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23 जनवरी 2013

सावधान रहने का समय है !

सेनाएँ तैयार हैं
बदले हुए सेनापतियों के साथ
तलवारों में लगी जंग
बड़ी तेजी से गायब हो रही है
हाथों में उस्तरे हैं धार वाले
और
अस्तबल से पुराने घोड़े निकल पड़े हैं.

नए नारे बड़े पोस्टरों में
चस्पा हो गए हर जगह ,
वादों की लंबी  फेहरिश्त
और कुर्बानियों के स्मारक-आलेख  पढ़े जा रहे हैं
आम अवाम के लिए
मखमली गद्दों के नीचे
फांसी के तख्त तैयारशुद हैं
उनके काफ़िले बस्ती में घुस चुके हैं.

यह सावधान रहने का समय है
मौसम में अचानक
धुंध और कोहरा पसर चुका है
बादलों की गरज तेज है
अपने छाते साथ रखिये
ज़हर की बारिश का इमकान है !

23 दिसंबर 2012

चलो दिल्ली !


 
 
चलो दिल्ली ,चलो जनपथ, जहाँ हुक्काम बहरे हैं
हवाओं में,फिजाओं में ,जहाँ संगीन पहरे हैं.
चलाओ गोलियाँ ! छलनी हमारी छातियाँ हो जांय ,
ये आतिश बुझ नहीं सकती, हमारे ज़ख्म गहरे हैं.

तुम्हारे चैन की अब, आखिरी शब आ गई  ,
हमारा आज बिगड़ा है ,मगर सपने सुनहरे हैं.

बढ़े क़दमों ! नहीं रुकना ,बदल जायेगा मौसम ये,
नया सूरज उघाड़ेगा ,अँधेरे में जो चेहरे हैं.

 

19 दिसंबर 2012

अराजकता का जिम्मेदार कौन ?


 
जब से दिल्ली में चलती बस में बलात्कार की वारदात हुई है,संसद से लेकर सड़क पर खूब उबाल दिख रहा है। सड़क पर तो आम आदमी इस तरह के वाकयों के बार-बार होने से परेशान होकर निकल पड़ा और संसद में हमारे प्रतिनिधि तार्किक चिंताएं दिखाने में पीछे नहीं रहे। सड़क पर महिलाओं का गुस्सा क्षोभ,अपमान और व्यवस्था की निष्क्रियता से सातवें आसमान पर था। आम महिला की इस चिंता को समझना बिलकुल कठिन नहीं है। संसद के अंदर बैठे हुए हमारे कई प्रतिनिधि इसकी जघन्य भर्त्सना कर चुके हैं। कोई अपराधियों को फाँसी की सजा से कम पर मानने को तैयार नहीं तो कोई पुलिस-आयुक्त को हटाने पर आमादा है तो कोई इस बेबसी पर आँसू बहा रहा है । आखिर,ये जन-प्रतिनिधि किससे यह सब माँग कर रहे हैं जबकि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इस व्यवस्था के यही लोग जिम्मेदार और गुनाहगार हैं !

बलात्कार जैसी घटनाएँ सीधे-सीधे कानून-व्यवस्था का मामला हैं। हमारे समाज में जब तक यह धारणा नहीं मज़बूत होगी कि किसी भी दुष्कृत्य के लिए अभियुक्त को जल्द और निश्चित रूप से उसके परिणाम भुगतने होंगे,तब तक ऐसी घटनाओं पर पचास बार फाँसी देने या गोली मार देने की सज़ा का प्रावधान महज़ कागजी ही रहेगा। आज यह धारणा पुख्ता हो चुकी है कि कोई  ,कहीं भी किसी महिला को छेड़ दे,उसे ज़बरिया उठा ले और यहाँ तक कि हवस पूरी करके मार भी दे तो कोर्ट-कचहरी में कुछ नहीं होना है। अव्वल तो कई मामले थाने या न्यायालय तक आते ही नहीं और यदि आए भी तो उनमें से अधिकांश सबूतों के अभाव में न्याय की दहलीज पर ही दम तोड़ देते हैं। इसलिए कई बार इन मामलों की शिकायत भी नहीं की जाती।

संसद में कई महिला-प्रतिनिधियों की चिंताएं सच्ची जान पड़ती हैं पर आखिर में कानून-व्यवस्था को लागू करना-करवाना आम जनता की जिम्मेदारी तो नहीं है। कानून अभी भी इतने कमज़ोर नहीं हैं पर मुख्य बात इन्हें लागू करने की है। जब हमारी राजनीतिक-व्यवस्था भ्रष्टाचार और अपने-अपने सत्तारोहण पर जुटी हुई हो,ऐसे में नौकरशाही या पुलिस-प्रशासन क्यों पीछे रहे ?हमारे प्रतिनिधि इस तरह की घटनाओं की सीधी जिम्मेदारी पुलिस-प्रशासन पर डालकर निश्चिन्त हो जाते हैं पर क्या सबसे बड़े जिम्मेदार वे स्वयं नहीं हैं?सरकार गरीबों को कैश-सब्सिडी का झुनझुना पकड़ाकर आत्म-मुग्ध हो रही है और उसकी लुटती हुई आबरू की कोई कीमत नहीं है.यह आम जनता के साथ मजाक नहीं तो क्या है ?हास्यास्पद तो यह है कि कानून-व्यवस्था तहस-नहस होने पर सरकार और हमारे प्रतिनिधि ही चिंताएं भी ज़ाहिर कर देते हैं. आखिर जनता ने सत्ता की लगाम जिनको सौंपी है तो किसी भी प्रकार की अराजकता  होने पर वे पल्ला कैसे झाड़ सकते हैं ?

