ा नदी में आयी बाढ़ में फँसे सैकड़ों यात्रियों की नि:स्वार्थ सेवा के लिये कोंडागाँव भली प्रकार जाना जाता रहा है। चाहे वह व्यवसायी हो, अधिकारी या कर्मचारी अथवा राजनीतिक-गैर राजनीतिक या फिर युवा या बच्चे और बूढ़े; सभी बाढ़ में फँसे यात्रियों की तन-मन-धन से सेवा में यथाशक्ति लगे रहे हैं। 
नवयुवक सामाजिक एवं सांस्कृतिक समिति इस कस्बे की बहुत ही सक्रिय संस्था रही थी। श्री टी. एस. ठाकुर के कुशल मार्गदर्शन में इस संस्था ने वर्षों तक सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के कई कीर्तिमान स्थापित किये। इस संस्था ने कुछ समय तक एक महाविद्यालय का भी संचालन किया था। फिर जैसा कि सृजनधर्मी संस्थाओं के साथ प्राय: होता है, इस संस्था के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ और कुछ वर्षों बाद बिखर गया यह संगठन। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि सांस्कृतिक गतिविधियों पर विराम लग गया हो।  कुछ ही वर्षों बाद सांस्कृतिक क्षेत्र में नवोन्मेष के साथ फिर से हलचल हुई और एकाएक सांस्कृतिक संस्थाओं की बाढ़-सी आ गयी। "अभिव्यंजना सांस्कृतिक समिति", "गीतांजलि सांस्कृतिक समिति", "जगार सांस्कृतिक समिति" और "बनफूल सांस्कृतिक समिति" का गठन लगभग एक ही समय में हुआ। इनमें से "जगार" और "बनफूल" संस्थाओं ने कोंडागाँव के अतिरिक्त दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्र में भी लोक संस्कृति से ओतप्रोत कार्यक्रम प्रस्तुत किये। लोक भाषा हल्बी में प्रस्तुत इन संस्थाओं के कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय हुए थे। विशेषत: मध्यप्रदेश तुलसी अकादमी के आयोजन "जनरंजन" में "जगार सांस्कृतिक समिति" द्वारा प्रस्तुत हल्बी रामायण (सीता हरण प्रसंग) ने ऐसी धूम मचायी थी कि अनेक गाँवों से इसकी प्रस्तुतियों के लिये इस संस्था को आमन्त्रण प्राप्त होते रहे। किन्तु कुछ ही वर्षों बाद ये संस्थाएँ भी केवल नाम को रह गयीं और गतिविधियों पर विराम लग गया। कारण, इन संस्थाओं से जुड़े अधिकांश कलाकार शासकीय सेवक थे और कुछ वर्ष यहाँ रह कर इधर-उधर स्थानान्तरित हो गये। "अभिव्यंजना" और "गीतांजलि" का कार्यकाल सम्भवत: एक या दो वर्षों का ही रहा होगा। इसके काफी समय बाद दो नयी संस्थाओं "वन्दना आर्ट्स" और "नवरंग सांस्कृतिक समिति" का अभ्युदय हुआ जिन्होंने कुछ वर्षों तक सांस्कृतिक गतिविधियों में जान फूँकी। ये दोनों ही संस्थाएँ मुख्यत: रंगमंच से जुड़ी रहीं और बस्तर के बाहर देश के विभिन्न नगरों में भी इनकी नाट्य प्रस्तुतियों ने लोगों का ध्यान बस्तर के रंगमंच की ओर खींचा। किन्तु बुद्धू बक्सा के आने के साथ ही सांस्कृतिक गतिविधियों का टोटा पड़ गया। एक लम्बा समय रिक्तता का था। इस रिक्तता की पूर्ति कुछ वर्षों बाद "गीतांजलि आर्केस्ट्रा", "संस्कृति ग्रुप ऑफ आर्ट्स" और "भारत क्लब जूनियर" ने की है। इनमें से "संस्कृति ग्रुप ऑफ आर्ट्स" सम्भवत: निष्क्रिय हो गयी है जबकि "गीतांजलि" और "भारत क्लब जूनियर" अभी भी सक्रिय हैं। 
भारत क्लब अधिकारियों के मनोरंजन के लिये स्थापित एक संस्था रही है। इस क्लब के सौजन्य से नगर में सांस्कृतिक गतिविधियाँ भी संचालित होती रही हैं। इन दिनों क्लब का अस्तित्व तो नहीं रहा किन्तु इसके भवन तथा नाम का उपयोग नगर के सृजनधर्मियों द्वारा रचनात्मक गतिविधियों के संचालन के लिये किया जा रहा है। इस क्लब में वर्षों पहले एक पुस्तकालय भी हुआ करता था जिसमें महत्वपूर्ण पुस्तकें हुआ करती थीं किन्तु आज वहाँ एक भी पुस्तक नहीं है। जानने वाले बताते हैं कि सारी पुस्तकें इस क्लब से जुड़े कुछ लोगों की व्यक्तिगत सम्पत्ति बन कर रह गयी हैं। संस्कार धानी कहलाने का गौरव हासिल होने के बावजूद इस नगर में आज तक एक पुस्तकालय अथवा वाचनालय तक संचालित नहीं है; यह कमी दिल में काँटे की तरह चुभती रही है। 
