अशोक कुमार: वो हीरो जिन्होंने दी थी करोड़ रुपये कमाने वाली पहली हिन्दी फ़िल्म

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  • Author, राजपाल राजे
  • पदनाम, वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए

हिंदुस्तानी सिनेमा के मशहूर अभिनेता अशोक कुमार उर्फ़ दादामुनि को इस दुनिया से गए 22 साल होने को हैं, लेकिन किसी सिनेप्रेमी से बात करें तो लगता नहीं है कि वे हमारे बीच इतने लंबे समय से नहीं हैं.

इसकी इकलौती वजह यह है कि आप जब भी कोई पुरानी फ़िल्म देखने की कोशिश करते हैं तो हर दूसरी फ़िल्म में आपको कहीं ना कहीं अशोक कुमार दिख ही जाते हैं.

छह दशक लंबे करियर में उन्होंने क़रीब 300 फ़िल्मों में काम किया. उन्होंने ऐसे-ऐसे चरित्रों को पर्दे पर साकार किया, जिन्हें भुला पाना सहज नहीं है.

उन्होंने दिलीप कुमार, राजकपूर और देवानंद की तिकड़ी बनने से पहले काम शुरू किया और राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन के सुपरस्टार बन जाने के बाद तक काम करते रहे.

इस मायने में देखें तो अशोक कुमार भारतीय फ़िल्मों के पहले सुपर स्टार माने जा सकते हैं. उन्होंने एक के बाद एक सात सुपरहिट फ़िल्में दी थीं.

उनकी फ़िल्में 1936 से 1955 तक कमाई का रिकॉर्ड बनाती रहीं. इस दौरान उन्होंने 47 फ़िल्मों में काम किया.

इनमें से तीन दर्जन फ़िल्में बॉक्स ऑफ़िस पर हिट मानी गई थीं. 'अछूत कन्या' से शुरू हुए अशोक कुमार के सफ़र को 'नया संसार', 'वचन', 'बंधन', 'किस्मत', 'महल', 'तमाशा', 'मशाल', 'खिलाड़ी', 'परिणीता', 'दीदार' और 'बंदिश' जैसी फ़िल्मों ने नया मुकाम दिया.

साल 1943 में आई 'किस्मत' ने तो बॉक्स ऑफ़िस पर धमाल ही मचा दिया था. कमाई के मामले में एक करोड़ का शिखर छूने वाली पहली हिंदी फ़िल्म साबित हुई थी. इस फ़िल्म में अशोक कुमार का निगेटिव किरदार था. उस दौर में यह बहुत रिस्क था, लेकिन अशोक कुमार ने करने की चुनौती स्वीकार कर ली.

नतीज़ा ये रहा कि फ़िल्म 186 सप्ताह तक बॉक्स ऑफ़िस पर कमाई करती रही. शुरुआती कमाई के मामले में इस फ़िल्म के रिकॉर्ड को आख़िरकार 'शोले' ने तोड़ा.

अशोक कुमार का स्टारडम

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ये अशोक कुमार के फ़िल्मी करियर का वो दौर था, जहाँ सिर्फ़ और सिर्फ़ अशोक कुमार ही नज़र आते हैं. अकेले अशोक कुमार.

उनके सामने कोई नहीं दिखता. संयोग से फ़िल्मी 'अभिनय' में आए अशोक कुमार की इन फ़िल्मों में उनकी असहजता, कमजोरियां और अनाड़ीपन भी ख़ूब दिखता है. लेकिन उनका स्टारडम दंग करने वाला ही रहा.

अभिनेता के तौर पर अशोक कुमार की करियर का दूसरा दौर ज़्यादा दमदार रहा. इसमें वे अपने फन में माहिर और मैथड एक्टिंग के गुर के साथ पर्दे पर दिखाई देते हैं. उसमें कमाल दिखते हैं.

1956 में शक्ति सामंत की 'इंस्पेक्टर' में वे पुलिस की वर्दी में दिखते हैं.

यह हिंदी सिनेमा के इतिहास में पहली बार हुआ था, जब फ़िल्म का नायक पुलिस वर्दी में दिखा था. इसके बाद सिगरेट सुलगाते अपराधी या पुलिस इंस्पेक्टर के तौर पर अशोक कुमार कई फ़िल्मों में नज़र आए. इसे बाद में हिंदी सिनेमा ने ख़ूब अपनाया.

इस दौर में 'शतरंज', 'एक ही रास्ता', 'आरती', 'हावड़ा ब्रिज़', 'चलती का नाम गाड़ी', 'गृहस्थी', 'सेवरा', 'गुमराह', 'बंदिनी', 'मेरे महबूबट, 'ये रास्ते हैं प्यार के', 'दीदार', 'कंगन', 'आकाशदीप', 'कल्पना', 'ऊंचे लोग' जैसी फ़िल्मों अशोक कुमार फैंस के साथ-साथ आलोचकों को चौंका रहे थे.