आज पूरे देश में कानून का कोई खौफ नहीं है। जिसको जो मन में आ रहा है,कर रहा है। संसद में हमला करके,हत्याएं-बलात्कार करके,सरे-आम उगाही करके भी अगर कोई सुरक्षित रह सकता है तो ऐसे जंगलराज में कोई क्यों डरे ?हम पूरी तरह से अराजक-राज में रह रहे हैं। अब ज़रूरत केवल कानून के राज को स्थापित करने की है,संसद में भाषणबाज़ी करने की नहीं। ऐसा न हो पाने पर वहाँ फफक-फफककर रोना महज़ घडियाली आँसू बहाने से ज़्यादा कुछ नहीं है।

19 नवंबर 2012

अवसान के बाद का मूल्यांकन !


 

बाला साहब ठाकरे के अवसान के साथ ही देश में नई तरह की बहस शुरू हो गई है।उनकी शवयात्रा में शामिल लाखों लोगों की भीड़ को उनकी लोकप्रियता के पैमाने पर मानकर उन्हें शिखर-पुरुष, मसीहा,शेर,हिन्दू हृदय सम्राट और न जाने क्या-क्या कहा जा रहा है।यह भारतीय संस्कृति है जिसमें किसी की मृत्यु के बाद उसकी बुराई नहीं की जाती पर जब ऐसे शख्स का दखल सामाजिक या राजनैतिक हो,उसकी बड़ाई मायने रखती हो तो उसकी विचारधारा की बुराई क्यों वर्जित है ? किसी की भी मौत का जश्न उचित नहीं होता क्योंकि उससे किसी न किसी की व्यक्तिगत संवेदनाएं जुड़ी होती हैं,पर यदि हम उसकी शान में बढ़ा-चढ़ाकर कसीदे पढ़ने लग जाएँ,तो यह भी किसी को नागवार गुजर सकता है।

ठाकरे का व्यक्तित्व बहुतों के लिए कितना भी प्रभावशाली और आकर्षक रहा हो पर थोड़ा ठहरकर यदि हम उनका वैचारिक और तार्किक धरातल पर मूल्यांकन करें तो कई बातें उनके खिलाफ जाती हैं।यह मूल्यांकन साधारण आदमी के लिए ज़रूरी नहीं है पर वे एक राजनैतिक हस्ती थे इसलिए कुछ बातें साफ़ होनी चाहिए।उनका सबसे बड़ा गुणधर्म यह माना जाता है कि वे पड़ोसी देश को सरेआम धमकाते थे।इनकी इस सोच को समर्थन मिला तो उन्होंने अपने ही देश के दूसरे धर्म के लोगों के प्रति वैसी ही भावना अख्तियार कर ली।यह भी कई लोगों की राजनीति के लिए उपयुक्त लगा सो वे इससे आगे बढ़कर क्षेत्रवाद तक आ गए।मुंबई में दो तरह के नागरिक बन गए,उत्तर-भारतीय और मुम्बईकर।आजीवन यह लड़ाई मराठा बनाम बिहारी और महाराष्ट्र बनाम यू.पी.,बिहार तक ले जाई गई।यहाँ यह समझना होगा कि जो बात हमें धार्मिक लिहाज़ से अच्छी लग सकती है ,वही बात जातीयता और क्षेत्रीयता आ जाने पर नहीं,पर राजनीति के चलते इसमें दबे सुर से सभी दलों की सहमति रही है ।

हमारा साफ़ मानना यही है कि जिस मनुष्य को दूसरे मनुष्य को देखने में धर्म,जाति या क्षेत्र का चश्मा लगाना पड़े,क्या वह वास्तव में साधारण कोटि का मनुष्य भी है ?ठाकरे का अपना संविधान था,लोकतंत्र में उनका रत्ती भर विश्वास नहीं था।देश के ही नागरिकों को अपने देश में प्रवासी बना देना,उनमें आपस में घृणा-भाव पैदा करना ,डराना-धमकाना,उपद्रव करना ,अशांति फैलाना अगर देशद्रोह नहीं है तो फ़िर क्या इसे देश-प्रेम कहेंगे ? ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ ठाकरे ही ऐसा करते थे,आज की राजनीति में सब अपनी-अपनी तरह से इसी तरह का योगदान कर रहे हैं।ऐसे में उनके अवसान को महापुरुष का प्रयाण या एक युग का अंत कैसे कह सकते हैं ?

उन्हें हिन्दू हृदय सम्राट कहने वालों को यह भी नहीं पता कि वे ऐसा कहकर हिन्दू धर्म का नुकसान तो कर ही रहे हैं,उसके बारे में कुछ जानते भी नहीं हैं।ऐसे लोगों को स्वामी विवेकानंद के हिंदुत्व से सीख लेनी चाहिए न कि सावरकर या मधोक या ठाकरे से !भीड़ को सहारा बनाकर कई बुद्धिजीवी और साहित्यकार लहालोट हुए जा रहे हैं।उन्हें समझना पड़ेगा कि भीड़-भीड़ में फर्क होता है।भीड़ भिंडरावाला,प्रभाकरन,ओसामा और मुसोलिनी के साथ भी थी और गाँधी,मार्टिन लूथर किंग और मंडेला के साथ भी ! इसलिए भीड़ के सबक हर समय यकसा नहीं होते।साहित्यकार जो कथा-कहानी या कविता लिखता है ,उसमें संवेदना और मानवीयता का पुट आवश्यक तत्व की तरह होता है पर यही साहित्यकार जब किसी व्यक्ति का आकलन करते हैं तो कहीं न कहीं धर्म,जाति या क्षेत्रीय अस्मिता को ओढ़ लेते हैं ।ठाकरे के मामले में यही हो रहा है।मीडिया को क्या कहें,वह उनके परिजनों के रोने को भी खबर बनाता है ! किसी की मौत पर परिजन ही नहीं दूसरे लोग भी व्यथित हो जाते हैं,यह कहाँ से खबर हुई ?

ठाकरे की मौत से कई लोग विचलित या द्रवित हैं पर कोई उनके आंसुओं के बारे में भी सोचेगा जिनको अपने ही देश में आज़ादी से साँस नहीं लेने दी गई हो ?ठाकरे की मौत से ये प्रश्न फ़िर हमारे सामने हैं ।  

 

23 अक्तूबर 2012

चींटी और हाथी !