प्रगतिशील लेखक संघ और जनवादी लेखक संघ की इकाइयाँ यहाँ कुछ समय के लिये सक्रिय रहीं फिर इनमें भी बिखराव आ गया। लम्बे समय तक सक्रिय रहने वाली एकमात्र संस्था थी "प्रज्ञा साहित्य समिति"। किन्तु इसका भी वही हश्र हुआ। फिर कुछेक संस्थाएँ जन्मीं, कुछ दिनों तक पलीं और फिर मृत्यु को प्राप्त हो गयीं। पिछले दिनों श्री चितरंजन रावल के संयोजन में छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य परिषद् की इकाई का गठन हुआ है जिसने फरवरी में एक उल्लेखनीय कार्यक्रम यहाँ आयोजित किया था। इसकी भी बैठकें कुछ दिनों तक नियमित रहीं किन्तु अब यह भी उसी ढर्रे पर चल पड़ी है। कारण है, रचनाकारों और साहित्यप्रेमियों का रुचि न लेना। प्रगतिशील लेखक संघ के गठन के साथ ही यहाँ इप्टा की भी गतिविधियाँ कुछ दिनों तक जारी रहीं और बाद में ठप पड़ गयीं। इप्टा की गतिविधियाँ श्री मनीष श्रीवास्तव और शिशिर श्रीवास्तव तथा उनके साथी संचालित किया करते थे। 
बस्तर की लोक कलाओं के संरक्षण, विकास और विस्तार तथा लोक कलाकारों के हितों के लिये कार्य करने के उद्देश्यों के साथ जन्मी संस्था "पारम्परिक बस्तर शिल्पी परिवार" कई वर्षों तक सक्रिय रही और इसने इस क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य भी किये। किन्तु आज यह संस्था भी मृतप्राय है। समाज-सेवा के क्षेत्र में "साथी समाज सेवी संस्था" ने उल्लेखनीय कार्य किये और इसकी गतिविधियाँ आज भी निरन्तर चल रही हैं। अन्य संस्थाओं में "विकास मित्र" तथा "धरोहर" के नाम लिये जा सकते हैं। 
कला-साधकों की बात करें तो सुगम संगीत के क्षेत्र में सर्वश्री सूर्यम, मन्जीत सिंह, दीनदयाल भट्ट, जयलाल देवांगन, स्व. विश्वेश्वर लाल रवानी, स्व. जान वेलेजली मिलाप, स्व. नूतन सिंह राठौर, चन्द्रकान्त "साहिल", जगदीश चन्द्र कलियारी, जयलाल देवांगन, सुश्री अंजना मिलाप, स्व. प्रदीप मिलाप, सर्वश्री डी. ढाली, खीरेन्द्र यादव, सुश्री नन्दा शील और शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में श्री आर. बी. दीक्षित और श्री गोस्वामी के नाम उल्लेखनीय रहे हैं। बाँसुरी, तबला, नाल और ढोलक वादन के क्षेत्र में श्री खेम वैष्णव तथा तबला वादन के क्षेत्र में श्री प्रणव चटर्जी और श्री सुबोध के नाम आज भी लोगों की जुबान पर हैं। श्री टंकेश्वर पाणिग्राही लोकगीत गाने के अपने विशिष्ट अंदाज के लिये जाने जाते रहे हैं। नवोदित कलाकारों में सर्वश्री सहदेव साहा, तरुण पाणिग्राही, भूपेश पाणिग्राही, जयेश, अमित दास, सिद्धार्थ वैष्णव, नवनीत, प्रद्युम्न, चोखेन्द्र डाबी, रिक्की और सुश्री डॉली घुड़ैसी आदि के नाम लिये जा सकते हैं। लोक गायकों में गुरुमाय सुकदई कोराम एक ऐसा नाम है जिनके गाये बस्तर की धान्य देवी की कथा "लछमी जगार" का पुस्तकाकार प्रकाशन न केवल आस्ट्रेलियन नेशनल युनीवर्सिटी के सहयोग से हुआ अपितु जिसकी चर्चा राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी हुई है। लोककलाओं के क्षेत्र में इस नगर के सर्वश्री जयदेव बघेल (घड़वा शिल्पी), खेम वैष्णव (लोक चित्रकार), पंचूराम सागर, राजेन्द्र बघेल, भूपेन्द्र बघेल (तीनों घड़वा शिल्पी) आदि ने अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की है। कला के क्षेत्र में श्री सुशील सखूजा का नाम गिनीज बुक आफ वल्र्ड रिकार्ड में दर्ज होना भी कोंडागाँव की एक बड़ी उपलब्धि कही जायेगी। देश के पाँच राज्यों की लोक कथाओं को हल्बी में एनीमेशन फिल्म के जरिये स्कॉटलैंड की संस्था "वेस्ट हाईलैंड एनीमेशन" के साथ मिल कर अन्तर्राष्ट्रीय दर्शकों तक पहुँचाने में भी कोंडागाँव के कलाकारों का योगदान उल्लेखनीय है। 
