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मनोविकार

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मनोविकार
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एम.ईएसएच D001523

मनोविकार (Mental disorder) किसी व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य की वह स्थिति है जिसे किसी स्वस्थ व्यक्ति से तुलना करने पर 'सामान्य' नहीं कहा जाता। स्वस्थ व्यक्तियों की तुलना में मनोरोगों से ग्रस्त व्यक्तियों का व्यवहार असामान्‍य अथवा दुरनुकूली (मैल एडेप्टिव) निर्धारित किया जाता है और जिसमें महत्‍वपूर्ण व्‍यथा अथवा असमर्थता अन्‍तर्ग्रस्‍त होती है। इन्हें मनोरोग, मानसिक रोग, मानसिक बीमारी अथवा मानसिक विकार भी कहते हैं।

मनोरोग मस्तिष्क में रासायनिक असंतुलन की वजह से पैदा होते हैं तथा इनके उपचार के लिए मनोरोग चिकित्सा की जरूरत होती है।[1]

मनोविज्ञान में हमारे लिए असामान्य और अनुचित व्यवहारों को मनोविकार कहा जाता है। ये धीरे-धीरे बढ़ते जाते हैं। मनोविकारों के बहुत से कारक हैं, जिनमें आनुवांशिकता, कमजोर व्यक्तित्व, सहनशीलता का अभाव, बाल्यावस्था के अनुभव, तनावपूर्ण परिस्थितियां और इनका सामना करने की असामर्थ्य सम्मिलित हैं।

वे स्थितियां, जिन्हें हल कर पाना एवं उनका सामना करना किसी व्यक्ति को मुश्किल लगता है, उन्हें 'तनाव के कारक' कहते हैं। तनाव किसी व्यक्ति पर ऐसी आवश्यकताओं व मांगों को थोप देता है जिसे पूरा करना वह अति दूभर और मुश्किल समझता है। इन मांगों को पूरा करने में लगातार असफलता मिलने पर व्यक्ति में मानसिक तनाव पैदा होता है।

तनाव : अशांत मानसिक स्वास्थ्य के स्रोत के रूप में

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आज के समय में तनाव लोगों के लिए बहुत ही सामान्य अनुभव बन चुका है, जो कि अधिसंख्य दैहिक और मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रियाओं द्वारा व्यक्त होता है। तनाव की पारंपरिक परिभाषा दैहिक प्रतिक्रिया पर केंद्रित है। हैंस शैले ( Hans Selye) ने 'तनाव' (स्ट्रेस) शब्द को खोजा और इसकी परिभाषा शरीर की किसी भी आवश्यकता के आधार पर अनिश्चित प्रतिक्रिया के रूप में की। हैंस शैले की पारिभाषा का आधार दैहिक है और यह हारमोन्स की क्रियाओं को अधिक महत्व देती है, जो ऐड्रिनल और अन्य ग्रन्थियों द्वारा स्रवित होते हैं।

शैले ने दो प्रकार के तनावों की संकल्पना की-

  • (क) यूस्ट्रेस (eustress) अर्थात मधयम और इच्छित तनाव जैसे कि प्रतियोगी खेल खेलते समय
  • (ख) विपत्ति (distress/डिस्ट्रेस) जो बुरा, असंयमित, अतार्किक या अवांछित तनाव है।

तनाव पर नवीन उपागम व्यक्ति को उपलब्ध समायोजी संसाधनों के सम्बन्ध में स्थिति के मूल्यांकन एवं व्याख्या की भूमिका पर केंद्रित है। मूल्यांकन और समायोजन की अन्योन्याश्रित प्रक्रियायें व्यक्ति के वातावरण एवं उसके अनुकूलन के बीच सम्बन्ध निर्धारण करती है। अनुकूलन वह प्रक्रिया है जिस के द्वारा व्यक्ति दैहिक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक हित के इष्टतम स्तर को बनाए रखने के लिए अपने आसपास की स्थितियाँ एवं वातावरण को व्यवस्थित करता है।