हाथी चींटी से कहे,तू ना समझे मोहि
मेरे पांवों के तले,मौत मिलेगी तोहि

चींटी बोली नम्र हो,मद से मस्त न होय
वंशहीन रावण हुआ,कंस न पाया रोय

मरने से बेख़ौफ़ हूँ ,चलती अपनी चाल
हर पल जीती ज़िन्दगी,नहीं बजाती गाल ।।

छोटी-सी काया मिली,इच्छाएँ भी न्यून
छोटे-से आकाश में,खुशियाँ फैलें दून

पेट तुम्हारा है बड़ा,धरती घेरे खूब
परजीवी बन चर रहा,इसकी-उसकी दूब


सावधान लघु से रहो,सदा उठाये सूंड़
चींटी मारेगी तुझे,तू अज्ञानी,मूढ़
 

19 अक्तूबर 2012

नई प्रार्थना !

हे दुर्गा  !
कभी उनका भी करो मर्दन
फाड़ दो छाती जो चौड़ी है दंभ से
पी रहे दिन-रात लहू हम सभी का
बनकर रक्तबीज
जो बढ़ रहे हर रोज़
क्या तुम भी इन्हें देखकर सहम गई हो ?

हे काली !
कभी आओ बन के कहर
कलियुग के असुरों पर ,
टूट पड़ो अचानक
भर लो अपना खप्पर
दिखा दो कि संज्ञाशून्य नहीं हो तुम
या किस प्रलय की प्रतीक्षा है ?

हे शंकर !
बजा दो डमरू
इन बहरे कानों पर
दिखा दो तांडव
कर दो रक्त-रंजित आसुरी-राज
मचा दो प्रलय
बेध दो त्रिशूल से
इनके दर्पयुक्त  माथे
बन जाओ शिव
या ऐसे ही मारे जायेंगे तुम्हारे भक्त ?

हे साईं  !
कभी उन पर दया मत करो
जो चढाते हैं तुम पर करोड़ों
बनाते हैं मोटा माल
और हड़पते हैं दूसरों का हिस्सा
अपना हाथ हटा लो
ऐसे न बांटो बख्शीश
तुम्हें देकर रिश्वत
वे पा रहे हैं अभयदान
तुम्हारा भक्त आज क्यों है सवाली ?

 

18 अगस्त 2012

अमन की अपील !

भारतनगर में सुख-शांति का माहौल था|काफ़ी दिनों से ख़बरें फीकी-फीकी सी आ रही थीं|लोग अपने काम-काज में इतने व्यस्त और मस्त थे कि नगर में हो-हल्ला बिलकुल थम सा गया था|राम लाल और नूर मुहम्मद आपस में गहरे मित्र थे|भारतनगर के भाग्य का फैसला भी इन्हीं के हाथ में था.दोनों अपने-अपने इलाके के प्रतिष्ठित व्यक्तियों में शुमार थे|शहर की इतनी शांति को देखकर दोनों को हैरानी हो रही थी|शहर की भलाई के लिए दोनों ने एक बैठक करने का फैसला किया|

राम लाल और नूर मुहम्मद की फ़ोन पर अकसर बातचीत होती थी,पर समाजसेवा और समुदाय की भलाई के लिए वे आपस में कम ही मिलते थे|अब जब छः महीने बाद नगरपालिका के चुनाव होने थे,ऐसे में शहर में इतनी शांति होने से वे चिंतित हो गए|इसलिए दोनों के शुभचिंतकों ने आज आखिर उनकी मुलाक़ात करा ही दी|दोनों दोस्तों ने गहन विचार-विमर्श के बाद यह फैसला किया कि अगर ऐसा ही चलता रहा तो शहर और वे दोनों खबर से बाहर हो जायेंगे|लोगों को उनके बिना जीने की आदत पड़ जायेगी,जिससे उनके कार्यकर्त्ता भी निकम्मे हो जायेंगे|साथ ही,समाज-सेवा के पुण्य-कार्य का अवसर उन्हें बराबर मिलते रहना चाहिए|इस बात पर दोनों में गंभीर सहमति बन गई|

भारतनगर के भविष्य का फैसला हो गया था|शाम होते-होते दोनों के कारिंदे अलग-अलग दिशाओं में बढ़ चुके थे|राम लाल और नूर मुहम्मद ने पहले से ही प्रेस-विज्ञप्ति तैयार करवा ली थी,जिसमें शहर में अमन और शांति बनाये रखने की अपील की गई थी|

13 अगस्त 2012

आलोचनाएं अपने गले में डाल लो !

तुम्हारी
रोज़-रोज़ की चिक-चिक से
मैं तंग आ चुका हूँ,
मेरे कान
पक गए हैं
तुम्हारी उल-जलूल बातें सुन-सुनकर .
हमने तुम्हें
आज़ादी क्या दे दी बोलने की
तुमने
आसमान ही सिर पर उठा लिया.
मुझे अपनी चाल से
आगे बढ़ना ही अच्छा लगता है.
मैं बढ़ता हूँ समगति से,
पैरों से कुचलते हुए तिनकों को,
मंजिल की तरफ |

तुम्हारी आलोचनाएं
अब ऊब पैदा करती हैं
मुझे कचोटती नहीं |
सबके साथ
एक-सा व्यवहार करूँ,
मैं समदर्शी भी नहीं |
मुझे दिखता है केवल
मेरा सपना
और सुनाई देती है
अपनों की आवाज़ ,
हर दिन,हर रात
सुनती हैं विरुदावालियाँ |

क्या करूँ,
मेरे दर्पण में
मेरा ही चेहरा दिखता है
मैंने उसे अपनी जेब में ले रखा है
ताकि और कोई उसमें
कभी अपनी सूरत न पहचान ले
खुद से ज़्यादा ,
हमें जान ले !

