मायावती: पुराने तेवरों की वापसी से मिलते नए संकेत, क्या होगा असर?
- Author, सैय्यद मोज़िज़ इमाम
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता, लखनऊ से
उत्तर भारत में दलित मूवमेंट खड़ा करने वाले कांशीराम ने जिस पार्टी के ज़रिए बहुजन समाज को सत्ता के गलियारों में स्थापित किया, क्या मायावती वह चमत्कार दोबारा करने की तैयारी में हैं?
पिछले कुछ दिनों में इसको लेकर यूपी की राजनीति में एक बार चर्चाओं का दौर शुरू हो गया है. दरअसल, इस नई उम्मीद की वजह मायावती के पुराने तेवर की वापसी है.
एक अरसे की सियासी चुप्पी के बाद दलित समाज की बड़ी चिंता को आवाज़ देने के लिए मायावती ने फिर बोलना शुरू कर दिया है.
पिछले कुछ सालों के बाद यह पहला मौका तब आया जब मायावती पिछले महीने फिर से पार्टी की अध्यक्ष चुनी गईं.
इस मौके पर मायावती ने न सिर्फ़ केंद्र सरकार को सुप्रीम कोर्ट के एसएसी-एसटी के उपवर्गीकरण वाले फ़ैसले के बहाने घेरा, बल्कि 1995 के गेस्ट हाउस कांड पर कांग्रेस पर चुप रहने का आरोप लगाकर खोई ज़मीन दोबारा हासिल करने के अपने मंसूबे को भी जताया.
मायावती ने कहा कि उनके विरोधी यह अफ़वाह फैला रहे हैं कि वह राजनीति से रिटायर होने वाली हैं लेकिन ऐसा नहीं है.
बहुजन समाज पार्टी को राजनीतिक मज़बूती देना उनका मिशन है जिसके लिए पार्टी प्रदेश के सभी उपचुनाव लड़ेगी.
इसके अलावा पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में भी वह अपने उम्मीदवार खड़ा करेगी.
गाहे-बगाहे उनके संन्यास पर लगने वाले कयासों पर मायावती ने एक्स पर लिखा था, "सक्रिय राजनीति से मेरा संन्यास लेने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता है.''
''जबसे पार्टी ने श्री आकाश आनन्द को मेरे ना रहने पर या अस्वस्थ विकट हालात में उसे बीएसपी के उत्तराधिकारी के रूप में आगे किया है तबसे जातिवादी मीडिया ऐसी फ़ेक़ न्यूज़ प्रचारित कर रहा है जिससे लोग सावधान रहें."
आगामी राज्य चुनावों पर है नज़र
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दरअसल दिल्ली-हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड और जम्मू-कश्मीर के चुनाव के लिए बीएसपी तैयारी कर रही है.
मायावती ने एससी-एसटी के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर केंद्र सरकार को घेरते हुए कहा, "जन अपेक्षा के अनुसार पुरानी व्यवस्था बहाल रखने के लिए केन्द्र द्वारा अभी तक कोई ठोस क़दम नहीं उठाना दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है."
कोर्ट के फ़ैसले के बाद भारत बंद का आह्वान किया गया था जिसका प्रदेश में मिला जुला असर रहा.
हालांकि इस बंद पर विपक्षी समाजवादी और कांग्रेस दोनों का समर्थन था लेकिन बीएसपी ने इस मुद्दे के ज़रिए अपनी राजनीतिक ज़मीन को फिर से हासिल करने की कोशिश की है.
2024 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी का खाता नहीं खुल पाया जबकि 2019 में पार्टी के पास दस सांसद थे.
यही हाल प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भी हुआ. 2022 के विधानसभा चुनावों में पार्टी का सिर्फ एक विधायक ही जीत पाया.
2019 में बीएसपी ने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन के तहत चुनाव लड़ा था लेकिन पिछला लोकसभा चुनाव उसने अकेले ही लड़ा.
इन चुनावों में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी, इंडिया अलायंस के घटक के तौर पर मैदान में थीं. मायावती ने इस अलायंस का हिस्सा बनने से इंकार कर दिया था.
वो विपक्ष की इंडिया अलायंस और केन्द्र में सत्ताधारी एनडीए दोनों से ही सामान दूरी बनाये रखने की बात करती रही हैं.