साहित्य के क्षेत्र में कोंडागाँव को अग्रिम पंक्ति में लाने का श्रेय यदि किसी को जाता है तो वे हैं सुपरिचित कवि और व्यंग्यकार श्री सुरेन्द्र रावल। उन दिनों जब मैं रचना-कर्म से जुड़ा तब यहाँ स्व. पी.एल.कनवर, स्व. ओ.पी.शर्मा, श्री सुरेन्द्र रावल और जनाब हयात रज़वी वरिष्ठ कवि और शायर हुआ करते थे। प्राय: प्रत्येक 8-10 दिनों में एक गोष्ठी अवश्य ही हुआ करती थी। गोष्ठी न हो तो पेट में दर्द होने लगता था। इसके ठीक विपरीत गोष्ठी के नाम पर आज पेट में दर्द उठने लगता है। इसके बावजूद सर्वश्री सुरेन्द्र रावल, चितरंजन रावल और श्री राजाराम त्रिपाठी द्वारा गोष्ठियाँ आयोजित करने की पहल चलती रहती है। बहरहाल, वरिष्ठ रचनाकारों के आग्रह पर मैं भी अपनी अनगढ़ कविताएँ बड़े ही संकोच के साथ सुना दिया करता था जिन पर वरिष्ठ रचनाकारों की स्वस्थ टिप्पणियाँ प्राप्त होती थीं। गोष्ठियों में स्थायी सुधी श्रोता हुआ करते थे सर्वश्री टी. एस. ठाकुर, हेमचन्द्र सिंह राठौर और स्व. हादी भाई रिज़वी। ये तीनों ही साहित्य-पिपासु, साहित्य-मर्मज्ञ और विद्वान थे और भाषा पर भी इनका गजब का अधिकार था। श्री टी. एस. ठाकुर हिन्दी के साथ-साथ अँग्रेजी के भी विद्वान रहे हैं। उनके द्वारा रचित अँग्रेजी ग्रामर हाई स्कूल के पाठ्यक्रम में सम्मिलित रहा है। रचनाकार इन सुधी श्रोताओं से मार्गदर्शन प्राप्त करते रहे हैं। श्री टी.एस.ठाकुर आज भी गोष्ठियों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। स्व. हादी भाई रिज़वी की कमी सभी को खलती है। बहरहाल, आगे चल कर सुप्रसिद्ध कथाकार और कवि श्री मनीषराय और बस्तर की जनभाषा हल्बी के वरेण्य कवि श्री सोनसिंह पुजारी के इस नगर में आगमन ने यहाँ की साहित्यिक गतिविधियों की सक्रियता में और भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। श्री पुजारीजी के सान्निध्य में यहाँ के कई रचनाकारों ने लोकभाषा में सृजन आरम्भ किया। यों तो मैं पहले से ही हल्बी जनभाषा में सृजन कर रहा था किन्तु श्री पुजारीजी के सान्निध्य ने मुझे इस ओर गम्भीरता पूर्वक काम करने की प्रेरणा दी। इसके लिये मैं श्री पुजारीजी का हृदय से आभारी हूँ। 1982 में स्व. मनीषरायजी के प्रयासों और श्री सोनसिंह पुजारी तथा श्री के. सी. दास के सहयोग से यहाँ "सर्जना 82" नामक एक विराट् साहित्यिक सम्मेलन सम्पन्न हुआ जिसमें अखिल भारतीय ख्याति के सुप्रसिद्ध कथाकारों सर्वश्री हरिनारायण ("कथादेश" के सम्पादक), बलराम ("सारिका" के उप सम्पादक), संजीव, अब्दुल बिस्मिल्लाह, पुन्नीसिंह, धीरेन्द्र अस्थाना, रऊफ परवेज़, किरीट दोशी, लक्ष्मीनारायण पयोधि आदि ने भी शिरकत की। कोंडागाँव के साथ-साथ सम्पूर्ण बस्तर अंचल के साहित्य-प्रेमियों के लिये यह एक ऐतिहासिक और अविस्मरणीय आयोजन सिद्ध हुआ। इसी आयोजन में बस्तर पर केन्द्रित महत्वपूर्ण ग्रन्थ "इन्द्रावती" का विमोचन भी हुआ। इस ग्रन्थ के सम्पादक थे स्व. मनीषराय और श्री बलराम। सृजन-यात्रा अविराम चलती रही किन्तु बीच-बीच में कुछ व्यवधान भी उपस्थित हो जाया करते। फिर कुछ दिनों के लिये शून्य की स्थिति निर्मित हो गयी। तभी समकालीन कविता के सुपरिचित हस्ताक्षर श्री संजीव बख्शी जगदलपुर से स्थानान्तरित हो कर कोंडागाँव आये और उनकी पहल पर गोष्ठियों का दौर फिर से चल पड़ा। प्रमुख रचनाकारों में सर्वश्री यशवन्त गौतम, मनोहर सिंह "जख्मी", चन्द्रकान्त "साहिल", अब्दुल करीम, आर.सी.मेरिया, चितरंजन रावल, राजेन्द्र राठौर, ब्रजकिशोर राठौर, महेश पाण्डे, योगेन्द्र देवांगन, रमेश अधीर, जगदीश दास, केशव पटेल, पी.के.राघव, बी.बी.वर्मा, उमेश मण्डावी और स्व. सी.एल.मार्कण्डेय आदि उल्लेखनीय रहे हैं। नवोदित कवियों में सुश्री बरखा भाटिया और श्री हरेन्द्र यादव और के नाम लिये जा सकते हैं। नवोदित होने के बावजूद सुश्री बरखा भाटिया की गजलें बेहतरीन मानी जाती हैं। 