मनोविकारों के प्रकार

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तनावपूर्ण स्थितियों का सामना करते समय आमतौर पर व्यक्ति समस्या केंद्रित या मनोभाव केंद्रित कूटनीतियों को अपनाता है। समस्या केंद्रित नीति द्वारा व्यक्ति अपने बौद्विक साधानों के प्रयोग से तनावपूर्ण स्थितियों का समाधान ढूंढता है और प्रायः एक प्रभावशाली समाधान की ओर पहुंचता है। मनोभाव केंद्रित नीति द्वारा तनावपूर्ण स्थितियों का सामना करते समय व्यक्ति भावनात्मक व्यवहार को प्रदर्शित करता है जैसे चिल्लाना। यद्यपि, यदि कोई व्यक्ति तनाव का सामना करने में असमर्थ होता है तब वह प्रतिरोधक-अभिविन्यस्त कूटनीति की ओर रूझान कर लेता है, यदि ये बारबार अपनाए जाएं तो विभिन्न मनोविकार उत्पन्न हो सकते हैं। प्रतिरोधक-अभिविन्यस्त व्यवहार परिस्थिति का सामना करने में समर्थ नहीं बनाते, ये केवल अपनी कार्यवाहियों को न्यायसंगत दिखाने का जरिया मात्र है।

शारीरिक समस्याएं जैसे ज्वर, खांसी, जुकाम इत्यदि ये विभिन्न प्रकार के मनोविकार होते हैं। इन वर्गों के मनोविकारों की सूची न्यूनतम व्यग्रता से लेकर गंभीर मनोविकारों जैसे मनोभाजन या खंडित मानसिकता तक है। अमेरिकी मनोविकारी संघ (American Psychiatric Association) द्वारा मनोविकारों पर नैदानिक और सांख्यिकीय नियम पुस्तक ( Diagnostic and Statistical Manual of Mental Disorders (DSM)) को प्रकाशित किया गया है जिस में विविध प्रकार के मानसिक विकारों का उल्लेख किया गया है। मनोविज्ञान की जो शाखा विकारों का समाधान खोजती है उसे असामान्य मनोविज्ञान कहा जाता है।

बाल्यावस्था के विकार

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ये जान कर शायद आपको आश्चर्य हो कि बच्चे भी मनोविकारों का शिकार हो सकते हैं। डीएसएम, का चौथा संस्करण बाल्यावस्था के विभिन्न प्रकार के विकारों का समाधान ढूंढता है, आमतौर पर यह पहली बार शैशवकाल, बाल्यावस्था या किशोरावस्था में पहचान में आते हैं। इन में से कुछ सावधान-अभाव अतिसक्रिय विकार पाए जाते हैं जिसमें बच्चा सावधान या एकाग्र नहीं रहता या वह अत्यधिक फुर्तीला व्यवहार करता है। और स्वलीन विकार जिसमें बच्चा अंतर्मुखी हो जाता है, बिल्कुल नहीं मुस्कुराता और देर से भाषा सीखता है।

व्यग्रता विकार

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यदि कोई व्यक्ति बिना किसी विशेष कारण के डरा हुआ, भयभीत या चिंता महसूस करता है तो कहा जा सकता है कि वह व्यक्ति व्यग्रता विकार (Anxiety disorder) से ग्रस्त है। व्यग्रता विकार के विभिन्न प्रकार होते हैं जिसमें चिंता की भावना विभिन्न रूपों में दिखाई देती है। इनमें से कुछ विकार किसी चीज से अत्यन्त और तर्करहित डर के कारण होते हैं और जुनूनी-बाध्यकारी विकार जहां कोई व्यक्ति बारबार एक ही बात सोचता रहता है और अपनी क्रियाओं को दोहराता है।

मनोदशा विकार

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वे व्यक्ति जो मनोदशा विकार (मूड डिसॉर्डर) के अनुभवों से ग्रसित होते हैं उनके मनोभाव दीर्घकाल तक प्रतिबंधित हो जाते हैं, वे व्यक्ति किसी एक मनोभाव पर स्थिर हो जाते हैं, या इन भावों की श्रेणियों में अदल-बदल करते रहते हैं। उदाहरण स्वरूप चाहे कोई व्यक्ति कुछ दिनों तक उदास रहे या किसी एक दिन उदास रहे और दूसरे ही दिन खुश रहे, उस के व्यवहार का परिस्थिति से कुछ संबंध न हो। इस तरह व्यक्ति के व्यवहारिक लक्षणों पर आश्रित मनोदशा विकार दो प्रकार के होते हैं -