तुम्हारे सपनों से
मुझे कोई नहीं वास्ता,
उन्हें मुल्तवी रखो
आखिरी साँस तक |
आलोचनाओं को
पिरोकर डाल लो अपने गले में
मैंने हार की मालाएं
पहननी छोड़ दी हैं !

9 अगस्त 2012

कुछ छुट्टा अहसास !

१)
हर हाथ को काम,
हर हाथ है वोट ,
मोबाइल थमा के
लेंगे बटोर नोट,
लाइसेंसी लूट-खसोट !

२)
हमें हर खेल में
मात मिली है,
राजनीति और ओलम्पिक में
सत्ता ने चाल चली है,
आगे अंधी गली है !


३)
एक चाँद था
जो था फ़िदा
फिज़ा के अंदाज़ पर,
मावस की रात आई
चाँद छुप गया कहीं
फिज़ा बदहवास थी
चाँदनी-सी बिछ गई
पुरुष की बिसात पर !!

5 अगस्त 2012

संयुक्त-राष्ट्र चले जाओ जी !


जब से देश की राजनीति से लालू-तत्व नदारद हुआ है,हमें ठठाकर हँसने का मौका शायद ही मिला हो. लगता है कि इस बात को हमारी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार ने समझा है,तभी हमें पिछले कुछ दिनों से ज़ोरदार हँसी का अहसास कराया जा रहा है.सबसे मौलिक और सुखद अनुभूति हमारे कानून मंत्री ने कराई है.अन्ना टीम द्वारा लोकपाल की माँग पर उन्होंने सीधे और निष्कपट भाव से यह कहा कि भइया,इस बारे में अगर कुछ करना ही चाहते हो तो ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ चले जाओ,हम आपकी और सेवा नहीं कर सकते.सच पूछिए,इस बयान की साफ़गोई से हम तो बिलकुल गदगद हुए जा रहे हैं.

वैसे हम सबको आनंद प्रदान करने की यह इनकी पहली कोशिश नहीं है.इससे पहले उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव में ये अपनी ज़ोरदार उपस्थिति दर्ज़ करा चुके हैं.तब हमें हंसाने के लिए ये खुद रोने लगे थे और सुबकते हुए बोले थे कि बाटला कांड को सुनकर उनकी नेता भी ऐसे ही जार-जार रोई थीं.हमें तो लगता है कि उनकी इस बात से इनकी पार्टी के समर्थक इतना दुखी हो गए कि वे वोट डालना ही भूल गए.फ़िर भी,अपने नुकसान की क़ीमत पर अगर इनका ज़ज्बा क़ायम है तो यह बड़ी बात है.

इस सरकार को महंगाई से इतना दुःख है कि वो लगातार हमें हंसाने और खुश रखने का प्रयास कर रही है.समय-समय पर इसके सहयोगी दल भी इस काम में अपना भरपूर सहयोग दे रहे हैं,पर मुख्य सत्ता दल होने के नाते कांग्रेस अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होना चाहती.इसलिए उसके एक और मंत्री ने अन्ना-टीम के आन्दोलन को ड्रामा करार देने में ज़्यादा समय नहीं लिया.उनका मतलब यही था कि ड्रामा होगा तभी तो जनता का मनोरंजन होगा.वे भी यही चाहते हैं कि जनता ड्रामा देखती रहे और बाकी चीज़ें भूल जाय.

अभी लगातार दो दिन तक हमारे देश में बिजली के ग्रिड फेल हो गए ,तो अधिकतर हिस्से अँधेरे में ही मगन थे.बिजली मंत्री ने उन्हें यह कहकर खुश कर दिया कि इसी तरह के हालात से अमेरिका भी जूझा है और उसे उबरने में तो चार दिन लगे थे,जबकि हमने यह कमाल सिर्फ दस घंटे में ही कर दिखाया है.सरकार ने भी उनकी बात और उनके काम को गंभीरता से लिया और तुरत ही पदोन्नति के आदेश दे दिए.सुनते हैं कि मंत्रीजी ने भी नए मंत्रालय को सँभालने से पहले ही अमेरिका में हुई कई ऐसी घटनाओं का रिकॉर्ड तलब कर लिया है ताकि समय आने पर वे उनकी नज़ीर देकर हमारा मनोरंजन कर सकें.

हम तो कहते हैं कि बिजली नहीं है,पानी नहीं है,सड़क नहीं है तो बेखटके हम सबको संयुक्त राष्ट्र की शरण में जाना चाहिए क्योंकि वो भी समझदार है कि हमारी सरकार का मुखिया कितना लाचार है.अब जब तक राहुल बाबा का आगमन नहीं होता,लोकपाल तो छोड़ो, हमें हर ऐसे काम के लिए अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र का मुँह देखना पड़ेगा.इससे हमारी पीर भी कम होगी और सरकार की भी.पर,यह भी हो सकता है कि ऐसा करते-करते हमारी इतनी आदत पड़ जाय और आगामी चुनावों में भी हम वोट मांगने वालों से कह दें कि भइया,आप भी संयुक्त राष्ट्र चले जाओ,वोट भी वही देगा,तब कैसा रहेगा ? कभी उनको भी तो हँसने का मौका हमें देना चाहिए कि नहीं..?


11 जून 2012

चिरकुट-चूहों से बचाओ !

आदरणीय प्रधानमंत्रीजी,
बहुत दुखी मन से यह पत्र लिख रहा हूँ।देश में ज़बरदस्त संकट की स्थिति पैदा हो गई है।सुना है,चूहे तीन करोड़ का अनाज खा गए हैं।यह बहुत ही गंभीर मसला है।ये हमारा बजट था ,इसे दूसरा कैसे उड़ा सकता है?हम तो कहते हैं कि तुरत ही संसद का विशेष सत्र बुलाया जाए और इस पर बहस हो।एक संसदीय समिति से इसकी जांच भी कराई जाय कि हमारे बहादुरों के रहते ये सब हुआ कैसे ?

