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8 जून 2020

बुरे दिनों में ईश्वर

बचपन में 

बहुत मानता था ईश्वर को

पढ़ते हुए भी कभी नहीं छोड़ा उसे

शालिग्राम की बटिया को कराता था स्नान 

और कंठस्थ कर लिया था सुंदरकांड 

सुनता था साधुओं के मुख से निकले ब्रह्म-स्वर

और आनंदित थास्व-धर्ममें चलते हुए।


तब कभी जब डर लगता

रात में गाँव वाले पीपल के पास से गुजरते हुए

तो जपने लगता हनुमान चालीसा 

भूत भी भागते थे सरपट 

बिना किसी लाठी या डंडे से मारे 

ईश्वर ही मेरे लिए सरकार थी।


और अंततः एक दिन बड़ा हुआ 

पढ़-लिखकर समझदार और आत्म-निर्भर बना

ईश्वर को धर दिया था कहीं दूर 

अब डरता था किसी से

झुकता था किसी ईश्वर के सामने 

स्कूल में जब बच्चों को पढ़ाता कबीर को 

तब हँसता था उसकी हाज़िरी पर 

बिना यह जाने कि ईश्वर भी हँसता होगा 

हमारी मूढ़ता और अलपज्ञता पर

हम रोज़ बढ़ रहे थे नास्तिकता की ओर

अक्सर रहते थे नाराज़ सरकार से 

 कि जाने क्यों

शिक्षालय और हस्पतालों के बदले 

वह बनवाती है देवालय 

और स्थापित करती है मूर्तियाँ


उसकी दूरंदेशी तब समझ आई

जब मौत से भी अधिक डराने लगी महामारी


सरकार दूरदर्शन पर रोज़ आने लगी

बंद पड़ा रेडियो चल पड़ा

घरबंदीमें जब सब कुछ बंद था

चुपके से घर में गया था ईश्वर

मानो सारी सत्ता के साथ हमें भी सौंप दिया हो उसे 

चूँकि ईश्वर ख़ुद नहीं बोलता

तो स्वयं बोली सरकार 

तुम्हें कुछ नहीं होगा 

हम हैं तुम्हारे साथ आख़िरी वक़्त तक 

बस तुम हौसला बनाए रखो इस पैकेज के साथ।

हमने बजाईं तालियाँ इस पर

लट्टू हो गया था सरकार की उदारता पर


पर उस हौसले को सबसे पहले उसने ही छोड़ा

फिर छोड़ दिया मज़दूरों को उनके हाल पर

आत्माओं को रौंदती रहीं सड़कें

हम फिर भी बचे रहे

रुक-रुक कर थाली पीटते रहे

फिर यकायक एक दिन

उसने विज्ञापन में बताया कि सब कुछ ठीक होगा

ईश्वर पर भरोसा रखो

और उसने खोल दिए सभी देवालयों के कपाट

 बंद करके ज़िंदगी का आख़िरी रोशनदान

और हमें धकेल दिया फिर से उसी ईश्वर के पास

जिसे हम समझदार होने से ऐन पहले

छोड़ आए थे पाखंड और प्रपंच की तरह 

फिर से उसका आह्वान आरंभ किया है 

कर रहा हूँ पुनर्पाठ चौपाई और मंत्रों का

फ़िलवक्त कबीर को रख दिया हैहोल्डपर 

भूल चुका हूँ पुराने पाठ और तर्क

जान चुका हूँ असली सरकार कौन है

भले ही बोलता नहीं है ईश्वर

पर ध्यान से सुनता तो है हमारी


हमें फिर से ईश्वर के हँसने की आवाज़ सुनाई दे रही है !


संतोष त्रिवेदी 

०८/०६/२०२०













24 सितंबर 2019

जीडीपी बादरु फारे है !

सोना नींद हराम केहे
रुपिया ख़ूनु निकारे है।
बड़की बातैं सब हवा हुईं,
जीडीपी बादरु फारे है।

गै लूटि तिजोरी बंकन कै
खीसा पूरा अउ झारि दिहेन
बैपारी पैकेज चाँटि रहे,
लरिकउना पेटु उघारे है।

करिया-धनु एकदम गा बिलाय
अब तौ बिकास चुचुहाय रहा।
टिलियन डॉलर बसि आवति हैं
निम्मो दीदी समुझाय कहा।

रोज़ी-रुजगार का पूछो ना
बैलवा काँधु अब डारि दिहिसि।
काटु करै अब कउनि दवा
यहु मंदी जानु निकारे है !