क्या है बीएसपी की नई रणनीति
लेकिन पार्टी अध्यक्ष चुने जाने के बाद की बैठक में मायावती के तेवरों से लगता है कि वो एक बार फिर अपने कोर मुद्दे बहुजन समाज की तरफ़ लौटना चाह रही हैं.
उनकी रणनीति बीएसपी को ओबीसी समाज यानी अन्य पिछड़ा वर्ग से जोड़ने की लगती है.
हालांकि 2007 में जब उत्तर प्रदेश में पार्टी की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी थी, उस वक्त सतीश चंद्र मिश्रा को आगे रखने से बीएसपी को ब्राह्मणों का समर्थन हासिल हुआ था.
लेकिन बाद में पार्टी के नेताओं के बिखरने से बीएसपी कमज़ोर होती चली गयी. अतीत में बहुजनों की सशक्त आवाज़ रही यह पार्टी वर्तमान में सियासी हाशिए पर चलती दिख रही है.
राजनीतिक विश्लेषक शरत प्रधान का कहना है, "बाज़ी मायावती के हाथ से निकल चुकी है, अब दलित वर्ग भी चन्द्रशेखर की तरफ़ देख रहा है. मायावती की पार्टी का ये हाल बीजेपी के साथ उनकी लुकाछिपी का नतीजा है. ये कोशिश अब सिर्फ़ खुद को ज़िंदा रखने की है, पार्टी को दोबारा खड़ा करने का प्रयास है."
राजनीतिक विश्लेषकों की राय से इतर, उत्तर प्रदेश में बीएसपी के प्रदेश अध्यक्ष विश्वनाथ पाल पूरे आत्मविश्वास में दिखते हैं.
उनका कहना है, "2012 में अयोध्या में ही बीजेपी के प्रत्याशियों को कहीं पांच तो कहीं आठ हज़ार वोट मिला था. लेकिन ये चर्चा नहीं हुई कि बीजेपी ख़त्म हो गयी है. अभी हम कटेहरी में ज़िला पंचायत का उपचुनाव जीते हैं जहां विधानसभा के उपचुनाव होने वाले हैं. उनमें भी बीएसपी को कामयाबी मिलने वाली है क्योंकि हमारा वोट वापस लौट रहा है."
क्या था सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला और भारत बंद
अनुसूचित जाति और जनजाति के आरक्षण में क्रीमी लेयर को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के विरोध में दलित और आदिवासी संगठनों ने बीती 21 अगस्त को भारत बंद बुलाया था जिसका असर बिहार,यूपी राजस्थान मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में देखने को मिला.
बंद को लेकर राजनीति भी तेज़ थी. एनडीए गठबंधन में ही केंद्रीय मंत्री जीतनराम मांझी ने भारत बंद का विरोध किया और इसे अनैतिक और स्वार्थी करार दिया.
केंद्रीय मंत्री और एनडीए के सहयोगी दल लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के अध्यक्ष चिराग पासवान ने बंद को नैतिक समर्थन दिया. बीएसपी, भीम आर्मी, सपा और कांग्रेस ने इस बंद का समर्थन किया था.
सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने अनुसूचित जाति और जनजाति में क्रीमी लेयर पर भी अपने विचार रखे थे.
फ़िलहाल अन्य पिछड़ा वर्ग आरक्षण पर क्रीमी लेयर लागू है. अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए नौकरी में वृद्धि पर भी क्रीमी लेयर का सिद्धांत लागू है.
क्रीमी लेयर आरक्षण प्राप्त कुछ वर्गों का वह तबका है जो वित्तीय और सामाजिक रूप से तरक्की कर गया है. लिहाजा उसे आरक्षण के इस्तेमाल का हक नहीं है.
जस्टिस बीआर गवई ने कहा कि अन्य पिछड़े वर्ग को मिले आरक्षण की तरह ही अनुसूचित जाति और जनजाति में भी क्रीमी लेयर आना चाहिए. पर उन्होंने यह नहीं कहा कि क्रीमी लेयर का निर्धारण कैसे किया जाएगा.
हालांकि इस मसले पर बीएसपी की रणनीति को लेकर वरिष्ठ पत्रकार और दो दशक से बीएसपी कवर करने वाले सैयद कासिम का कहना है, "बीएसपी को लग रहा है कि उसे एक बड़ा मुद्दा मिल गया है और इसके ज़रिए कोर वोट को रोकने का प्रयास है. बीएसपी का कोर वोट जाटव है और कहीं-कहीं अन्य जातियां भी उसके साथ थीं लेकिन 2024 के चुनाव में बीएसपी को इस कोर वोट में भी सेंध लगने से नुकसान हुआ है"
कांशीराम की बीएसपी बनाम मायावती की पार्टी
बीएसपी को कांशीराम ने मिशन के तौर पर खड़ा करने का प्रयास किया था जिसमें वह सफल भी हुए.