इस नगरी से "प्रस्तुति", "घुमर" और "ककसाड़" नामक स्तरीय लघु पत्रिकाओं का प्रकाशन भी होता रहा है। किन्तु जैसा कि लघु पत्रिकाओं की नियति होती है, ये पत्रिकाएँ भी अपने शैशव-काल में ही काल-कवलित हो गयीं। "बस्तर सम्भाग हल्बी साहित्य परिषद्" और "ककसाड़ प्रकाशन" को यहाँ से बस्तर के लोक साहित्य सम्बन्धी महत्वपूर्ण ग्रन्थों (बस्तर की मौखिक कथाएँ, लछमी जगार, बस्तर का लोक साहित्य, बस्तर की गीति कथाएँ, धनकुल) और बस्तर सम्बन्धी बाल साहित्य (चलो चलें बस्तर तथा बस्तर के तीज त्यौहार) के प्रकाशन का श्रेय जाता है। श्री चितरंजन रावल का काव्य संग्रह ""कुचला हुआ सूरज"" और श्री सुरेन्द्र रावल का काव्य संग्रह ""काव्य-यात्रा"" तथा श्री योगेन्द्र देवांगन के दो व्यंग्य संग्रह ""जिसकी लाठी उसकी भैंस"" और ""बात की बात"" एवं एक काव्य संग्रह ""दौरों का दौरा"" भी प्रकाशित हो चुके हैं।
हल्बी की आद्य कृति "हल्बी भाषा-बोध"
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हरिहर वैष्णव
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बस्तर में साहित्य-सृजन और वह भी हल्बी लोक-भाषा में साहित्य-सृजन! यह अभूतपूर्व घटना थी 1937 की। हल्बी के पहले साहित्यकार होने का गौरव अर्जित किया था (स्व.) ठाकुर पूरन सिंह जी ने। उन्होंने "हल्बी भाषा-बोध" कृति की रचना की थी। इसके बाद एक और कृति प्रकाश में आयी थी, "देबी पाठ", जिसके रचनाकार थे (स्व.) पं. गणेश प्रसाद सामन्त। इस विषय में श्री लाला जगदलपुरी जी लिखते हैं, ""साहित्य के नाम पर इधर केवल मनोरंजनार्थ लोक-साहित्य का ही अस्तित्व ध्वनित होता आ रहा था। बोलियाँ केवल मौखिक परम्परा तक सिमट कर रह गयी थीं। क्षेत्र की किसी भी बोली में लिखित साहित्य के लिये मानसिकता नहीं बन पायी थी। बस्तर की सम्पर्क भाषा हल्बी में पहली बार सन् 1937 में लिखित साहित्य की शुरुआत हुई थी। "हल्बी भाषा-बोध" और "देबी पाठ" नामक दो कृतियाँ बस्तर स्टेट पिं्रटिंग प्रेस, जगदलपुर से मुद्रित हो कर लेखकों द्वारा प्रकाशित की गयी थीं। "हल्बी भाषा-बोध" के लेखक थे ठाकुर पूरन सिंह और "देबी पाठ" के रचनाकार थे पं. गणेश प्रसाद सामन्त। "हल्बी भाषा-बोध" के प्रकाशन का प्रमुख उद्देश्य था तत्कालीन सरकारी अफ़सरों और कर्मचारियों को हल्बी के सम्पर्क में लाना, क्योंकि उन दिनों यहाँ हल्बी एक ऐसी बोली थी, जो अंग्रेजी और हिन्दी के बाद बस्तर रियासत के राज-काज में काम आती थी। "देबी पाठ" एक छोटी-सी भजन पुस्तिका थी। जाहिर है कि उन दिनों उधर राज्याश्रयी और पारम्परिक गतिविधियाँ ही स्वीकृत हुआ करती थीं।""
श्री लालाजी ने यद्यपि 1936 से साहित्य-सृजन आरम्भ कर दिया था किन्तु तब वह सृजन केवल हिन्दी में था। हल्बी-लेखन की शुरुआत उन्होंने सन् 1940 में की थी। वे कहते हैं कि अध्ययन हेतु लोकोक्तियों की खोज के दौरान उनका ध्यान "हल्बी भाषा-बोध" की ओर गया। "हल्बी भाषा-बोध" में देखने पर उदाहरणार्थ कुल चौदह कहकुक (कहावतें) और बारह धंदे (पहेलियाँ) ही प्राप्त हुए। लोकोक्तियों के अन्तर्गत मुहावरे भी आते हैं। लालाजी कहते हैं कि उन्हें उसमें मुहावरे नहीं मिले। वे आगे कहते हैं, ""वैसे, "हल्बी भाषा-बोध" आज भी अपनी उपयोगिता सिद्ध करने में सक्षम सिद्ध हो सकता है, यदि उसका पुनप्र्रकाशन हो सके। ठाकुर पूरन सिंह हल्बी के प्रथम गद्यकार और गीति-प्रणेता थे। राष्ट्रीय भावना से युक्त "भारत माता चो कहनी" शीर्षक उनकी एक हल्बी कविता और कई उद्बोधक हल्बी गीत स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् प्रकाशित हुए थे।""
