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Ye Jeevan Khel Mein
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Ye Jeevan Khel Mein

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About this ebook

Girish Karnad was one of modern India's greatest cultural figures: an accomplished actor, a path-breaking director, an innovative administrator, a clear-headed and erudite thinker, a public intellectual with an unwavering moral compass, and above all, the most extraordinarily gifted playwright of his times.

Ye Jeevan Khel Mein, the Hindi translation of Karnad's memoirs, This Life at Play, covers the first half of his remarkable life - from his childhood in Sirsi and his early engagement with local theatre, his education in Dharwad, Bombay and Oxford, to his career in publishing, his successes and travails in the film industry, and his personal and writerly life.

Moving and humorous, insightful and candid, these memoirs provide an unforgettable glimpse into the life-shaping experiences of a towering genius, and a unique window into the India in which he lived and worked.

LanguageEnglish
PublisherHarperHindi
Release dateMay 30, 2022
ISBN9789354894770
Ye Jeevan Khel Mein
Author

Girish Karnad

Girish Karnad (1938–2019) was a playwright, actor and director. His notable plays include, among others, Yayati, Tughlaq, Hayavadana, