रविवार, 14 फ़रवरी 2016

157. चण्डोला


       कुछ दिनों पहले छुट्टी के दिन घूमते हुए चण्डोला पहाड़ की तरफ निकल गया था
       दरअसल, बरहरवा राजमहल की पहाड़ियों की जिस श्रेणी की तलहटी में बसा है, उसके अलग-अलग हिस्सों के अलग-अलग नाम हैं। बचपन में हमलोग बोरना और घोड़ाघाटी पहाड़ जाया करते थे- चकमक पत्थरों की खोज में। चण्डोला पहाड़ दिग्घी की तरफ है, जो बरहरवा से तीन किलोमीटर दूर है। नाम हमने बहुत सुना था उसका, पर कभी गये नहीं थे उस तरफ। उस जमाने में (तब झारखण्ड बिहार से अलग नहीं हुआ था) चण्डोला पहाड़ पर सरकारी खदान हुआ करता था- पत्थरों का। आज भी तीन-चार भवन, गोदाम इत्यादि वहाँ तलहटी में नजर आते हैं- खण्डहर के रुप में।
       दो साल पहले जयचाँद के साथ गया था चण्डोला पहाड़। काफी देर घूमे थे हम।
       पिछले दिनों अकेला ही गया। बड़ा दिग्घी गाँव से भी गुजरा, जो कि एक सन्थाली गाँव है। अभी कुछ रोज पहले 'मिट्टी की झोपड़ी' शीर्षक से एक पोस्ट लिखा था। उसी की अगली कड़ी के रुप में यह देखना चाहता था कि ये झोपड़ियाँ बनती कैसे हैं। वैसे, अपने इलाके में भी घोड़ाघाटी या बोरना पहाड़ की तरफ जाते हुए इसे देखा जा सकता था, पर क्या मन में आया, दिग्घी की तरफ ही निकल गया था।
       जो कुछ देखा, उसे आप भी तस्वीरों में देख सकते हैं, मगर पहाड़ियों की बिलकुल तलहटी में पहुँचने के बाद जो अनुभव होता है, उसका अनुभव आपको नहीं करा सकता। ऐसे इलाकों में एक अजीब-सा सन्नाटा पसरा हुआ रहता है, जिसे सिर्फ चिड़ियों की आवाजें तोड़ती हैं। बाकी कहीं कोई ध्वनि नहीं होती। ऐसा लगता है, अपनी दुनिया से कहीं दूर निकल आये हैं हम! कभी-कभी तो ऐसा लगता है, इस सन्नाटे की भी अपनी तरंगे हैं, जो कानों से टकरा रही हैं...    
       पता नहीं, हममें से कितनों के नसीब में ऐसा सुख लिखा है कि अपने रिहायशी इलाके से थोड़ा-सा इधर-उधर जाते ही प्रकृति की गोद में पहुँचने का आनन्द मिल जाय...

       इस मामले में हम तो भाग्यशाली हैं, इसमें कोई शक नहीं है। अब जिन्हें प्रकृति से कोई मतलब ही नहीं है, जो ऋतु-परिवर्तन की गन्ध को महसूस ही नहीं कर सकते, उनकी बात अलग है।






















156. जो छूट गया था...

बीते दिसम्बर-जनवरी में दो पिकनिक स्पॉट में जाना हुआ था, जिनका जिक्र फेसबुक पर तो हो गया था, मगर सोचा कि ब्लॉग पर भी उनका जिक्र रहना चाहिए, सो अभी कुछ पोस्ट कर रहा हूँ.
मसानजोर
दुमका से कोई 40 किलोमीटर दूर यह बाँध है- सिउड़ी जाने वाले मार्ग पर. बहुत ही खूबसूरत जगह है. 
मैं यहाँ कुछ तस्वीरें पोस्ट कर रहा हूँ-

भतीजी 'छोटी' उर्फ सन्तोषिनी 


मैं 

श्रीमतीजी 


अभिमन्यु कजिन टारजू (शन्तनु) के साथ 

पतौड़ा झील 
हमारे बरहरवा से कोई 15 किमी दूर एक कस्बा है- उधवा (मोकामा-फरक्का NH-80 पर). 
बरहरवा से राजमहल जाते वक्त यह कस्बा करीब बीच में पड़ता है. 
कस्बे से कुछ पहले ही मुख्य सड़क से जरा हटकर एक झील है, जिसे "पतौड़ा" झील कहते हैं. 
शीत ऋतु में यहाँ प्रवासी पक्षियों का आगमन होता है. सो, इसे पक्षी-अभयारण्य का रुप दे दिया है. 
यह और बात है इस इलाके में न कोई पर्यावरणप्रेमी बसता है, न ही पक्षीप्रेमी. न किसी के पास टेली-लेन्स वाला कैमरा है, न दूरबीन. 
ऊपर से, स्थानीय निवासियों के लिए झील में मत्स्याखेट और किनारों पर खेती ज्यादा मायने रखता है. 
जो "पिकनिक" मनाने आते हैं, वे आस-पास की वादियों में गन्दगी फैलाकर चले जाते हैं- हमने भी यही किया. मन तो कर रहा था कि अकेले ही सफाई में जुट जाऊँ, पर लगा यह कुछ अटपटा लगेगा... सो मन मारकर रह गया. 
खैर, कुछ तस्वीरें प्रस्तुत कर रहा हूँ- शायद आपको अच्छी लगे. हालाँकि हल्के कोहरे के कारण क्षितिज की पहाड़ियाँ स्पष्ट नहीं नजर आ रहीं...








सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

155. जीवाश्म!


       दोनों चित्रों में जो पत्थर दिख रहा है, वह सम्भवतः "जीवाश्म" है। जीवाश्म भी ऐसा-वैसा नहीं, किसी डायनासोर की हड्डी का!
       यह पत्थर मेरे पास सालभर से ज्यादा समय से रखा हुआ है; ये दोनों चित्र भी कम्प्यूटर के मेरे 'ड्राइव' में लम्बे समय से पड़े हैं; मगर इनपर लिखने का मुहुर्त निकल ही नहीं रहा था। आज पता नहीं कैसे, इस पर लिख रहा हूँ।
       आप सोचेंगे यह भला मुझे कैसे मिल गया? थोड़ा-सा धीरज रखिये, सिरे से बताता हूँ।
       हमारे सन्थाल-परगना में जो राजमहल की पहाड़ियाँ हैं, उनके बारे में कहा जाता है कि ये "जुरासिक काल" की हैं- यानि करोड़ों साल पुरानी। जाहिर है, यहाँ कभी डायनासोर या उस-जैसे  विशालकाय प्राणी भी रहते होंगे। आज उन प्राणियों की बची-खुची हड्डियाँ पत्थरों में तब्दील हो चुकी होंगी। अँग्रेजों के जमाने से ही यहाँ पत्थर-खनन का व्यवसाय चल रहा है। पिछले कुछ दशकों में खनन का यह व्यवसाय अन्धाधुन्ध तरीके से चल रहा है। इस लूट में सभी शामिल हैं- ऊपर से नीचे तक। एक न्यायाधीश महोदय ने थोड़ी-सी रुची क्या दिखायी इस अवैध व्यवसाय को नियंत्रित करने में, उनका तबादला ही हो गया!
       खैर, तो ज्यादातर जीवाश्म पत्थरों के रुप में यहाँ से निकलते जा रहे हैं; फिर भी, साहेबगंज जिले के मँडरो नामक स्थान में एक इलाके को जीवाश्म (फ़ॉसिल) पार्क के रुप में चिह्नित कर दिया गया है। मैंने उस मँडरो नामक स्थान से मात्र पाँच किलोमीटर इधर एक कस्बे में प्रायः दो साल तक जाना-आना किया, मगर अफसोस, कि उस फॉसिल पार्क को देखने कभी नहीं गया!
       मैं जहाँ जाता था, उस स्थान का नाम भगैया है। यहाँ तशर (रेशम) के कपड़े की बुनायी का काम अच्छे-खासे पैमाने पर होता है। कभी इस पर भी लिखने का मुहुर्त निकलेगा- क्योंकि इस कुटीर उद्योग से जुड़ी कई तस्वीरें मेरे पास पड़ी हुई हैं।
       खैर, तो भगैया के ही प्रवीण जी ने एक रोज दफ्तर में अचानक पत्थर का यह टुकड़ा मेरे सामने रख दिया था और मुस्कुराते हुए पूछा था, "बताईये तो यह क्या है?"
       मैंने कई बार अखबारों में मँडरो के फॉसिल पार्क के बारे में पढ़ा था। सो, मैंने अनुमान लगाया कि जरुर यह उसी पार्क से लाया गया पत्थर होगा और मैंने इत्मीनान से उत्तर दिया- "डायनासोर की हड्डी!"
       प्रवीण जी ने समर्थन किया और बताया कि अब वहाँ घेरेबन्दी कर दी गयी है और अब वहाँ से कोई ऐसे पत्थर उठाकर नहीं ला सकता।
       पत्थर बहुत दिनों तक मेरे पास पड़ा रहा। एक दिन मैंने अभिमन्यु से तस्वीर खींचने को कहा। उसने कहा क्या करना है इस पत्थर की तस्वीर का। तब मैंने उसे बताया कि यह पत्थर किसी डायनासोर का जीवाश्म हो सकता है... । वह रोमांचित हो गया। फिर उसने गहराई से निरीक्षण किया और समर्थन किया कि हाँ, यह जीवाश्म ही है!

       खैर, बढ़िया आलेख तो नहीं ही बन सका, जैसा भी बना, उसे लिखकर आज प्रस्तुत कर रहा हूँ।