मायावती के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में पांच बार पार्टी की सरकार भी बनी, जिसमें 2007 में बहुमत की सरकार शामिल है लेकिन 2012 आते-आते मामला बिगड़ गया.
सत्ता से न सिर्फ़ पकड़ छूट गई बल्कि पिछले चुनावों में पार्टी हाशिए पर चली गयी.
अपने उदयकाल में बीएसपी ने कांशीराम की अगुवाई में पहले समाजवादी पार्टी से गठबंधन किया फिर गेस्ट हाउस कांड के बाद बीजेपी से और बाद में कांग्रेस के साथ भी गठबंधन किया.
2019 में मायावती ने पुरानी बातों को पीछे छोड़ते हुए समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया.
इस बार पार्टी को 10 लोकसभा सीटों पर सफलता भी मिली लेकिन पिछले चुनावों में वह बिना किसी गठबंधन के चुनावी समर में उतरी और सीटों की संख्या के मामले में 10 से शून्य पर आ गई.
वर्तमान में कांग्रेस के नेता और कभी बीएसपी के कद्दावर नेता के तौर पर जाने-पहचाने जाने वाले नसीमुद्दीन सिद्दीकी का कहना है, "जब हमारी (बीएसपी) सरकार 2012 तक थी तब हम अपने लोगों के लिए ठीक से काम नहीं कर पाए. जनता और काडर को जो उम्मीद थी वह नहीं हो पाया और इस वजह से हम चुनाव हारते चले गए".
सिद्दीकी के पास मायावती के शासनकाल में तकरीबन 18 मंत्रालयों का प्रभार था.
जब सिद्दीकी से प्रश्न किया गया कि बीएसपी काडर आधारित पार्टी थी और वह काडर अब कहां चला गया तो उन्होंने कहा कि इस सवाल का जवाब तो बीएसपी के नेता ही दे सकते हैं.
हालांकि सिद्दीकी कहते हैं कि वह अभी भी मायावती का सम्मान करते हैं लेकिन वह बीएसपी के बारे में ज़्यादा बात नहीं करना चाहते.
यही नहीं उन्होंने तो यह भी दावा किया कि अगले चुनावों में कांग्रेस की सरकार बनेगी.
बीएसपी के दोबारा खड़े होने के सवाल पर वरिष्ठ पत्रकार रचना सरन ने कहा, "जहां तक पार्टी के रिवाइवल की बात है तो पार्टी अभी भी खड़ी हो सकती है बशर्ते मायावती खुद को जनता के मुद्दों से कनेक्ट करें. आरक्षण का मामला ऐसा है जो बीएसपी के लिए अहम साबित हो सकता है लेकिन इसके लिए उसे सड़कों पर उतरना पड़ेगा, जिसके लिए कभी मायावती और कांशीराम जाने जाते थे. बीएसपी सड़क पर कांग्रेस से भी कम दिखाई दे रही है जिसकी वजह से उसके वोटों में बिखराव हुआ है."
बीएसपी का एसपी और कांग्रेस से कभी नरम कभी गरम रिश्ता
यूपी के बीएसपी अध्यक्ष विश्वनाथ पाल का कहना है, "बीएसपी का काडर अभी भी है जो पार्टी के लिए मज़बूती से खड़ा है. समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने संविधान और आरक्षण के नाम पर जनता को सिर्फ़ गुमराह किया है और वह लौटकर बीएसपी के पास ज़रूर आएगी."
समाजवादी पार्टी और बीएसपी के रिश्ते कभी एक जैसे नहीं रहे. यह ठंडे-गरम होते रहते हैं. ताज़ा मामला मथुरा के बीजेपी एमएलए के विवादित बयान का है जिसमें उन्होंने मायावती पर अभद्र टिप्पणी की.
इस मामले में मायावती के पक्ष में सबसे पहले उतरने वालों में अखिलेश यादव रहे.