इन फ़िल्मों में वे नायकत्व का चोला उतार कर पूरी तरह से परिपक्व अभिनेता के रूप में नज़र आ रहे थे. हर नई फ़िल्म में वे अभिनय के आयाम गढ़ते दिखे थे.

यह बतौर अभिनेता अशोक कुमार का ऐसा दौर था, जहाँ वे मुश्किल से मुश्किल भूमिकाओं को गहराई के साथ सहज रूप से पर्दे पर उतार दे रहे थे. आज अगर उस दौर की फ़िल्मों को देखें तो चलता है कि यह चरित्र अशोक कुमार के लिए नहीं, बल्कि अशोक कुमार उस चरित्र विशेष के लिए बने थे.

लेकिन अशोक कुमार यहीं नहीं ठहरे. अपने करियर के तीसरे दौर में वे और मंझे हुए अभिनेता के तौर पर सामने आते हैं. पूरी तरह से चरित्र अभिनेता के रूप में अशोक कुमार प्रयोगों की झड़ी लगा देते हैं.

इस दौर की फ़िल्मों की लिस्ट लंबी है. 'दादी मां', 'आशीर्वाद', 'ज्वैल थीफ़', 'विक्टोरिया नंबर 203', 'भाई', 'सत्यकाम', 'टैक्सी ड्राइवर', 'पाक़ीजा', 'सफ़र','प्रेम नगर', 'मिली', 'आनंद', 'शौकीन', 'छोटी सी बात', 'आपके दीवाने' जैसी दर्जनों फ़िल्में हैं, जहां आपको अशोक कुमार के अभिनय की रेंज का अंदाज़ा होता है. ऐसा लगता है कि उनके शरीर का हर अंग अभिनय करना चाह रहा हो. यह वह दौर था जब अशोक कुमार का एक टेक काफ़ी हो गया था, किसी भी सीन को करने के लिए उन्हें रीटेक की ज़रूरत नहीं होती थी.

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अशोक कुमार की अभिनय शैली

इतने लंबे और विविधता भरे करियर के दौरान अशोक कुमार अपने चरित्रों को निभाते वक्त कभी भी लाउड या ओवर एक्टिंग के शिकार नहीं हुए.

यहां ये भी उल्लेखनीय है कि अशोक कुमार ही वे पहले अभिनेता थे जिन्होंने पारसी थिएटर से हिंदी सिनेमा में आई लाउड शैली से हिंदी फ़िल्मों को मुक्त किया. संवादों को सहज और सरल ढंग से बोलना सिखाया.

हाल ही में फ़िल्म पत्रकार और सिने समीक्षक प्रताप सिंह की अशोक कुमार और दिलीप कुमार के अभिनय की तुलनात्मक पुस्तक, 'दो आसमान-दूर और पास' प्रकाशित हुई है.

इस पुस्तक में उन्होंने पारसी थिएटर की शैली से हिंदी सिनेमा को मुक्त कराने में अशोक कुमार के योगदान की चर्चा की है. उन्होंने लिखा है कि हिंदी फ़िल्मों में मौलिक बदलाव की शुरुआत अशोक कुमार ने की थी, ऊंची आवाज़ की टोन को अपने संवादों में कम करके जादू जगाया.

इससे हिंदी सिनेमा की लोकप्रियता बढ़ी. इसी शैली को बाद में दिलीप कुमार, राजकपूर, देवानंद, बलराज सहनी, संजीव कुमार, नसीरुद्दीन शाह, ओमपुरी और पंकज कपूर जैसे अभिनेताओं ने अपनाया.

अशोक कुमार अपनी फ़िल्मों के ज़रिए दर्शकों के घरों तक में घुसे चले आते थे. वे इस मामले में थोड़े अलग थे. दिलीप कुमार जहां बहुत कम फ़िल्मों में काम करने के लिए जाने जाते थे.

राज कपूर और देवानंद अपनी कल्पनाओं को पर्दे पर उतारने में इतने मशगूल हुए कि आम लोगों के किरदार वाली भूमिकाएं कहीं पीछे रह गईं.

आम लोगों के जीवन के रोजमर्रा वाली भूमिकाएं अशोक कुमार छह दशकों तक निभाते चले गए. मोतीलाल, बलराज सहनी और प्राण को तरह-तरह की भूमिकाएं सिद्धहस्त ढंग से निभाने के लिए मशहूर रहे लेकिन इनमें से कोई अशोक कुमार की बराबरी नहीं कर सका.