तीन करोड़ की रक़म यूँ ही जाया हो जाए,यह हम सब सहन नहीं कर सकते हैं।यह हमारे मौलिक-अधिकारों पर डाका है और इसे हम बिलकुल बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं।कालेधन को लेकर इतना शोर किया जा रहा है,अगर वह आ भी गया तो वह हमारे काम का नहीं है।उसे सफ़ेद करना पड़ेगा और उसमें समय लगेगा।जो धन हमारे पास पहले से ही चकाचक सफ़ेद है उसे हम ऐसे नष्ट नहीं होने देंगे ।उन चूहों की हमारे आगे बिसात ही क्या है? उन्होंने हमारी प्रभुसत्ता को ललकारा है इसलिए हम चुप नहीं बैठने वाले।


हमें किसी अन्ना से खतरा नहीं है पर जब बात हमारे अन्न की हो,पेट की हो तो यह बड़े खतरे का संकेत है।हमारे पुराणों  में अन्न को देवता कहा गया है और इन चूहों ने इस लिहाज़ से देवताओं पर आक्रमण किया है।अगर यह हाल देवताओं का हो रहा है तो फिर असुर कब तक सुरक्षित रहेंगे ?हमें किसी बाबा से भी कोई डर नहीं है क्योंकि वे सब मौका पाते ही कुतरने की जुगाड़ में लगे हैं।हम अपने जीते जी यह नहीं होने देंगे ।संसद के हमले के बाद यह बड़ा वाकया है .हमारी सत्ता को चूहों ने चुनौती दी है  इसलिए यह छोटा-मोटा मसला नहीं है,गंभीर आपदा  का समय है, हमारे अस्तित्व का प्रश्न है।अगर हम अभी एकजुट नहीं हुए तो कब होंगे ?

तीन करोड़ की रकम इतनी मामूली भी नहीं है।इस मद से हमारे यहाँ कम से कम दस टायलेट बन सकते हैं  जिनमें हमारे भाई-बिरादर बैठकर गंभीर-चिंतन करते ! इन चूहों ने अनजाने में ऐसा नहीं किया है।यह एक साजिश है हमें भूखों मारने की।हमने अपना सब-कुछ इस देश के लिए न्योछावर कर दिया है और लगातार इसी प्रयास में लगे हैं।हमने इस देश की सेवा में अपना पूरा परिवार झोंक दिया है ।अगर चूहे इस देश के मद को ऐसे खर्चने लगेंगे तो हमारे बिलों का क्या होगा? ये चूहे तो खा-पीकर अपने बिलों में मस्त घूमेंगे पर हम देश-सेवा को तरसते रह जायेंगे ।इस सबका सबसे बड़ा खतरा यह है कि चिरकुट-टाइप के चूहे इसका स्वाद पाकर और जोर से हमले करेंगे और सारे बिलों पर उन्हीं का कब्ज़ा हो जायेगा ।

इस ज्ञापन के द्वारा आपको हम सचेत करते हैं कि कम से कम अब तो जाग जाओ।अभी तक हमारे ऊपर सीधा हमला नहीं हुआ था,इसीलिए हम चुप बैठे थे।इन चूहों ने आज तीन करोड़ खाए हैं,कल हमें भी कुतरना शुरू कर देंगे।इन चिरकुट-टाइप चूहों से सख्ती से निपटने की ज़रुरत है नहीं तो हमारे खिलाड़ी और अफसरटाइप चूहों की प्रजाति पर ही संकट उत्पन्न हो जायेगा ! इस पर आप जल्द से जल्द एक सर्वदलीय बैठक बुलाकर आगे की रणनीति तय कर लें। इन चूहों को हमें ऐसा सबक सिखाना है कि इनकी सात पुश्तें अनाज को देखकर डरें और अन्न खाना ही भूल जांय !

उम्मीद है कि इस पत्र को आप वरीयता के आधार पर लेंगे और इस प्रकार  लोकतंत्र और हमारे मौलिक अधिकारों की रक्षा करेंगे ।                                                                              


                                                 आपका ही 
                                                         देश का प्रमाण पत्र धारी सेवक    
                                                                                                                   
                                                                                                                  

2 अप्रैल 2012

तोता और कौवा !

नीले आसमान में 
उड़ते हुए तोते को 
कौवे ने टोंका,
तुम इस तरह आसमान में
अतिक्रमण नहीं कर सकते,
उड़ नहीं सकते !
तुम तभी तक महफूज़ हो
जब तलक उस पिंजरे में,
अपने दायरे में महदूद हो !
खुले आसमान और 
धरती के आँचल में 
अगर तुमने हरकत की ज़रा-सी,
तो वो छोटी कटोरी,
आम की फाँके
और कच्ची शफ़ड़ी भी
भूल जाओगे,
यहीं हमारे सामने 
केवल छटपटाओगे ! 
इसलिए अपना हिस्सा लो
मौके को समझो 
और उड़ो मत !
बाहर का मौसम 
सिर्फ़ मेरे मुफ़ीद है,
तुम्हारे लिए हमारा 
ख़ास इंतजाम  है,
हम चुने हुए हैं 
इसलिए बेख़ौफ़ चुनते हैं,
तू घोंसले में रह 
वही तेरा मक़ाम है !

25 जनवरी 2012

किसका है गणतंत्र ?