अवसाद ऐसी मानसिक अवस्था है जो कि उदासी, रूचि का अभाव और प्रतिदिन की क्रियाओं में प्रसन्नता का अभाव, अशांत निद्रा व नींद घट जाना, कम भूख लगना, वजन कम हो ना, या ज्यादा भूख लगना व वजन बढ़ना, आलस, दोषी महसूस करना, अयोग्यता, असहायता, निराशा, एकाग्रता स्थापित करने में परे शानी और अपने व दूसरों के प्रति नकरात्मक विचारधारा के लक्षणों को दर्शाती है। यदि किसी व्यक्ति को इस तरह के भाव न्यूनतम दो सप्ताह तक रहें तो उसे अवसादग्रस्त कहा जा सकता है और उस के उपचार के लिए उसे शीघ्र नैदानिक चिकित्सा प्रदान करवाना आवश्यक है।

मनोदैहिक और दैहिकरूप विकार

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आज के समय में कुछ बीमारियाँ बहुत ही साधारण बन चुकी हैं जैसे निम्न रक्तचाप, उच्च रक्तचाप, मधुमेह आदि। वैसे तो ये सब शारीरिक बीमारियाँ हैं परंतु ये मनावैज्ञानिक कारणों जैसे तनाव व चिंता से उत्पन्न होती हैं। अतः मनोदैहिक विकार वे मनोवैज्ञानिक समस्याएं हैं जो शारीरिक लक्षण दर्शातीं हैं, लेकिन इसके कारण मनोवैज्ञानिक होते है। वहीं मनोदैहिक की अवधारणा में मन का अर्थ मानस है और दैहिक का अर्थ शरीर है। इसके विपरीत दैहिकरूप विकार, वे विकार हैं जिनके लक्षण शारीरिक है परंतु इनके जैविक कारण सामने नहीं आते। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति पेटदर्द की शिकायत कर रहा है परंतु तब भी जब उसके उस खास अंग अर्थात पेट में किसी तरह की कोई समस्या नहीं होती।

विघटनशील विकार

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किसी-किसी अभिघातज घटना के बाद व्यक्ति अपना पिछला अस्तित्व, गत घटनाएं और आस-पास के लोगों को पहचानने में असमर्थ हो जाता है। नैदानिक मनोविज्ञान में इस तरह की समस्याओं को विघटनशील विकार (Dissociative disorders) कहा जाता है, जिसमें किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व समाजच्युत व समाज से पृथक हो जाता है।

विघटनशील स्मृतिलोप ( dissociative amnesia), विघटनशील मनोविकार का एक वर्ग है, जिसमें व्यक्ति आमतौर पर किसी तनावपूर्ण घटना के बाद महत्वपूर्ण व्यक्तिगत सूचना को याद करने में असमर्थ हो जाता है। विघटन की स्थिति में व्यक्ति अपने नये अस्तित्व को महसूस करता है। दूसरा वर्ग विघटनशील पहचान विकार (dissociative identity disorder) है जिसमें व्यक्ति अपनी याददाश्त तो खो ही देता है वहीं नये अस्तित्व की कल्पना करने लगता है। अन्य वर्ग व्यक्तित्वलोप विकार है, जिसमें व्यक्ति अचानक बदलाव या भिन्न प्रकार से विचित्र महसूस करता है। व्यक्ति इस प्रकार महसूस करता है जैसे उसने अपने शरीर को त्याग दिया हो या फिर उस की गतिविधियां अचानक से यांत्रिक या स्वप्न के जैसी हो जाती है। हालांकि विघटन मनोविकार की सब से गम्भीर स्थिति तब उत्पन्न हो ती है जब कोई एकाधिक व्यक्तित्व मनोविकार व विघटन अस्तित्व मनोविकार से ग्रस्त हो। इस स्थिति में विविध व्यक्तित्व एक ही व्यक्ति में अलग-अलग समय पर प्रकट होते हैं।

मनोविदलन और मनस्तापी (Psychotic) विकार

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आपने सड़क पर कभी किसी व्यक्ति को गंदे कपड़ों में, कूड़े के आसपास पड़े अस्वच्छ भोजन को खाते या फिर अजीब तरीके से बातचीत या व्यवहार करते हुए देखा होगा। उनमें व्यक्ति, स्थान व समय के विषय में कमजोर अभिविन्यास होता है। हम अक्सर उन्हें पागल, बेसुधा आदि कह देते हैं, परंतु नैदानिक भाषा में इन्हें मनोविदलित कहते हैं। ये मनोविकार की एक गंभीर परिस्थिति होती है, जो अशांत विचारों, मनोभावों व व्यवहार से होते हैं। मनोविदलन विकारों में असंगत मानसिकता, दोषपूर्ण अभिज्ञा, संचालक कार्यकलापों में बाधा, नीरस व अनुपयुक्त भाव होते हैं। इससे ग्रस्त व्यक्ति वास्तविकता से निर्लिप्त रहते हैं और अक्सर काल्पनिकता और भ्रांति की दुनिया में खोये रहते है।

