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सौर घड़ी

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क्षैतिज सौर घड़ी मिनेसोटा में। १७ जून १२:२१ बजे, ४४°५१′३९.३″उ, ९३°३६′५८.४″प.

सौर घड़ी का प्रयोग सूर्य की दिशा से समय का ज्ञान करने के लिए किया जाता था। इन घड़ियों की कार्यशैली और क्षमता दिन के समय तक सीमित होती थी क्योंकि यह रात के समय काम नहीं कर पाती थीं। इसके फिर भी विश्व में समय जानने हेतु सबसे पहले इनका प्रयोग किया गया था। इन्हीं घड़ियों को आधार बनाकर समय बताने वाली अन्य घड़ियों का आविष्कार हुआ था।[1] भारत में प्राचीन वैदिक काल से सौर घड़ियों का प्रयोग होता रहा है। सूर्य सिद्धांत में सौर घड़ी द्वारा समय मापन के शुद्ध तरीके अध्याय 3 और 13 में वर्णित हैं।

आरंभिक सौर घड़ियां सुबह और दोपहर में ही काम करती थीं। इन घड़ियों की निर्माण विधि में एक बड़े स्तंभ को एक सिरे से बांधकर जमीन में गाड़ दिया जाता था और सूर्य के घूमने के साथ-साथ जमीन पर पड़ी स्तंभ की छाया से समय का अनुमान लगाया जाता था। मध्यान्ह के समय स्तंभ की छाया सबसे छोटी होती थी जिससे पता चलता था कि सूर्य ठीक आकाश के बीच में स्थित है। पश्चिमी एशिया और मिस्र की सभ्यताओं में ऐसी घड़ियों का बहुत प्रयोग किया जाता था।[1] इसके बाद आविष्कारकर्ताओं ने और कई प्रकार की घड़ियों का निर्माण किया जिससे दिन के समय को कई प्रहरों में बांटा जा सकता था, हालांकि, वह प्रहर आज के घंटों से कुछ लंबे होते थे। कई सभ्यताओं में ऋतुओं के अनुसार सौर घड़ियां समय बताने लगी और कई स्थानों पर तो वे दिन और रात की बराबर लंबाइयों जैसे दुर्लभ दिनों का भी ज्ञान कराती थीं।

कई संस्कृतियों में मानवीय सौर घड़ियां भी बनीं जिसमें एक व्यक्ति एक निश्चित स्थान पर खड़ा होता था और अपनी परछाईं के बदलते आकार से समय का पता लगाता था। सौर घड़ियों के सही काम करने के लिए यह आवश्यक होता था कि उन्हें सही स्थानों पर स्थापित किया जाए। विश्व के अलग-अलग स्थानों पर एक ही समय पर सूर्य भिन्न दिशाओं में होता था, इसलिए सूर्य की दिशा के अनुसार घड़ियों को स्थापित करना होता था।[1] इसका एक तरीका यह है कि सौर घड़ी को इस तरह स्थापित किया जाए कि सूर्य के ठीक आकाश के बीच में होने पर परछाई बिल्कुल सीधी दिखे।

चित्र दीर्घा

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सन्दर्भ

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  1. सौर घड़ी Archived 2010-04-07 at the वेबैक मशीन। हिन्दुस्तान लाइव। 28 मार्च

बाहरी कड़ियाँ

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