बीएसपी सुप्रीमों ने पहले अखिलेश को धन्यवाद किया लेकिन बाद में उन्होंने गेस्ट हाउस कांड के बहाने समाजवादी पार्टी को एक बार फिर अपने निशाने पर ले लिया. उन्होंने गेस्ट हाउस कांड के लिए एसपी को ज़िम्मेदार ठहराया.
अखिलेश यादव ने मायावती के समर्थन में लिखा, "उप्र के एक भाजपा विधायक द्वारा उप्र की एक भूतपूर्व महिला मुख्यमंत्री जी के प्रति कहे गये अभद्र शब्द दर्शाते हैं कि भाजपाइयों के मन में महिलाओं और खासतौर से वंचित-शोषित समाज से आनेवालों के प्रति कितनी कटुता भरी है. भाजपा ऐसे विधायकों को प्रश्रय देकर महिलाओं के मान-सम्मान को गहरी ठेस पहुंचा रही है. अगर ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ भाजपा तुरंत अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं करती है तो मान लेना चाहिए, ये किसी एक विधायक का व्यक्तिगत विचार नहीं है बल्कि पूरी भाजपा का है. घोर निंदनीय!"
अखिलेश ने लिखा कि राजनीतिक मतभेद अपनी जगह होते हैं लेकिन एक महिला के रूप में उनका मान-सम्मान खंडित करने का किसी को भी अधिकार नहीं है.
बीजेपी विधायक राजेश चौधरी ने अपने बयान में कहा था कि बीजेपी ने मायावती को मुख्यमंत्री बनाकर ग़लती की. उन्होंने मायावती पर भ्रष्टाचार का आरोप भी लगाया.
उनके बयान पर अखिलेश यादव की प्रतिक्रिया पर मायावती पहले खुश दिखाई दीं लेकिन बाद में उन्होंने गेस्ट हाउस कांड का मुद्दा उठा दिया और कांग्रेस को भी निशाने पर ले लिया.
मायावती ने एक्स पर लिखा, "सपा जिसने 2 जून 1995 में बीएसपी द्वारा समर्थन वापसी पर मुझ पर जानलेवा हमला कराया था, तो इस पर कांग्रेस कभी क्यों नहीं बोलती है? जबकि उस दौरान केंद्र में रही कांग्रेसी सरकार ने भी समय से अपना दायित्व नहीं निभाया था."
कांग्रेस के नेता दीपक सिंह कहते हैं, "गेस्ट हाउस कांड के बाद कांग्रेस के नियुक्त राज्यपाल मोतीलाल वोरा ने मायावती को शपथ दिलाई थी. फिर 1996 के विधानसभा चुनाव में गठबंधन भी हुआ तो ये आरोप लगाना सही नहीं है कि कांग्रेस चुप थी. कांग्रेस ने संविधान के दायरे में रहकर संरक्षण दिया. हालांकि 1996 के उस चुनाव में कांग्रेस का नुकसान ज़्यादा हुआ था. उसके बाद बीएसपी ने भी यूपीए सरकार का बाहर से समर्थन किया था तो पुरानी बात कुरेदने से कोई लाभ नहीं है."
गेस्ट हाउस कांड के तकरीबन 24 साल बाद समाजवादी पार्टी से गिले-शिकवे भुलाकर बीएसपी ने गठबंधन किया जिससे उसको फ़ायदा हुआ.
इसके बाद मायावती ने आरोप लगाया था कि अखिलेश यादव अपना वोट नहीं ला पाए. गठबंधन टूट गया. हालांकि इसके बाद भी मायावती को लेकर एसपी का रुख ज़्यादा सख़्त नहीं था.
क्या था गेस्ट हाउस कांड
दो जून 1995 को बीएसपी ने समाजवादी पार्टी की सरकार से समर्थन वापस ले लिया था. मायावती अपने विधायकों के साथ लखनऊ में राज्य अतिथि गृह में मीटिंग कर रही थीं तभी समाजवादी पार्टी के नेता वहां पहुंच गए और विधायकों को ज़बरदस्ती अपने साथ ले जाने लगे.
उस दौरान बीजेपी के नेता ब्रह्म दत्त द्विवेदी और लालजी टंडन ने पहुंचकर स्थिति को संभाला था. बाद में मायावती बीजेपी के समर्थन से मुख्यमंत्री बनीं.
लालजी टंडन के सहयोगी रहे संजय चौधरी अब बीजेपी के प्रदेश प्रवक्ता हैं. उनका कहना है कि उस वक्त वो राजनीतिक कार्यकर्ता की हैसियत से वहां पर थे और देखा कि फोन लाइन और बिजली काट दी गयी थी.