कहाँ हुआ था अशोक कुमार का जन्म

बिहार के भागलपुर में 13 अक्टूबर, 1911 को जन्मे अशोक कुमार के स्क्रीन नेम का किस्सा भी मशहूर रहा, आख़िर वे पहले फ़िल्म दुनिया में धमाल मचाने वाले पहले कुमार थे. दिलचस्प ये है कि उनका असली नाम अशोक कुमार ही था.

यह बात दूरदर्शन को दिए अपने एक इंटरव्यू में खुद अशोक कुमार ने बताई है, लेकिन उनके पिता ने मिथुन राशि का नाम रखने के लिए उनका नाम काशी विश्वेश्वर गांगुली कर दिया.

इसके बाद उनका नाम कुमुद कुमार गांगुली हुआ. ये नाम लंबे समय तक रहा लेकिन स्क्रीन नेम के लिए आख़िर में फिर से वे अशोक कुमार ही हुए.

वकीलों का परिवार था लेकिन उनकी दिलचस्पी इस पारिवारिक पेशे में नहीं थी. फ़िल्म दुनिया में बहनोई शशधर मुखर्जी बहुत कामयाब शख़्स थे. लेकिन अशोक कुमार की अभिनय में भी कोई दिलचस्पी नहीं थी.

साइंस ग्रेजुएट होने के चलते अशोक कुमार लैब अस्सिटेंट बन गए. फिर सीखने का सिलसिला शुरू हुआ- एडिटिंग, पटकथा, गायन और डायरेक्शन. अभिनय को छोड़कर सब कुछ में अशोक कुमार माहिर हो गए थे. लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था.

बॉम्बे टॉकीज़ के मालिक थे हिमांशु राय. शशधर मुखर्जी उनके सहायक थे. हिमांशु राय की पत्नी थीं देविका रानी. हिमांशु राय की फ़िल्मों की हीरोइन हुआ करतीं थीं देविका रानी.

'जीवन नैया' फ़िल्म के हीरो नज़्मुल हसन से हिमांशु राय चिढ़ गए. उनको हटाकर अशोक कुमार को हीरो बनाने का ख़्याल उन्हें आया. अशोक कुमार को जब ये मौका मिल रहा था तो उन्होंने कहा था कि वे संवाद नहीं बोल पाएंगे. लेकिन हिमांशु राय भी अड़ गए कि सब सीखाकर हीरो इसे ही बनाएंगे.

फ़िल्म से टीवी तक का सफ़र

संयोग से जो शुरुआत हुई, वह छह दशकों तक बखूबी चली. इस दौरान देविका रानी, लीला चिटनिस, निरूपा राय, सुरैया, नलिनी जयवंत, मधुबाला और मीना कुमारी जैसी अभिनेत्रियों के साथ उनकी जोड़ी खूब पसंद की गई. एक समय में नलिनी जयवंत के साथ उनके अफ़ेयर के क़िस्से भी ख़ूब चर्चा में रहे थे.

अशोक कुमार ने 1988 में दूरदर्शन को दिए एक इंटरव्यू में बताया था कि जब वे फ़िल्मों में आए थे उस वक्त किसी भी फ़िल्म स्टार का करियर 10 से 15 साल का माना जाता था.

उन्होंने खुद के करियर को पांच साल का ही माना था. इसमें वे कहते हैं, ''मैं कुछ पैसे कमाकर बिज़नेस करने के बारे में सोचता था लेकिन उन्हें फ़िल्में मिलती गईं और उनकी गाड़ी चलती गई.''

फ़िल्मों के अभिनय के अलावा अपने शुरुआती करियर में अशोक कुमार ने अपनी फ़िल्मों के गाने भी खुद ही गाए थे. जब भारत में टेलीविजन आया तो पहले सॉप अपेरा 'हमलोग' के सूत्रधार के तौर पर अशोक कुमार ने दर्शकों को ख़ूब चौंकाया था. चंद मिनटों की अपनी भूमिका से वे दर्शकों को गुदगुदा जाते थे. उन्होंने इसके बाद कई टेलीविजन धारावाहिकों में भी काम किया.

10 दिसंबर, 2001 को 90 साल की उम्र में उनका निधन हुआ. तब तक वो भारतीय सिनेमा के दादा मुनि बने रहे.

अभिनेता के तौर देश का शीर्ष 'दादा साहेब फाल्के' पुरस्कार उन्हें 1988 में मिला. उन्हें 1999 में पदम भूषण सम्मान मिला. साल 1969 में 'आशीर्वाद' के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला. दो बार फ़िल्म फेयर की ओर से सर्वश्रेष्ठ अभिनेता भी चुने गए. सरकार ने 2013 में उन पर एक डाक टिकट भी जारी किया था.

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