हम अपने गणतंत्र के बासठ-साला ज़श्न की तैयारी में हैं. राजपथ पर बहुरंगी छटाएँ बिखरने भर से टेलीविजनीय -चकाचौंध तो पैदा की जा सकती है  पर इस पर इतराने जैसी कोई बात नहीं दिखती है.तकनोलोजी के क्षेत्र में हमने बहुत उन्नति की है और आर्थिक-मोर्चे पर भी हमारा दमखम खूब दिखता है पर इतने अरसे बाद भी क्या वास्तव में जिस उद्देश्य को लेकर हमने अपना सफ़र शुरू किया था,उसे हासिल कर लिया है ? संविधान में आम आदमी को सर्वोपरि माना गया था,वह आज कहाँ खड़ा है ? ऐसे में ज़ाहिर है ,इस सफ़र को शुरू करने वाले तो ज़रूर अपने उद्देश्य में सफल हुए हैं क्योंकि तब से लेकर अब तक उन लोगों की सेहत बराबर सुधर रही है,जबकि इस तंत्र में देश और उसका गण टुकुर-टुकुर केवल उसकी ओर ताके जा रहा है !

किसी भी देश के लिए उसका संविधान-स्थापना दिवस बहुत महत्त्व का होता है और होना चाहिए. ऐसे  दिवस मनाये जाने या उल्लास प्रकट करने से ज्यादा हमें आत्म-मंथन व भूले-बिसराए हुए संकल्पों की याद के लिए होते हैं,पर हो रहा है इसके उलट ! सरकारी दफ़्तर औपचारिक कार्यक्रम कर लेते हैं,अखबारों में लम्बे विज्ञापन आ जाते हैं और इस 'उत्सव' के बहाने खजाने से हाथ साफ़ कर लिया जाता है.हम ऊपरी चमक-दमक को पेश कर विकसित होने का मुलम्मा अपने ऊपर चढ़ा लेते हैं.कुछ को लगता है कि इस तरह आम आदमी पर  भी थोड़ी देर के लिए विकसित होने का नशा तारी हो जाता है.

हमारी राजनीति गण के प्रति संवेदित न होकर इस तंत्र के फेर में उलझी हुई है.अपने ही लोगों को अपना शत्रु घोषित कर दिया जाता है.भ्रष्टाचार को एक आवश्यक अंग मान लिया गया है.उसे हटाने पर जोर दिया जाता है,न कि ऐसी व्यवस्था लागू करने पर कि वह आ ही न सके ! जो इस खेल के खिलाड़ी हैं,उन्हें ही यह ज़िम्मा सौंपा गया है कि वे देखें कि खेल साफ़-सुथरा हो ! अजब-सा सिस्टम बन गया है कि अपराधी निश्चिंत है और भुक्त-भोगी डरा-सहमा.राज्य चाहे तो कानून उसके हिसाब से चलेगा,जिस पर और जब चाहे तभी लागू होगा.ऐसा चयन ,ऐसी सोच आम आदमी में विद्रोह को उकसा रही है.ऐसे लोगों को देश के खिलाफ बताया जा रहा है.

राजनीति में अवमूल्यन का असर साहित्य में भी आ रहा है.अब लोग प्रेम-काव्य रचने के बजाय 'जूता-पुराण' लिखने में उत्सुक हैं. लेखक या कवि समाज की माँग और रूचि समझता है इसलिए वह अब गंभीर लेखन के बजाय ऐसी विषय-वस्तु को अपने पाठकों के लिए ज्यादा मुफीद समझता है.हमारा राजनैतिक प्रभु-वर्ग अभी भी यदि किसी मुगालते में रहता है तो उसे गणतंत्र के असली लक्ष्यों और अपनी ज़िम्मेदारी को समझना होगा,अन्यथा हम बासठवां या हजारवां गणतंत्र भी इस तरह के सवालों के घेरे में मनाएंगे !यह भी ज़रूरी नहीं है कि गण हमेशा चुप्पी साधे अपना चीर-हरण होते देखता रहे ! यह कैसा और किसका गणतंत्र है जिसमें एक तरफ राजनेता और अधिकारी दोनों हाथों से अपनी जेबें भर रहे हैं,कुर्सी पाने के लिए आम आदमी को  जाति,धर्म के नाम पर लड़ा रहे हैं और दूसरी ओर वह आदमी अपनी दो-रोटी के जुगाड़  में  ही लगा हो ?

21 जनवरी 2012

मौसमी हैं बादल !

चुनाव के वक्त हिन्दू होते हैं,मुसलमान होते हैं,
फ़िर पाँच साल तक ,हम इंसान होते हैं !

सालों बाद उनने  हमें गौर से जाना ,
हम उन्हीं के मंदिर के भगवान होते हैं !

सब राज-पाट ले लो, इक अंगूठे के लिए,
बस थोड़े दिनों के वे , जजमान होते हैं !

रख के भी क्या करोगे,जो है तुम्हारे पास,
रखने वाले हर दम, धनवान होते हैं !

आपकी नजदीकियाँ ,अब समझ आई हमें,
बहुत दिनों तलक, हम नादान होते हैं !

हर तरफ से उठ रही , आज ये आवाज़,
हमारी भी जिंदगी के अरमान होते हैं !

इस बदलती रुत ने ,समझा दिया हमें,
मौसमी हैं बादल,मेहमान होते हैं ! 




15 जनवरी 2012

चुनावी क्षणिकाएं !

( कांग्रेस  )

राहुल जी को जल्दी है,
खतम  करनी है रेस,
सीटी बजने से पहले ही
दौड़ गई कांग्रेस !!

( भाजपा )

आओ-आओ
जो भी आओ,
अगड़ा-पिछड़ा ,तगड़ा आओ,
भाई-बिरादर टिकट कटाओ ,
जीत न पाओ,फिर सो जाओ !!

( सपा )

अबकी घूम रहे अखिलेश,
हवा भर रहे नेताजी.
जैसे-तैसे सत्ता पायें,
फिर से हों  गुंडे राजी !!

( बसपा )

माया अपना जन्मदिन मनाएं,
हम सब देते ढेर  दुआएं,
खूब कमाएँ,
यदि लौट के आयें !!

12 जनवरी 2012

चुनावी-दोहे !

साभार:गूगल बाबा 
दिन में सपने देखते ,अब गाँवों  के लोग !
नेता रोटी खायेंगे,छोड़ के छप्पन-भोग !!