इस तरह 1937 में हल्बी में साहित्य-सृजन का जो अलख (स्व.) ठाकुर पूरन सिंह जी ने जगाया वह भले ही मन्थर गति से, किन्तु आगे बढ़ता गया और आज की स्थिति में हल्बी में उल्लेखनीय सृजन हो रहा है। कविताएँ, गीत, कहानियाँ, एकांकी, नाटक और यहाँ तक कि उपन्यास भी लिखे जा रहे हैं। इसीलिये कहा जा सकता है कि हल्बी को न केवल लिखित स्वरूप में लाने बल्कि इस जनभाषा में साहित्य-सृजन आरम्भ करने में (स्व.) ठाकुर पूरन सिंह जी का ऐतिहासिक योगदान उल्लेखनीय है। वे निर्विवाद रूप से हल्बी के पहले साहित्यकार कहे जा सकते हैं। ठीक उसी तरह, जिस तरह बस्तर अंचल में हिन्दी साहित्य के प्रणेता के रूप में पण्डित केदारनाथ ठाकुर जाने जाते हैं, जिनका बहुचर्चित ग्रंथ "बस्तर-भूषण" 1908 में प्रकाशित हुआ था। इस ग्रंथ की चर्चा आज भी होती है और यह बस्तर के भूगोल, इतिहास तथा यहाँ की आदिवासी एवं लोक संस्कृति के विषय में सम्पूर्ण विवरण उपलब्ध कराने वाला ग्रंथ सिद्ध होता आ रहा है। शोधार्थियों के लिये ये दोनों ही कृतियाँ बहुमूल्य साबित होती रही हैं।
(स्व.) ठाकुर पूरन सिंह जी द्वारा रचित कुछ और हल्बी कृतियों का उल्लेख मिलता है। ये कृतियाँ हैं, "भारत माता चो कहनी" और "छेरता तारा गीत"। "हल्बी भाषा-बोध" के विषय में कहा जाता है कि यह पुस्तक राजकीय अमले को हल्बी भाषा सिखाने के लिये लिखी गयी थी। उन्हीं के सहयोग से मेजर आर. के. एम. बेट्टी ने 1945 में "ए हल्बी ग्रामर" की रचना की थी। 1950 में पं. गंभीर नाथ पाणिग्राही रचित कविता-संग्रह "गजामूँग" प्रकाशित हुआ था। पं. वनमाली कृष्ण दाश ने भी साहित्य-सृजन किया था किन्तु उनकी किसी प्रकाशित पुस्तक का उल्लेख नहीं मिलता ("बस्तर : इतिहास एवं संस्कृति" : लाला जगदलपुरी, 1994, प्रकाशक : मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल (मध्य प्रदेश)। (स्व.) पं. देवीरत्न अवस्थी जी "करील" ने हिन्दी के साथ-साथ हल्बी में भी काव्य-रचना की। उनका 1910 में बस्तर में हुई सशस्त्र क्रान्ति (भूमकाल) के सन्दर्भ में लिखा हल्बी गीत "इलो-इलो" तथा एक अन्य गीत "बास्तानारिन बाई" चर्चित रहे हैं। "बास्तारिन बाई" गीत बैंसवाड़ी लोकभाषा में भी स्वयं उन्हीं के द्वारा अनूदित है।
श्री लाला जगदलपुरी जी ने 1940 से हल्बी में साहित्य-सृजन आरम्भ किया। उन्होंने कुछ हिन्दी पुस्तकों का हल्बी में अनुवाद भी प्रस्तुत किया। उनके द्वारा हल्बी में अनूदित पुस्तकें हैं, "प्रेमचन्द चो बारा कहनी", "बुआ चो चिठी मन", "रामकथा" और "हल्बी पंचतन्त्र"।
लाला जी के समकालीनों में (स्व.) पं. रघुनाथ प्रसाद महापात्र जी हल्बी-भतरी के बहुचर्चित कवि रहे थे। उनकी पुस्तक "फुटलो दसा, बिलई उपरे मुसा" ने बस्तर की सीमाएँ लाँघ कर ओड़िसा तक में धूम मचा दी थी। (स्व.) ठाकुर पूरन सिंह जी की साहित्यिक विरासत को आगे बढ़ाया उन्हीं के सुयोग्य पुत्र श्री रामसिंह ठाकुर जी ने। उन्होंने हल्बी गीत-कविता-कहानी और निबन्ध के साथ-साथ श्री रामचरित मानस को हल्बी में प्रस्तुत करने का उल्लेखनीय और स्तुत्य कार्य किया। उन्हीं के द्वारा हल्बी में अनूदित श्रीमद्भगवद्गीता का प्रकाशन 2014 में राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली द्वारा किया गया है। हल्बी में श्रेष्ठ कविताएँ लिखीं श्री सोनसिंह पुजारी जी ने। श्री पुजारी जी ने यद्यपि बहुत कम, कुल मिला कर केवल 27 कविताएँ लिखीं किन्तु वे सभी चर्चित हुईं। उनकी इन 27 कविताओं का संग्रह "अन्धकार का देश" 2015 में देश की अग्रणी साहित्यिक संस्था साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली से प्रकाशित हुआ है।
इसी काल में पं. काशीनाथ सामन्त, पं. गणेश प्रसाद पाणिग्राही, जॉन वेलेजली "चिराग" आदि ने भी हल्बी साहित्य-सृजन के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिया।
हल्बी लोक-भाषा-साहित्य को प्रकाश में लाने का श्रेय निर्विवाद रूप से दिया जाना चाहिये "दण्डकारण्य समाचार" और "बस्तरिया" समाचार पत्रों को तथा आकाशवाणी के जगदलपुर केन्द्र को। इन तीनों ने हल्बी लोक-भाषा के लिखित तथा अलिखित दोनों ही प्रकार के साहित्य को प्रकाश में लाने का यथासम्भव प्रयास किया, उर्वर भूमि तैयार की, बीजारोपण किया, सिंचित-पल्लवित और पुष्पित-फलित भी।