विभ्रांति का अर्थ किसी ऐसी चीज को देखना है जो वास्तव में भौतिक रूप से वहाँ नहीं होती, कुछ ऐसी आवाजें जो वहां पर वास्तव में नहीं हैं। भ्रमासक्ति वास्तविकता के प्रति अंधाविश्वास है इस तरह के विश्वास दूसरों से सम्बंध विच्छेद करते हैं। मनोविदलन के विभिन्न प्रकार हैं जैसे कैटाटोनिक मनोविदलन।

व्यक्तित्व मनोविकार

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व्यक्तित्व विकार (पर्सनालिटी डिसॉर्डर) की जड़ें किसी व्यक्ति के शैशव काल से जुड़ीं होती हैं, जहां कुछ बच्चे लोचहीन व अशुद्व विचारधारा विकसित कर लेते हैं। ये विभिन्न व्यक्तित्व मनोविकार व्यक्ति में हानिरहित अलगाव से ले कर भावनाहीन क्रमिक हत्यारे के रूप में सामने आते हैं। व्यक्तित्व मनोविकारों की श्रेणियों को तीन समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है। पहले, समूह की विशेषता अजीब और सनकी व्यवहार है। चिंता और शक दूसरे समूह की विशेषता है और तीसरे समूह की विशेषता है नाटकीय, भावपूर्ण और अनियमित व्यवहार। पहले समूह में व्यामोहाभ, अन्तराबन्धा, पागल (सिज़ोटाइपल) व्यक्तित्व विकार सम्मिलित हैं। दूसरे समूह में आश्रित, परिवर्जित, जुनूनी व्यक्तित्व मनोविकार बताए गए हैं। असामाजिक, सीमावर्ती, अभिनय (हिस्ट्राथमिक), आत्ममोही व्यक्तित्व विकार तीसरे समूह के अन्तर्गत आते हैं।

मनश्चिकित्सा की प्रक्रिया

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किसी भी प्रकार के मनोविकारों से निपटने के लिए कुछ विशेष मनश्चिकित्सा प्रक्रिया द्वारा व्यक्ति की सेवा की जाती हैं। वह व्यक्ति जो मनश्चिकित्सा के क्रार्यक्रम का प्रारूप तय करता है वह प्रशिक्षित व्यक्ति होता है, जिसे नैदानिक मनोवैज्ञानिक या मनोचिकित्सक कहते हैं। जो व्यक्ति यह उपचार करवाता है उसे सेवार्थी/रोगी कहते हैं। मनश्चिकित्सा को अक्सर वार्ता उपचार कहा जाता है क्यों कि ये अंतरवैयक्तिक संपर्क द्वारा प्रदान की जाती है। इस की औषधियां केवल मनोचिकित्सक द्वारा ही दी जा सकती हैं, जो कि औषधीय चिकित्सक होना मनश्चिकित्सा की विभिन्न तकनीकें होती हैं, जो असामान्य व्यवहारों के कारण एवं विकास का वर्णन करती हैं। इनमें मनोविश्लेषण, व्यवहार चिकित्सा, संज्ञानात्मक-व्यवहार चिकित्सा, सेवार्थी केंद्रित चिकित्सा इत्यादि सम्मिलित हैं। मनश्चिकित्सा एक रूपांकित योजना है, जो कि मनोविकारों की प्रकृति और गम्भीरता को धयान में रखकर तैयार की जाती है।