बुत में परदा डालते,बनते हैं नादान !
सारे अच्छे काम हैं,घूँघट में आसान !!

सबने हाँका दे दिया,चलो गाँव की ओर !
वोट मिलेगी जाति की ,चूसेंगे हर पोर !!

बोरे भर वादे लिए,थैली भर संकल्प !
फिर से छलने आ गए,रहा न पास विकल्प !!



8 जनवरी 2012

ई पवित्र होने का मौसम है भाई !


कुहरा और बरसात के मारे हम आज चौपाल मा तनिक देर से पहुँचे। जाते ही बदलू काका ने हमें घेर लिया और लगा दी झड़ी सवालों की। "सुने हो मास्टर जी ! ई भाजपा को का होइ गवा है ? अभी कुछ रोज पहिले तक यहिके नेता लोग अन्ना बाबा के गुन गावत फिरत रहे। अब सब भूलि गए का ?" मैंने लगभग अनजान बनते हुए पूछ ही लिया , "काका ! काहे इत्ता परेशान हौ ? का बात है ?" काका फुल जोश में बोले जा रहे थे, "ई बसपा के नेता हाल-फ़िलहाल तक बहिनजी के साथ मलाई पर हाथ साफ कर रहे थे, खूब लूट-लाट मचाई और इहाँ तक कि कुछ लोगन का टपकाय भी दिहेन पर अब भाजपा में शामिल होइ के अगड़ा-पिछड़ा और अन्याव का रोना रो रहे हैं। सबसे मजेदार बात तौ यह है कि भाजपा वाले कहि रहे हैं कि ऊ कुच्छौ गलत नाहीं किये हैं।"

मैंने उन्हें सांत्वना देने की कोशिश करते हुए समझाया ,"काका ! अब जमाना काफ़ी बदल चुका है और राजनीति भी। जब डाकू रत्नाकर अपना मन बदल कर महर्षि वाल्मीकि बन सकते हैं, हिन्दुओं का बड़ा ग्रन्थ लिख सकते हैं तो ये छोटे-मोटे धंधे करके अपने परिवार का पेट पालने वाले नेता क्यों नहीं बदल सकते ? इनके बदलने से अगर कोई पार्टी शुद्ध हो रही हो , सत्ता के नजदीक आकर लोगों की सेवा के लिए बेताब हो तो इसमें हर्ज़ ही क्या है ?"







काका मेरी बात से मुतमईन न लगे। मैंने उन्हें और पौराणिक उदाहरण  दिए। काका सुनो, "जब भगवान राम को लंका में बुराई पर अच्छाई की जीत चाहिए थी तो उन्होंने विभीषण को अपनी ओर मिलाया ताकि बुराई को ख़त्म करने में मदद मिल सके। अब वही काम राम के भक्तों वाली पार्टी कर रही है तो यह एक आदर्श स्थापित हो रहा है। आप नाहक परेशान हैं। इस पार्टी के लोगों ने यह भी कहा है कि उनके यहाँ जो भी आता है,पवित्र हो जाता है,बिलकुल पतितपावनी गंगा की तरह !"

काका ने फिर प्रतिवाद किया, "अभी दो दिन पहले ये सब संसद में हंगामा मचाय रहे कि मज़बूत लोकपाल लाना बहुतै ज़रूरी है और अन्ना बाबा का हमरा फुल सपोट है,तो उसका क्या ?" हमने कहा, "काका ! ई लोकपाल तो तभी जाँच करेगा न , जब कोई घपला-घोटाला होगा। सो, उसकी उपयोगिता को प्रमाणित करने के लिए पहले कुशल भ्रष्टाचारियों की भर्ती भी तो ज़रूरी है। बाद में जाँच शुरू होते ही वे उन्हें हटाकर डंके की चोट पर पाक-साफ भी बन जायेंगे। आखिर पार्टी विद डिफरेंट भी तो दिखना ज़रूरी है। जो भी सेवा कार्य या देश हित करना है, वह सत्ता में आये बिना कैसे हो सकता है ? सो, कुर्सी के लिए थोड़ा एडजस्टमेंट करने मा का बुराई है ?" 




अब तक बदलू काका हमारी बातों से सहमत हो गए लग रहे थे, हम फिर से मिलने का वादा करके घर चले आए क्योंकि शाम के समाचारों में क्या पता ...... कोई फिर पवित्र हो गया हो ?

30 दिसंबर 2011

फ्रीडम एट मिडनाइट !

लोकपाल को लेकर किया जा रहा धमाल कुछ समय के लिए थम गया है. कई लोगों को इसके ऐसे हश्र का अंदाज़ा पहले से ही था,फिर भी सत्ता पक्ष द्वारा बार-बार यह कहा जाता रहा कि उन पर ,संसद पर विश्वास नहीं किया जा रहा.ये लोग ही हैं जो बेसुरे और बेसबरे हो रहे हैं.अब जबकि आधी रात को फ़िलहाल इस जिन्न से छुटकारा मिल गया है ,काफी सारे परदे खुले ,मान्यताएं ध्वस्त हुईं व राजनीति अपने असली रंग में आई ! संसद में लोकपाल की हिमायत के बजाय अपने-अपने हितों की वकालत ज़्यादा की गई  ! आम आदमी भौचक्का होता हुआ केवल यह देखता रह गया कि उसके लिए यहाँ कौन बैठा है ? और वे सब 'फ्रीडम एट मिडनाइट' के जश्न में डूबे हुए हैं !