जैसा कि "हल्बी भाषा-बोध" के पुनप्र्रकाशन के सम्बन्ध में श्री लाला जगदलपुरी जी के उद्गार का उल्लेख ऊपर हुआ है, यह बहुत ही प्रसन्नता का विषय है कि स्व. ठाकुर पूरन सिंह जी के सुयोग्य पौत्र श्री विजय सिंह ने इस पुस्तक का पुनप्र्रकाशन किया है। ऐसा कर के उन्होंने हम सभी बस्तरवासियों पर जो उपकार किया है, सम्भवत: वे उससे अनजान नहीं हैं। उनका आभार और अनन्त मंगलकामनाएँ।

Friday 3 April 2020

बस्तर के धनकुल गीत
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मेरे शोध-प्रबन्ध "बस्तर के धनकुल गीत" पर मानव संसाधन विकास विभाग के संस्कृति मन्त्रालय, भारत सरकार के अधीन "दक्षिण-मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र, नागपुर" द्वारा 2008 में "धनकुल गीत" शीर्षक से एक डाक्यूमेन्ट्री फिल्म बनायी गयी थी। यह फिल्म यहाँ प्रस्तुत है। सम्भव है, आपको पसंद आये। हाँ, यह अवश्य ही बताना जरूरी है कि कहीं-कहीं पर कमेन्टेटर रविन्द्र दुरुगकर (उप संचालक, दक्षिण-मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र, नागपुर) ने कुछ बातें अपने हिसाब से भी जोड़ी हैं। Link hai: https://youtu.be/M8WU0adEAC0https://youtu.be/M8WU0adEAC0

Friday 19 October 2018

"हल्बी" भाषा या बोली

एक विमर्श

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"हल्बी" भाषा या बोली

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प्रिय डॉ. रूपेन्द्र कवि जी के एक पोस्ट पर मान्यवर सतीश जैन भाई साहब ने टिप्पणी की थी कि "हल्बी" भाषा नहीं अपितु "बोली" है। कवि जी ने बाद में कभी चर्चा करने की बात कही थी। मैं यहाँ यह बताने का प्रयास कर रहा हूँ कि "हल्बी" ही नहीं बल्कि "गोंडी" भी "भाषा" है कि "बोली" और फिर छत्तीसगढ़ी तो भाषा है ही। 
मैं पूरी गम्भीरता, आत्मविश्वास और जिम्मेदारी के साथ कह रहा हूँ कि "हल्बी" को देश ही नहीं अपितु विदेशों के भी सुप्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिकों ने "बोली" की बजाय "भाषा" ही कहा है। इन देशी-विदेशी भाषा वैज्ञानिकों और मानव वैज्ञानिकों के नाम इस प्रकार हैं :
 01. पद्मश्री प्रोफेसर (डॉ.) अन्विता अब्बी, सेवानिवृत्त प्रोफेसर, जवाहरलाल नेहरू युनीवर्सिटी, नयी दिल्ली। प्रेसीडेन्ट, लिंग्विस्टिक सोसाइटी ऑफ इंडिया, नयी दिल्ली।
02. फ्रैन वुड्स, भाषा वैज्ञानिक, फ्रीलान्सर, पर्थ, (ऑस्ट्रेलिया)
03. डॉ. क्रिस ग्रेगोरी, मानव विज्ञानी, ऑस्ट्रेलियन नेशनल युनिवर्सिटी, कैनबरा (ऑस्ट्रेलिया)

इन सभी विद्वानों का कहना है कि हल्बी और गोंडी इसीलिये भाषा हैं, क्योंकि इनके व्याकरण हैं। वे "लिपि" को आवश्यक नहीं मानते। उन्होंने इसका उदाहरण देते हुए अँग्रेजी की लिपि की बात की, जो "रोमन लिपि" है। अँग्रेजी की कोई अपनी लिपि है ही नहीं। इसी तरह फ्रेन्च, जर्मन और इटालियन भाषाओं की भी कोई लिपि नहीं है। वही रोमन लिपि ही थोड़ी-सी फेर-बदल कर अपना ली गयी है। अपने देश की ही बात लें। हिन्दी की अपनी कोई लिपि नहीं है। देवनागरी, जो संस्कृत की लिपि है, हिन्दी की लिपि हो गयी है। मराठी और गुजराती की लिपियाँ भी देवनागरी का ही रूप हैं। बंगला और असमिया की लिपियों की बात करें तो पाएँगे कि दोनों की लिपियाँ एक ही हैं। हो सकता है कि थोड़ा-बहुत इधर-उधर हो। बहरहाल, हल्बी की लिपि बनी तो है किन्तु प्रचलन में नहीं है। हल्बी की लिपि बनायी है जगदलपुर के श्री विक्रम सोनी जी और कोंडागाँव के श्री घनश्याम पाणिग्राही जी ने। इसी तरह गोंडी का भी व्याकरण है और लिपि भी। एक व्याकरण नारायणपुर निवासी श्री पिलसाय पट्टावी जी ने तैयार किया है और इसका प्रकाशन भी वर्षों पूर्व बिलासपुर से हुआ था। गोंडी के व्याकरण और भी कई लोगों ने तैयार किये हैं। लिपि तैयार करने वाले सज्जन का नाम स्मरण नहीं है।