  • 1. सौहार्द स्थापना : मनश्चिकित्सक सेवार्थियों से अच्छे और क्रियाशील संबंध निर्मित कर के उन्हें अपने सहयोग का आश्वासन देता है।
  • 2. व्यक्ति वृत्त को तैयार करना : सेवार्थी के परिवार, मित्र, समाज व जीविका के साथ सामंजस्य स्वरूप को ध्यान में रख कर विशेष विकार का व्यक्ति वृत्त तैयार किया जाता है।
  • 3. समस्या पर विचार करना : व्यक्ति वृत्त तैयार करने के पश्चात् मनश्चिकित्सक कुछ ऐसी समस्याओं पर विचार करता है जिन्हें तात्कालिक देखरेख की जरूरत होती है, जिनका नैदानिक जांच एवं साक्षात्कार के अनुसार दवा देकर समाधान किया जा सकता है।
  • 4. उपचारात्मक सत्र : समस्या की प्रकृति और गम्भीरता के अनुसार मनोचिकित्सक सेवार्थी के साथ उपचार केंद्रित सत्र की अगुवाई करता है। प्रत्येक सत्र के पश्चात हुए सुधार का निरीक्षण एवं मूल्यांकन किया जाता है और आवश्यक लगे तो भावी उपचार के तरीकों में बदलाव कर लिया जाता है।
  • 5. उपचारात्मक हस्तक्षेप : यह सुनिश्चित हो जाने पर कि सत्र द्वारा वांछित परिणामों की प्राप्ति हो गई है तब मनोचिकित्सक सत्र को समाप्त कर देता है। सेवार्थी और उसके परिवार जनों को घर पर ही कुछ सुझावों को मानने की सलाह दी जाती है और जरुरत पड़नेपर सेवार्थी को मनोचिकित्सक के पास दोबारा भी बुलाया जा सकता है।

तनाव से निपटने की प्रक्रिया

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व्यक्ति तनाव से निपटने के लिए आमतौर पर कार्य-अभिविन्यस्त और प्रतिरक्षा-अभिविन्यस्त या मनोभाव केंद्रित प्रक्रियाओं का पालन करता है।

कार्य अभिविन्यस्त प्रक्रिया का उद्देश्य किसी विशेष तनाव कारक द्वारा अधिरोपित की गई समायोजी मांग का यथार्थवादिता से समाधान ढूंढना है। ये चेतन और तर्कसंगत स्तर पर तनावपूर्ण स्थितियों के वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन पर आधारित होती हैं। तनाव से निपटने के इन तरीकों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है जैसे प्रारम्भ, प्रत्याहार और समझौता।

  • 1. प्रारम्भ की स्थिति में कोई व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से स्थिति के सम्मुख आता है। वह साधानों के सम्भाव्य व व्यवहार्यता का मूल्यांकन करता है। तनावपूर्ण स्थिति का सामना करने के लिए वह सबसे ज्यादा आशाजनक कार्यवाही का चुनाव करता है और व्यवहार्यता बनाए रखता है, वहीं यदि ये क्रिया उपयोगी न लगे तो वह इस पद्धति को बदल लेता है। परिस्थितियों की आवश्यकता के अनुसार व्यक्ति नई जानकारियां जुटा कर, सामर्थ्य का विकास करके, वर्तमान योग्यताओं का सुधार करके, नए संसाधानों का प्रयोग करता है। उदाहरण के लिए प्रारम्भ की प्रतिक्रिया तब प्रकट होती है जब विद्यार्थी मुश्किल परीक्षा से पहले दोहराने की योजना बनाता है।
  • 2. प्रत्याहार या अलगाव की स्थिति में यदि किसी व्यक्ति ने भूतकाल में अत्यधिक कठिन परिस्थिति का सामना किया हो एवं उसने उसका सामना करने के लिए अनुचित कूटनीति अपनाई हो, तब वह प्रथम अवस्था में अपनी असफलता को स्वीकार कर लेता है। वह शारीरिक व मनोवैज्ञानिक स्तर पर उस तनावपूर्ण स्थिति को छोड़ देता है। वह अपने प्रयत्नों को पुनर्निर्देशित करके उचित लक्ष्य की ओर कदम बढ़ाता है। प्रत्याहार के उदाहरण स्वरूप जब किसी दोस्त के बार-बार नकारने पर आप उससे सम्बन्ध-विच्छेद करके दूसरे लोगों से मित्रता करने के प्रयत्न करते हैं।
  • 3. समझौते की स्थिति में, यदि व्यक्ति को लगता है कि मूलभूत लक्ष्य की प्रप्ति नहीं हो सकती, तो ऐसे में वह विकल्प के तौर पर दूसरे लक्ष्य को स्वीकार कर लेता है। इस तरह की प्रतिक्रिया तब प्रकट होती है जब व्यक्ति अपनी योग्यताओं का पुनर्मूल्यांकन करता है और अपनी अभिलाषाओं के स्तर को उसी के अनुसार कम कर लेता है। ये तनावपूर्ण स्थितियों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अपनाए गए समझौतापरक व्यवहार को दर्शाता है। उदाहरण स्वरूप एक विद्यार्थी किसी विशेष विषय में अच्छे अंक प्राप्त नहीं कर पाता परंतु वह अन्य विषयों में अच्छे अंकों को प्राप्त करता है और वह इस सत्य को स्वीकारने की कोशिश करता है।