जब ते तीन तलाक़ गवा,
कश्मीरौ ‘धारा’ छाँड़ि दिहिसि
अमरीका की धरतिउ ते अब
ज्वानु हमा ललकारे है।

तब ते संतोषु केहे हरिया
दुखु वहिका माटी होइगा।
देशभक्ति की चढ़ी बाढ़ मा
कउनो मुलु पाथर बोइगा।।

-संतोष त्रिवेदी

26 अगस्त 2019

ग़ज़ल

 कुछ जुमले थे कुछ नारे थे

वो ईश्वर के हरकारे थे। 


सबका विकास, सब साथ रहें 

लगते केवल जयकारे थे। 


बज रहा रेडियो हर हफ्ते 

मन-बात नहीं अंगारे थे। 


बुलेट ट्रेन सरपट दौड़ी

कुचले किसान बेचारे थे।


रोज़ी-रोटी नहीं चाहिए 

ये तो धरम के मारे थे।


बदले वक्त में वो भी बदले 

जो आँखों के तारे थे। 


©संतोष त्रिवेदी

30 अगस्त 2017

तनि ईसुर ते तरे रहौ !

मन की बातैं तुम केहे रहौ,
लोटिया,थरिया सब बिने रहौ।
पबलिक झूमि रही तुम पर
वहिका अफ़ीम तुम देहे रहौ।

देस भरे मा आगि लागि है,
लेकिन भागि तुम्हारि जागि है।
गाइ का ग्वाबरु बना मिसाइल
देखतै दुस्मन फ़ौज भागि है।

बाबा,गोरू अउ बैपारी
मौज उड़ावति हैं सरकारी,
गुंडा डंडा लइ दउरावैं
थर थर काँपैं खद्दरधारी।

पबलिक तुम्हारि, तुम पबलिक के
हरदम वहिका तुम छरे रहौ।
मरैं किसान,जवान मरैं
बातै खाली तुम बरे रहौ।

कोरट ऊपर शाह बइठि गे
क़ानूनौ का चरे रहौ।
गाँधी,नेहरू पीछे होइगे
तनि ईसुर ते तरे रहौ।


(लालकुआँ से कानपुर के रास्ते बस में )
२७ अगस्त २०१७

15 अगस्त 2016

हमका माफ़ करौ तुम गाँधी !

भटकैं कुप्पी लेहे तेवारी
नेतन के घर रोजु देवारी

जसन मनावैं पहिने खादी।
अइसी भली मिली आज़ादी।।
हमका माफ़ करौ तुम गाँधी।

चिंदी चिंदी बदन होइ गवा
दूधु सुड़क गा मोटा पिलवा
देस मा बांदर खूब बाढ़ि गे,
टुकुर टुकुर तकि रहे लरिकवा।।

अफसर,नेता काटैं चाँदी।
अइसी भली मिली आजादी।।
हमका माफ़ करौ तुम गाँधी।।

दालि-भातु सब दूभर होइगा
ख्यातन मा कोउ पाथर बोइगा
बूड़ा, सूखा कबौ न छ् वाड़ै,


मरैं भरोसे पीटैं छाती।
अइसी भली मिली आजादी।।
हमका माफ़ करौ तुम गाँधी।।

19 अप्रैल 2015

तुम सोये हुए हो !