अन्ना जी के आन्दोलन शुरू करने के पहले दिन से ही किसी भी नेता या दल ने इसे मन से स्वीकार नहीं किया.सब पहले से ही आर टी आई से दुखी थे एक और नई मुसीबत के लिए वे तैयार नहीं थे क्योंकि यह उनकी रोज़ी-रोटी का सवाल था,इसलिए अन्ना को शुरू में ही उपेक्षित रखा गया.बाबा रामदेव से सौदेबाजी की  गई ,उनको जानबूझकर अन्ना के आगे खड़ा करने की चाल चली गई,फिर उनके साथ क्या किया गया, यह सभी जानते हैं.अन्नाजी के अगस्त-आन्दोलन ने सत्ता के गलियारों में खलबली मचा दी तो सारे दल के नेताओं ने इससे उबरने के लिए गजब की दुरभिसंधियाँ कीं ! टीम अन्ना सहित कई प्रबुद्ध लोग राजनीति की इस चाल से सशंकित थे,फिर भी उन पर भरोसा किया गया.


इस सबके बाद क्या हुआ ,देश ने खूब देखा.इस बीच केजरीवाल,किरण बेदी और यहाँ तक कि अन्ना को भी गरियाया और बदनाम किया गया.संघ और भाजपा से रिश्ते जोड़े गए. कहीं न कहीं सत्ता में बैठे लोग लोकपाल और भ्रष्टाचार के मुद्दे को भूलकर टीम अन्ना को सबक सिखाने में जुट गए.जो भी इस आन्दोलन का समर्थक बना उसे उसकी भ्रष्टाचार की चिंताओं से हटकर ,संघ के रिश्तों में लपेटने की कोशिशें होने लगीं.संघ क्या देशद्रोही और आतंकवादी संगठन है? उसके साथ जुड़े हुए लोग भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज़ नहीं उठा सकते ? इस तरह मामले को दूसरा मोड़ देने के पुरजोर प्रयास किये गए.


अन्ना ने अपनी अस्वस्थता और राजनीति के दोगलेपन के चलते जब अनशन खत्म किया तब उनका उपहास  किया गया.संसद में बहस के नाम पर फूहड़ता का बोलबाला रहा.नेताओं को ऑन दि रिकॉर्ड   मज़बूत   लोकपाल चाहिए पर ऑफ दि रिकॉर्ड उसकी राह में हज़ार कांटे बो दिए गए.आम आदमी को बार-बार यह बताया जा रहा था कि लोकतंत्र में संसद सबसे ऊपर है...लोक से भी !


अन्ना जिसके लिए आन्दोलन की अगुवाई कर रहे हैं ,वह सरकार का अपना दायित्व है,पर इस पर भी माननीयों को आफत आ रही है..इस प्रजातंत्र की सारी कवायद 'परजा' ने देख ली है.अन्ना को कुछ हासिल हुआ हो या नहीं पर उन्होंने लोकपाल और भ्रष्टाचार को  नए साल का ,अगले चुनावों का अजेंडा ज़रूर बना दिया है !


मोरल ऑफ़ दा स्टोरी " तुम हमसे कितना भी होशियार  हो,पर हमारा जैसा कांईयापन  कहाँ से लाओगे ?"


........चलते-चलते

उनको हक है कि हमें ,ज़िल्लत की जिंदगी दें,
हम न बोलें,न रोयें, यूँ ही मुर्दा पड़े रहें !!

24 दिसंबर 2011

संसद से सड़क तक !

इन खामोश निगाहों से 
मंजिल को जाती राहों से 
होरी,धनिया की आहों से 
अनगिन किये गुनाहों से 

कब तक तुम बच पाओगे,
सभी आदरणीयों से माफ़ी सहित 
कभी सड़क पर तो आओगे !! १!


अपने को ही मार रहे
बनत बड़े हुशियार रहे 
गरम हवा के साथ बहे
कुछौ न करिहौ बिना कहे ?

कब तक घूँघट डाल रखोगे,
कभी तो पनघट पर आओगे !! २!


आग भरी है हमरे दिल मा
रोज कर रहे हम पैकरमा 
चुहल कर रहे तुम संसद मा
कितने छेद कर दिए बिल मा 

तुम किस बिल में घुस पाओगे,
बीच सड़क जब आ जाओगे ? ३!

हमने तो ये सोच रखा है
धीरज को तुमने परखा है 
ताक में गाँधी का चरखा है 
चारा,रबड़ी खूब चखा है 

अब तुम हड्डियां चबाओगे ?
शायद सुकून तब पाओगे !! ४ !






16 दिसंबर 2011

सबके अपने रंग !!

आज कुछ ऐसा लिखें 
ये कलम तोड़ दें हम !
बहती हुई धारा का  ,ये 
रुख  मोड़  दें हम !
शेर की मांद में  घुसकर ,
जबड़ों  को  ही तोड़ दें हम  !


जब तलक बचते रहेंगे,
राह में पिटते रहेंगे,
हौसला गर कर लिया तो,
काफ़िले बढ़ते  रहेंगे  !
राह की खाई को  पाटें,
पत्थरों को फोड़ दें हम  !


दिन  सुहाने आ गए ,
वे फिर भरमाने आ गए,
तम्बुओं से  वे निकलकर 
सर झुकाने आ गए ,
अबकी नहीं मानेंगे  हम,
सांप को यूँ  छोड़ दें हम ?




...और चलते-चलते एकठो निठल्ला-चिंतन  !




झील जो सूखी भर आई ,
नन्हें-मुन्नों  की है  माई,
अब नहीं चिंतित हैं  मुन्ने,
गोद में ही सो रहेंगे,
इस ठिठुरती ठण्ड में 
बस रजाई ओढ़ लें हम !


.......और ये देखिये अपने निठल्लू अली मियाँ ! क्या फरमाते हैं !


भूरे सूखे रेत कणों से अटी पड़ी है झील
अपने कर्मो के दर्रों से फटी पड़ी है झील :)

राग द्वेष के दावानल में झुलस रही है झील
हालत ये रोशन किरणों से करती आहत फील :)

एक बूंद लज्जा का पानी गर पाती वो
भीषण मनो ताप मुक्त हो जाती वो :)


बिलबिल करती दर्द पे अपने आहें भरती
होती अक्ल ठिकाने ,असमय क्यों मरती :)