मनोभाव केंद्रित या आत्मरक्षा-अभिविन्यस्त तरीकों से तनाव का सामना करना लाभकारी सिद्ध नहीं होता, क्योंकि व्यक्ति इसके द्वारा किसी समाधान पर नहीं पहुंचता, बस स्वयं को आश्वासन देने के तरीके ढूंढता है। आत्मरक्षक पद्धतियों का उदाहरण बुद्विसंगत व्याख्या करना है जैसे यह तर्क देना कि सभी विद्यार्थी इसीलिए असफल रहे, क्योंकि परीक्षा-पत्र काफी कठिन था। इसका अन्य उदाहरण है विस्थापन करना जैसे सख्त अध्यापक पर आ रहे क्रोध को अपने छोटे भाई को डांट या मार कर उतारना। यहां आपने क्रोध का विस्थापन किया है।

यह समझना बहुत महत्वपूर्ण है कि तनाव से प्रभावशाली तरीके से निपटने के लिए व्यक्ति को स्वस्थ जीवनशैली को अपनाना चाहिए। सकरात्मक सोच, मनोभावों और क्रियाओं द्वारा सिर्फ तनाव से ही बेहतर तरीके से नहीं निपटा जा सकता है, वरन् इसके द्वारा हम जीवन में अत्यधिक प्रसन्न व हल्का महसूस करते हैं, एवं अधिक योग्य बनते हैं।

प्रमुख मानसिक रोग

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मानसिक विकार बहुत तरह के होते हैं। ये विकार व्यक्तित्व, मनोदशा (मूड), खाने की आदतों, चिन्ता आदि से सम्बन्धित हो सकते हैं। इस प्रकार मानसिक रोगों की सूची बहुत बड़ी है। कुछ मुख्य मनोरोगों की सूची नीचे दी गयी है-

मनोरोगों के मुख्य कारण

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मनोरोगों के कारण कई प्रकार के होते हैं। इनमें से मुख्य प्रकार निम्नलिखित हैं :

जैविक कारण

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आनुवंशिक : मनोविक्षिप्ति या साइकोसिस (जैसे स्कीजोफ्रीनिया, उन्माद, अवसाद इत्यादि), व्यक्तित्व रोग, मदिरापान, मंदबुद्धि, मिर्गी इत्यादि रोग उन लोगों में अधिक पाये जाते हैं, जिनके परिवार का कोई सदस्य इनसे पीड़ित हों तो संतान को इनका खतरा लगभग दोगुना हो जाता है।

शारीरिक गठन

स्थूल (मोटे) व्यक्तियों में भावात्मक रोग (उन्माद, अवसाद या उदासी इत्यादि), हिस्टीरिया, हृदय रोग इत्यादि अधिक होते हैं जबकि लंबे एवं दुबले गठन वाले व्यक्तियों में विखंडित मनस्कता (स्कीजोफ्रीनिया), तनाव, व्यक्तित्व रोग अधिक पाये जाते हैं।

व्यक्तित्व

अपने में खोये हुए, चुप रहने वाले, कम मित्र रखने वाले किताबी-कीड़े जैसे गुण वाले, स्कीजायड व्यक्तित्व वाले लोगों में स्कीजोफ्रीनिया अधिक होता है, जबकि अनुशासित तथा सफाई पसंद, समयनिष्ठ, मितव्ययी जैसे गुणों वाले खपती व्यक्तित्व के लोगों में खपत रोग (बाध्य विक्षिप्त) अधिक पाया जाता है।

शरीरवृत्तिक कारण

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किशोरावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था, गर्भ-धारण जैसे शारीरिक परिवर्तन कई मनोरोगों का आधार बन सकते हैं।