मायावती एक कमरे में बंद थीं. ब्रह्म दत्त द्विवेदी और बीजेपी के नेता जब वहां पहुंचे उसके बाद पुलिस हरकत में आयी थी. चौधरी कहते हैं कि उस वक्त मायावती के साथ रहे नेता अब दूसरी पार्टियों में चले गए हैं.
नसीमुद्दीन सिद्दकी ने बताया कि उनके हाथ में भी चोट लगी थी और बिजली की सप्लाई रोक दी गयी थी, फोन भी काम नहीं कर रहा था.
जानकारों की राय है कि ये घटना यूपी और देश के सियासत का टर्निंग प्वाइंट थी जिसके बाद बीजेपी भी मज़बूत हुई.
1998 में उसने केंद्र में 13 महीने की गठबंधन सरकार बनायी. फिर 1999 मे पांच साल के लिए एनडीए की सरकार बनी. वो पहली गैर कांग्रेसी सरकार थी जिसने अपना कार्यकाल पूरा किया.
ये बात दीगर है कि इंडिया शाइनिंग और चार राज्यों के चुनाव नतीजों की वजह से तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पहले चुनाव करा दिया था जिसके बाद यूपीए की सरकार बनी थी.
मायावती की कश्मकश
मायावती एनडीए और इंडिया अलायंस दोने से समान दूरी बना कर रखना चाहती हैं लेकिन बीजेपी से उन पर नज़दीकी का आरोप लगता रहा है.
इसलिए बीजेपी को निशाने पर लेने के फौरन बाद वो कांग्रेस पर हमलावर हो गयी हैं.
कांग्रेस के नेता दानिश अली ने चुनाव से पहले आरोप लगाया था कि बीएसपी बीजेपी की बी टीम है और इसलिए इंडिया अलांयस का हिस्सा नहीं बनी है.
हालांकि मायावती इन आरोपों का कई बार जवाब दे चुकी हैं. उनका कहना है कि ये सिर्फ उनके मिशन के ख़िलाफ़ साज़िश है और उनकी विचारधारा के विपरीत है.
बीएसपी के एक रणनीतिकार ने नाम ना बताने की शर्त पर कहा कि कांग्रेस का जो इकोसिस्टम है वही ये भ्रम फैला रहा है कि बीएसपी के साथ बीजेपी मिली हुई है पर ऐसा नहीं है. पार्टी को वापसी के लिए एक अच्छे नेता और सही नैरेटिव की आवश्यकता है.
2024 के चुनाव के दौरान मायावती ने आकाश आनंद को जब पार्टी की ज़िम्मेदारियों से एक बयान के आधार पर मुक्त किया, तब से उनके ऊपर बीजेपी के साथ होने का आरोप और ज़्यादा लग रहा है.
मायावती ने आकाश आनंद को उस समय अपरिपक्व बताया था लेकिन चुनाव के बाद उनको फिर पद पर नियुक्त कर दिया और कई राज्यों के चुनाव की कमान उनके पास है.
उत्तर प्रदेश में 10 सीटों पर उपचुनाव है और यही बीएसपी के लिए अहम पड़ाव है.
वरिष्ठ पत्रकार रचना सरन का कहना है कि अगर बीएसपी इसमें कोई करिश्मा दिखाती है तो मायावती के लिए विधानसभा चुनाव से पहले एक अच्छा संकेत हो सकता है. लेकिन पार्टी का सड़क पर दिखना ज़रूरी है क्योंकि विधानसभा चुनाव 2027 में होने वाले हैं.
उत्तर प्रदेश की 10 सीटों के उपचुनाव को लेकर बीजेपी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की अगुवाई में रणनीति पर काम कर रही है.
हर सीट की ज़िम्मेदारी पार्टी के वरिष्ठ लोगों को मिली है. वहीं एसपी कांग्रेस के बीच सीटों के बंटवारे की बात चल रही हैं.
इस उपचुनाव में मिल्कीपुर महत्वपूर्ण सीट बन गयी है जहां से विधायक चुने गए अवधेश प्रसाद अब समाजवादी पार्टी के अयोध्या से सांसद बन गए हैं.
बीजेपी के सामने भी इस सीट को जीतने की चुनौती है. अयोध्या मंडल पहले बीएसपी का गढ़ रह चुका है लेकिन अब परिस्थिति बदल गयी है.
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