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Friday, October 24, 2008

अब तार नहीं आते हैं बस तार बाबू आता है

तार, अरे भाई टेलीग्राम,
जो जैमिनी की पुरानी
काली-सफेद फिल्मों
और दूरदर्शन के

सीरियलों में अब
भी दिख जाता है।



दीपावली आ रही, त्यौहार के 4 दिन पहले से लेकर 4 दिन बाद तक इनाम मांगने वालों की भीड़ लगी रहेगी। चंद्रयान के युग में भी हमेशा डेड रहने वाले बीएसएनएल के लैंडलाइन फोन वाला लाइनमैन आएगा, बत्ती गुल हो जाने पर कभी भी फोन ना उठाने वाले बिजली कर्मचारी आएंगे, रोज़ आधा कचरा डिब्बे में ही छोड़ जाने वाला सफाई कर्मचारी आएगा, रात को दफ्तर से लौटने पर हमेशा सोता नज़र आने वाला सोसायटी का चौकीदार आएगा और मुहल्ले भर की चिट्ठियां एक ही घर में पटक जाने वाला डाकिया भी खींसे निपोरते हुए घंटी बजाएगा। सब आएंगे, साल भर के ताने एक दिन में सुनेंगे फिर पचास का नोट लगभग हाथ से छीनने के अंदाज़ में जेब में ठूंसेंगे और मुस्कराते हुए चले जाएंगे, मानो कह रहे हों देखा कैसा बनाया, साले को।

लेकिन इन सामाजिक झपटमारों की भीड़ में मुझे लुटने के लिये सबसे ज़्यादा इंतज़ार रहता है तार बाबू का। तार बाबू यानी वो कर्मचारी जो तार लाता था। अब तार तो नहीं आते हैं लेकिन कुछ इलाकों में दीपावली के मौके पर तार बाबू ज़रूर नज़राना लेने आते हैं। जो कम उम्र के हों उनको बता दूं कि आजकल जो छोटे मोटे संदेश एसएमएस से भेजे जाते हैं ना वो पहले तार से भेजे जाते थे। हर शहर में एक तारघर होता था। खाकी वर्दी पहने, खाकी टोपी लगाये हेडलाइट वाली साइकिल पर घंटी बजाते हुए आने वाले तारबाबू को आते देखते ही आम लोग सहम जाते थे और फौजी खुश हो जाते थे। मोहल्ले में दहशत फैल जाती थी कि पता नहीं किसके बाबू जी या अम्मा जी चल बसे। लेकिन फौजियों के लिये घर से आने वाला अम्मा-बाबू की बीमारी तार छुट्टी मिलने की गारंटी होता था, शायद अब भी होता हो। हमारे गांव के कई फौजी तो जब छुट्टी में गांव आते थे तो घर के कामकाज के हिसाब से अगली छुट्टी के लिये तारीख तय करके तार भेजने के लिये मजमून भी लिखवा जाते थे। तय तारीख को उनके लिये तार होता था, तार पहुंचता था और और फौजी गांव भर के लिये कैंटीन से मंगाई रम, मच्छरदानी, एचएमटी की घड़ी, टॉर्च, रब़ड़ की चप्पलें और अफगान स्नो की चार शीशियां लेकर हाज़िर हो जाता था। तार झूठ को विश्वसनीयता में बदलने की ही नहीं तेजी की भी गारंटी था। लैंब्रेटा और फिएट के उस युग में भी आज की स्पीड पोस्ट से जल्दी तार पहुंचते थे। चाहे उत्तर-पूरब में बसा नेफा हो या जैसलमैर में रेत के टीलों के बीच नज़र ना आने वाली सीमा सुरक्षा बल की चौकी हो, जम्मू-कश्मीर की बर्फ में गश्त लगाते सैनिक हों या समंदर की पहरेदार करते कोस्ट गार्ड, दूसरे विश्व युद्ध के वक्त की बनी मशीनों से तार झट से पहुंचता था। तेजी का आलम ये था कि 10 पैसे के पोस्टकार्ड पर चिट्ठी को ही तार का रूप देने के लिये अम्मा नीचे एक लाइन जुड़वा देती थीं, इसे चिट्ठी नहीं तार समझना और मिलते ही बच्चों के साथ चले आना।

बाद में खुशी के भी तार आने लगे, नौकरी मिलने के, शादी होने के बेटा होने के, अपने मकान में जाने के, तरक्की होने के वगैरह-वगैरह। लेकिन अब तो कोई तार नहीं आता। मुझे तो 22 साल पहले आखिरी तार मिला था, नौकरी मिलने का। जिसके जवाब में मैनें भी तार किया था। उसके बाद दो-तीन साल तक तार से आने वाली खबरें बनाता रहा और एक दिन अचानक वो तार गायब हो गये और उनकी जगह फैक्स ने ले ली। कुछ पुरानी पत्रिकाओं और सरकारी दफ्तरों की स्टेशनरी में आपको अब भी तार का पता मिल जायेगा लेकिन तारघर ढूंढे नहीं मिलेगा। पहले हर शहर में टाउनहाल, घंटाघर, गांधी रोड की तरह एक तारघर भी होता था। लेकिन ना अब टाउन हाल रहे ना घंटाघर और ना ही तारघर। लेकिन होली और दीपावली के वक्त दिखने वाला तारबाबू अभी है। मुझे बाकी लोगों की तरह तारबाबू को बख्शीश देना नहीं खटकता। बल्कि मैं चाहता हूं कि वो आये मैं उसके साथ बैठकर चाय पीऊं और उन दिनों के बारे में जानूं जो उसने जिये हैं। अब तो मैं हर होली-दीपावली बड़ी शिद्दत से उसका इंतज़ार करता हूं कि क्योंकि मुझे पता है कि अब वो कोई बुरी खबर नहीं लाता है। अब वो हमारे लिये तेजी से गुजरते समय में उन सुस्त रफ्तार दिनों के इतिहास का हरकारा है जिन्हे हमने जिया है।

तकनीकी सहयोग- शैलेश भारतवासी

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