वातावरण जनित कारण

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शारीरिक खान-पान संबंधी कारण

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कुछ दवाओं, रासायनिक तत्वों, धातुओं, मदिरा तथा अन्य मादक पदार्थों इत्यादि का सेवन मनोरोगों की उत्पत्ति का कारण बन सकता हैं।

मनोवैज्ञानिक कारण

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आपसी संबंधों में तनाव, किसी प्रिय व्यक्ति की मृत्यु, सम्मान को ठेस, कार्य को खो बैठना, आर्थिक हानि, विवाह, तलाक, शिशु जन्म, कार्य-निवृत्ति, परीक्षा या प्यार में असफलता इत्यादि भी मनोरोगों को उत्पन्न करने या बढ़ाने में योगदान देते हैं।

सामाजिक-सांस्कृतिक कारण

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सामाजिक एवं मनोरंजक गतिविधियों से दुराव, अकेलापन, राजनीतिक, प्राकृतिक या सामाजिक दुर्घटनाएं (जैसे कि लूटमार, आतंक, भूकंप, अकाल, बाढ़, सामाजिक बोध एवं अवरोध, महंगाई, बेरोजगारी इत्यादि) मनोरोग उत्पन्न कर सकते हैं।

  • मनोरोग चिकित्सक द्वारा दवाएं बतायी गई हैं तो इनका सेवन अवश्य करना चाहिए।
  • दूसरी बीमारियों की तरह यह रोग भी आंतरिक स्तर पर जैविक असंतुलन की वजह से होता है।
  • निगरानी में दवाएं लेना कारगर होता है, अब तो नई दवाओं के उपलब्ध होने के बाद लंबी अवधि तक दवाएं लेने के मामले कम हो रहे हैं।
  • दवाओं के सेवन से मनोविकारों में काफी कमी होती है, खासतौर से तब जबकि इलाज शुरूआती चरण में आरंभ हो जाए।
  • मनोविकारों के उपचार में दी जाने वाली दवाएं रासायनिक असंतुलन को बहाल करती हैं, कुछ दवाओं से नींद आती है लेकिन वे नींद की गोलियां नहीं होतीं।
  • अवसाद जैसे मनोविकार भी मधुमेह या उच्च रक्तचाप की तरह के रोग ही होते हैं और इनके लिए भी विषेशज्ञ की देखरेख में इलाज कराने की आवश्यकता होती है।

गलत धारणाएं

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मानसिक रोग या पागलपन एक ऐसा शब्द है जिससे इसके कारणों एवं उपचार के विषय में न जाने कितनी भ्रांतियाँ एवं आशंकाएँ जुड़ी हैं। कुछ लोग इसे एक असाध्य, आनुवांशिक एवं छूत की बीमारी मानते हैं, तो कुछ जादू-टोना, भूत-प्रेत व डायन का प्रकोप। कुछ लोग इसे बीमारी न मानकर जिम्मेदारियों से बचने का नाटक मात्र भी मानते हैं।

अज्ञानी लोग उपचार के लिए स्थानीय या नजदीक ओझा, पंडित, मुल्ला आदि के पास जाकर अनावश्यक भभूत, जड़ी-बूटी का सेवन करते हैं तथा अमानवीय ढ़ंग से सताये जाते हैं ताकि 'पिशाचात्मा' का प्रकोप दूर किया जा सके।

यह सब गलत है। सही धारणा यह है कि यह बीमारी है और वैज्ञानिक ढंग से चिकित्सा विज्ञान द्वारा इसका इलाज संभव है। ये भी सही नहीं है कि-

  • मानसिक विकार कोई रोग नहीं हैं बल्कि बुरी आत्माओं की वजह से पैदा होते हैं।
  • दवाओं के सेवन से बचना चाहिए।
  • आपको यह रोग अपनी कमजोरी से हुआ है और इससे बचाव करना चाहिए।
  • दवाएं नुकसानदायक होती हैं, ये निर्भरता बढ़ाती हैं और जीवनभर लेनी पड़ती हैं।
  • ज्यादातर मनोविकारों का कोई इलाज नहीं होता।
  • बच्चों को दवाएं नहीं दी जानी चाहिए।
  • इलाज के लिए नींद की गोलियां दी जाती हैं।
  • अवसाद जैसे मर्ज अपने आप ठीक होते हैं या प्रभावित व्यक्ति के प्रयासों से।
  • देवी देवताओं या झाड़फूंक से रोग सही हो सकता है।