तुम सो गए हो
पर मेरी आँखों में नींद नहीं है।
मै अकेला नहीं हूँ फिर भी,
मेरे साथ चल रहे हैं रास्ते
खेत, नदी और जंगल।
तुम आ गए हो
पर बहुत कुछ रुका हुआ है अभी
खेत में कटी फसल
और अकेले खड़ा बिजूका,
घर में ताकती दो आँखें
थिर हो गई हैं मेरे साथ ही।
तुम घूम आए हो,
सात समंदर की सैर करके
मैं भी घूम रहा हूँ
धरती की धुरी के साथ-साथ
पर पूरा नहीं होता दिन
और गिर जाता हूँ चकरघिन्नी खाकर।
तुम नाचते-गाते हो,
यहाँ-वहाँ हाथ हिलाकर
तुम्हारे कटोरे में गिरते हैं
छन्न से डाॅलर,
चमकते हो 'टाइम' में अंकल सैम के साथ।
मैं बदहवासी के आलम में
मुट्ठी भर जमीन लिए
इधर-उधर भागता हूँ
हाथ में बचे हैं बस गुल्लक के पैसे
चुन्नू, मुनिया और उसकी अम्मा।
ये सब जाग रहे हैं मेरे साथ
आधी रात के बाद
आसमान में बचे तारे और दूर जाता चाँद।
कुछ लोग कहते हैं 'टाइम' खोटा है अभी
सो जाओ तुम भी गहरी नींद में,
पर हम जागे हुए हैं
सूरज निकलने के इंतजार में,
और हमारे साथ बची हुई हमारी आत्मा।




..... पटरियों पर धड़धडा़ती जाती श्रमशक्ति एक्सप्रेस, समय आधी रात के बाद का, इटावा के आसपास।तारीख...१७ अप्रैल २०१५

5 जून 2014

जेठ दुपहरी !

तपती दुपहर में
सूरज से बचकर
हम लुके बैठे हैं किसी कोने-अतरे में,
हरिया आज भी
बैलों की गोईं लिए
सूखी धरती का फाड़ रहा है सीना,
माटी के ढेलों-से
दरक रहे हैं उसके स्वप्न,
स्याह और खुरदुरी देह ने
सोख लिया है उसका पसीना !





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यूँ ही

नहीं भूला तुम्हें,हर पल हमें तुम याद आते हो।
हम नहीं कहते किसी से,तुम मगर सबको बताते हो।।






 

15 अप्रैल 2014

मैं भी लिखूँगा किताब ....!


मैं भी लिखूँगा किताब
और नोच लूँगा एक झटके में सारे नकाब
उतार दूँगा खाल उसकी
पर इससे पहले उसे
मौन तो होने दो
मुर्दा होगा तो सहूलियत होगी नोचने में
बन जाऊँगा एक झटके में लेखक
और हाथ में दाम के साथ आएगा काम भी.
क्या कहते हो,क्या लिखूँगा ?
तुम मूर्ख हो इतना भी नहीं मालूम
क्या लिखा है इससे ज्यादा ज़रूरी है
किस पर लिखा है,कब लिखा है,क्यों लिखा है ?
मैंने तय कर लिया है
लिखूँगा धारा के साथ
लहर से खेलते हुए
भँवर और तूफ़ान से बचते
नदी के किनारे-किनारे
कीचड़ से मिलते हुए
लिखूँगा बाढ़ और प्रलय के गीत
मनु और शतरूपा को ठेंगा दिखाते हुए
हँसूँगा विजन में सिंह की दहाड़ से डरे पशुओं पर
और छाप दूँगा उन्हें अपनी कविता के मुखपृष्ठ पर
कलम से क्रांति की अगुवाई करूँगा
करूँगा कुटम्मस एक-एक कर उनकी
जिन्होंने किया था दरकिनार मुझे
किताब लिखकर साहित्य से और उनसे
ले लूँगा बदला,भले कुछ हो जाए
क्योंकि किताब लिखने से
उसके छपने-बिकने से ही

हम लेखक बनने वाले हैं
अच्छे दिन आने वाले हैं !

25 मार्च 2014

बेमौसम की बदरी !

सबने अब हुँकार भरी है,
वही देश का प्रहरी है||



अपनी अपनी विजय पताका,
अपनी अपनी गगरी है ||



फिर से आस लगाए हम,
कब हालत ये  सुधरी है ?



गाँव,शहर वाकिफ़ उनसे ,
वाकिफ़ काशी नगरी है ||



टीका,टोपी स्वाँग सभी,
स्वर्ग से काया उतरी है ||



पंडित,मुल्ला धरम बचाते,
इतनी पाप की गठरी है ||



छँट जायेगा जल्द कुहासा,
बेमौसम की बदरी है ||






1 फ़रवरी 2014

बासंती-उन्माद !