भाषा/बोली विमर्श को आगे बढ़ाते हुए यहाँ देश की सर्वोच्च साहित्य-संस्था "साहित्य अकादमी" (राष्ट्रीय साहित्य अकादमी) द्वारा वर्ष 1996 से आरम्भ किये गये "भाषा सम्मान" के विषय में साहित्य अकादमी के ही वेब साईट से ली गयी जानकारी प्रस्तुत है। इसके साथ ही, वर्ष 1996 से 2016 तक जिन क्षेत्रीय भाषाओं को भाषा मानते हुए "भाषा सम्मान" से नवाजा गया, उनका भी विवरण निम्नानुसार है : कोकबोरोक, भोजपुरी, तुलु (दो बार), पहाड़ी, संथाली, मिज़ो, खासी (दो बार), कुई, लद्दाखी (दो बार), भीली (दो बार), गारो, मुण्डारी, लेप्चा, अहिरनी, गोजरी, मगही (दो बार) बोड़ो, कुड़ुख (दो बार), छत्तीसगढ़ी (श्री मंगत रवीन्द्र, 2003), हो, गोंडी (प्रो. हीरालाल शुक्ल, 2004), अंगमी, करवी (कर्वी), हिमाचली, कच्छी, गढ़वाली, बुन्देली, अवधी राजबन्शी, चकमा, कोडाया, बंजारा/लम्बाडी, वर्ली, कुमायुँनी, सौराष्ट्र, हल्बी (हरिहर वैष्णव, 2015)
BHASHA SAMMAN
Sahitya Akademi has been giving annual awards to books of outstanding merit and annual prizes for outstanding translations in the 24 languages recognised by it. However, the Akademi felt that in a multilingual country like India that has hundreds of languages and dialects, Akademi's activities should be extended beyond the recognised ones by acknowledging and promoting literary creativity as well as academic research in non-recognised languages. The Akademi, therefore, instituted Bhasha Samman in 1996 to be given to writers, scholars, editors, collectors, performers or translators who have made considerable contribution to the propagation, modernization or enrichment of the languages concerned. The Samman carries a plaque alongwith an amount equal to its awards for creative literature, i.e. rupees 1,00,000 (Rs.25,000 at the time of inception, increased to Rs.40,000 from 2001, Rs.50,000 from 2003 and to Rs. 1,00,000 from 2009), which is the first step towards the realization of this goal. The Sammans are given to 3-4 persons every year in different languages on the basis of recommendation of experts' committees constituted for the purpose.
History of Bhasha Sammans
The first Bhasha Sammans were awarded in to Sri Dharikshan Mishra for Bhojpuri, Sri Bansi Ram Sharma and Sri M.R. Thakur for Pahari (Himachali), Sri K. Jathappa Rai and Sri Mandara Keshava Bhat for Tulu and Sri Chandra Kanta Mura Singh for Kokborok; for their contribution to the development of their respective languages.
In the Akademi felt that while it was necessary to continue to encourage writers and scholars in languages not formally recognised by the Akademi, it was necessary to extend the scope of this Samman to include scholars who have done valuable work in the field of classical and medieval literature. This being an invaluable heritage of the nation, those who have endeavoured to keep this heritage alive and acquaint succeeding generations with it deserved recognition. It was, therefore, decided that while two sammans may continue to be given for contribution to unrecognized languages two may be earmarked for scholars in the field of classical and medieval literature.