आयुर्वेद के अनुसार मानस रोग

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रजस्तमश्च मानसौ दोषौ । तयोर्विकाराः कामक्रोधलोभमोहेर्ष्यामानमदशोकचित्तो(न्तो)द्वेगभयहर्षादयः । ()
रज और तम ये दो मानस दोष हैं । इनकी विकृति से होने वाले विकार (रोग) काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, मान, मद, शोक, चिन्ता, उद्वेग, भय, हर्ष, विषाद, अभ्यसूया, दैन्य, मात्सयर और दम्भ हैं ।
मानस रोग-

१. काम- इन्द्रियों के विषय में अधिक आसक्ति रखना 'काम' कहलाता है ।

२. क्रोध- दूसरे के अहित की प्रवृत्ति जिसके द्वारा मन और शरीर भी पीड़ित हो उसे क्रोध कहते हैं ।

३. लोभ- दूसरे के धन, स्त्री आदि के ग्रहण की अभिलाषा को लोभ कहते हैं ।

४. ईर्ष्या- दूसरे की सम्पत्ति-समृद्धि को सहन न कर सकने को ईर्ष्या कहते हैं ।

५. अभ्यसूया- छिद्रान्वेषण के स्वभाव के कारण दूसरे के गुणों को भी दोष बताना अभ्यसूया या असूया कहते हैं ।

६. मात्सर्य- दूसरे के गुणों को प्रकट न करना अथवा कू्ररता दिखाना 'मात्सर्य' कहलाता है ।

७. मोह- अज्ञान या मिथ्या ज्ञान (विपरीत ज्ञान) को मोह कहते हैं ।

८. मान- अपने गुणों को अधिक मानना और दूसरे के गुणों का हीन दृष्टि से देखना 'मान' कहलाता है ।

९. मद- मान की बढ़ी हुई अवस्था 'मद' कहलाती है ।

१०. दम्भ- जो गुण, कमर् और स्वभाव अपने में विद्यमान न हों, उन्हें उजागरकर दूसरों को ठगना 'दम्भ' कहलाता है ।

११. शोक- पुत्र आदि इष्ट वस्तुओं के वियोग होने से चित्त में जो उद्वेग होता है, उसे शोक कहते हैं ।

१२. चिन्ता- किसी वस्तु का अत्यधिक ध्यान करना 'चिन्ता' कहलाता है ।

१३. उद्वेग- समय पर उचित उपाय न सूझने से जो घबराहट होती है उसे 'उद्वेग' कहते हैं ।

१४. भय- अन्य आपत्ति जनक वस्तुओं से डरना 'भय' कहलाता है ।

१५. हर्ष- प्रसन्नता या बिना किसी कारण के अन्य व्यक्ति की हानि किए बिना अथवा सत्कर्म करके मन में प्रसन्नता का अनुभव करना हषर् कहलाता है ।

१६. विषाद- कार्य में सफलता न मिलने के भय से कार्य के प्रति साद या अवसाद-अप्रवृत्ति की भावना 'विषाद' कहलाता है ।

१७. दैन्य- मन का दब जाना- अथार्त् साहस और धर्य खो बैठना दैन्य कहलाता है ।

ये सब मानस रोग 'इच्छा' और 'द्वेष' के भेद से दो भागों में विभक्त किये जा सकते हैं । किसी वस्तु (अथर्) के प्रति अत्यधिक अभिलाषा का नाम 'इच्छा' या 'राग' है । यह नाना वस्तुओं और न्यूनाधिकता के आधार पर भिन्न-भिन्न होती है ।

हर्ष, शोक, दैन्य, काम, लोभ आदि इच्छा के ही दो भेद हैं । अनिच्छित वस्तु के प्रति अप्रीति या अरुचि को द्वेष कहते हैं । वह नाना वस्तुओं पर आश्रत और नाना प्रकार का होता है । क्रोध, भय, विषाद, ईर्ष्या, असूया, मात्सर्य आदि द्वेष के ही भेद हैं ।

सन्दर्भ

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  1. असाध्य नहीं मनोरोग Archived 2009-10-10 at the वेबैक मशीन। हिन्दुस्तान लाइव।(हिन्दी)७ अक्टूबर, २००९। डॉ॰ गौरव गुप्ता

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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