प्यारा माह बसंत यह,फैलाता उन्माद ,
सखी झरोखे बैठ के,तड़पे प्रियतम याद,
तड़पे प्रियतम याद,नहीं आये हैं साजन,
रस्ता रही निहार,काटता है घर-आँगन,
झड़ते पत्ते-फूल,बह रही अँसुवन धारा ,
दिल में गड़ते शूल,कहाँ है उसका प्यारा ?

24 जनवरी 2014

कुछ मुकरियाँ !

अमीर खुसरो की मुकरियाँ प्रसिद्ध हैं.इनमें पहले तीन चरण में( 15-16)(15-16) मात्राएँ होती हैं,अंत में दो चरणों में 8-8.
साथ ही इसकी विशेषता है कि पढने-सुनने वाले को कुछ और अंदाज़ा मिलता है पर अंत में उत्तर उसके उलट होता है.
शुरूआती प्रयास बतौर कुछ मुकरियाँ यहाँ प्रस्तुत हैं.




1)
मंदिर वहीँ बना डालेंगे,
लाल किला चढ़ इतराएंगे,
 वादे कर कर ,फिर-फिर मुकरी !
के हो शेर ? ना हो,बकरी !


2)
छप्पन इंच दिखाए सीना,
उनने पाया एक नगीना,
पल में कर दे चिड़िया ढेर,
ऐ सखि हाथी ?ना सखि शेर !

3)सूरज बाबा आ भी जाओ,
सर्द हवा में ना ठिठुराओ,
गुलूबंद औ मफलर डाल,
के सखि मौसम  ? ना,केजरिवाल।

4)
उसके जैसा मेरा हाल,
रैन मिले हो जाऊं निहाल,
सुध-बुध खोती,दिन में मोरी,
ऐ सखि मोर ? नहीं,चकोरी !

24 नवंबर 2013

बहुत कठिन समय है साहब !

बहुत कठिन समय है साहब,

पता नहीं कब,कौन पत्रकार तरुण
और ईमानदार केजरीवाल हो जाए,

सब कुछ दांव पर है,
पता नहीं कब कोई संत आसाराम
और राजनीति साहब हो जाए !

बहुत कठिन समय है साहब,
पता नहीं
कब कोई सामाजिक योद्धा
कार्पोरेट पत्रिका का संपादक
और कोई न्यायाधीश मुजरिम बन जाए !! 

बहुत कठिन समय है साहब ,
पता नहीं कब पहरेदार लुटेरा
और चोर चौकीदार हो जाए !!

5 सितंबर 2013

अंकल सैम का अमन !

हमले की सारी तैयारियाँ हो चुकी हैं,
रुक्के हाथ में आ गए हैं,
सबकी सहमति दर्ज़ कर ली गई है,
मित्र देशों ने गरदनें हिला दी हैं
बस ,
अब अंकल सैम का हाथ
मिसाइल की बटन दबाने को बेताब है,
फिर सीरिया में धमाके के साथ शांति
और सारे संसार में चुप्पी छा जाएगी,
इस तरह दुनिया खुशहाल हो जाएगी
  

2 सितंबर 2013

बाबा के रंग अनेक !

चौदह दिन बैकुंठ में,रहे अप्सरा संग।
बाबा पूर्ण पवित्र हो,नहीं शील हो भंग।।:)


चोला ओढ़े संत का, सीख जगत को देत।
पुड़िया बेचें धरम की,जनता बनी अचेत।
जनता बनी अचेत,हो रहे हैं सब अन्धे।
नेता, बाबा संग,चलातेअपने धन्धे।
ईश्वर भी हैरान,देख मन ही मन बोला।
मनुज नहीं ये निसिचर, धारे नकली चोला।।


मुझे सहानुभूति है उस नाबालिग से
जिसने हैवानियत की मिसाल कायम की,
मुझे दया आती है उस बाबा पर
जिसने संतई पर कालिख पोत दी,
मुझे सहानुभूति है हर उस मानव से
जिसने मानवता खोकर
व्यर्थ कर दिया अपना सृजन,
नष्ट कर दिया सृष्टि की अनुपम कृति,
और करा दिया अहसास अपने बीज का।
मुझे सहानुभूति है उसके निर्माता से,...
उसके पालकों और सेवकों से,
दुनिया के सबसे गरीब और असहाय
इस समय वे ही हैं।