BHASHA SAMMAN AWARDEES
(1996-2016)

S.N. Awardees Contribution
2016
1 Dr. Shesh Anand Madhukar Magahi
2 Prof. Madhukar Anant Mehendale Classical & Medieval Literature (West)
3 Dr. Amrith Someshwar Tulu
2015
1 Dr. Anand Prakash Dixit Classical & Medieval Literature (Northern)
2 Sri Nagalla Guruprasada Rao Classical & Medieval Literature (Southern)
3 Dr. Nirmal Minz Kurukh
4 Professor Lozang Jamspal Ladakhi
(Jointly)
5 Sri Gelong Thupstan Paldan 
6 Sri Harihar Vaishnav Halbi
7 Dr. T.R. Damodaran Sourashtra
(Jointly)
8 Smt. T.S. Saroja Sundararajan 
2014
1 Sri Acharya Munishwar Jha Classical & Medieval Literature
2 Professor Shrikant Bahulkar Classical & Medieval Literature
3 Sri Charu Chandra Pande Kumauni
(Jointly)
4 Sri Mathuradutt Mathpal 
2013
1 Dr. K. Meenakshi Sundaram Classical & Medieval Literature
2 Dr. Jaspal Singh Classical & Medieval Literature
3 Sri Vasant Nirgune Bhili
2012
1 Prof. Sumerchand Kesarichand Jain Classical & Medieval Literature
2 Prof. Satyabati Giri Classical & Medieval Literature
3 Sri Mahadeo Savji Andher (Guruji) Warli
4 Prof. Motiraj Bhajnu Rathod Banjara/Lambadi
(Jointly)
5 Dr. Ramchandra Ramesh Arya 
2011
1 Dr. Vishwanath Tripathi Classical & Medieval Literature
2 Dr. Puthussery Ramchandran Classical & Medieval Literature
3 Prof. Sondar Singh Majaw Khasi
2010
1 Sri Narayan Chandra Goswami Classical & Medieval Literature, Assamese
2 Sri Hasu Yajnik Classical & Medieval Literature, Sindhi
3 Prof. Taburam Taid Mising
4 Sri Addanda C. Cariappa Kodava
(Jointly)
5 Smt Mandira Java Appanna 
6 Prof. S. S. Majaw Khasi
2009
1 Dr. Gurdev Singh Classical & Medieval Literature, Punjabi
2 Professor Korlapati Srirama Murthy Classical & Medieval Literature, Telugu
3 Sri Niranjan Chakma Chakma
4 Dr. Girijasankar Ray Rajbanshi
2008
1 (late) Surendranath Satapathy Classical & Medieval Literature, Oriya
2 Sri Vishvanath Anandarao Khaire Classical & Medieval Literature, Marathi
3 Sri Vishwanath Pathak Avadhi
4 Dr. Ram Naraian Sharma Bundeli
(Jointly)
5 Dr. Kailash Bihari Dwivedi 
6 Sri Sudama Prasad ‘Premi’ Garhwali
(Jointly)
7 Sri Prem Lai Bhatt 
8 Sri Madhav Joshi ‘Ashq’ Kachchhi
(Jointly)
9 Sri Tejpal Darshi Shah ‘Tej’ 
2007
1 Professor S. Settar Classical & Medieval Literature, Kannada
2 Dr. Shashinath Jha Classical & Medieval Literature, Maithili
3 Dr. Pratyoosh Guleri Himachali Language & Literature
(Jointly)
4 Dr. Gautam Chand Sharma 
2006
1 Prof. Hampa Nagarajaiah Classical and Medieval Literature
2 Prof. Veturi Ananda Murthy Classical and Medieval Literature
3 Sri Kilensowa Ao Ao Language and Literature
4 Thada. Subramanyam Sourashtra Language and Literature
(Jointly)
5 Sri K.R. Sethuraman 
2005
1 Dr. L. Basavaraju Classical and Medieval Literature
2 Dr. Narayan Hemandas Classical and Medieval Literature
3 Sr. Bidor Sing Kro Karbi
4 Dr. Douvituo Kuolie Angami (Tenyidie)
2004
1 Prof. H.H. Mahamedhanandanath
Saraswati (Pt. Dukhisyama Pattanayak) Classical and Medieval Literature
2 Prof. Kamalesh Datta Tripathi Classical and Medieval Literature
3 Prof. Hira Lal Shukla Gondi
4 Sri Binod Kumar Naik Ho
2003
1 Dr. Kesavananda Dev Goswami Classical and Medieval Literature
2 Dr. Mohammad Waris Kirmani Classical and Medieval Literature
3 Sri Mangat Raveendra Chhattisgarhi
4 Sri Bihari Lakra Kurukh
2002
1 Sri Manik Dhanpalwar Classical and Medieval Literature
2 Sri Madhu Ram Baro Boro
3 Dr. Ram Prasad Singh Magahi
2001
1 Sri T. Koteswar Rao Classical and Medieval Literature
2 Sri. T.V. Venkatachala Sastry Classical and Medieval Literature
3 Sri Mohammad Israil Asar Gojri
4 Sri Moti B.A. Bhojpuri
2000
1 Dr. Jayakanta Mishra Classical and Medieval Literature
2 Sri Chimanlal Shivashankar Trivedi Classical and Medieval Literature
3 Sri Krishna Patil Ahirani
4 Passang Tshering Lepcha Lepcha
1999
1 Prof. Shyam Manohar Pandey Classical and Medieval Literature
2 Dr. S.V. Subramanian Classical and Medieval Literature
3 Dr. M.M. Mundu Mundari
4 Sri Llewellyn R. Marak Garo
1998
1 Dr. Bhagawandas Kuberdas Patel Bhili
2 Sri Tashi Rabgias Ladakhi
3 Sri Dayanidhi Mallik Kui
1997
1 Sri Devi Singh Khongdup Khasi
2 Sri James Dokhuma Mizo
3 Dr. Doman Sahu ‘Samir’ Santhali
1996
1 Sri M.R. Thakur Pahari
(Jointly received)
2 Sri Bansi Ram Sharma 
3 Sri Mandara Keshava Bhat Tulu
(Jointly received)
4 Sri K. Jathappa Rai 
5 Sri Dharikshan Mishra Bhojpuri
6 Sri Chandra Kanta Murasingh Kokborok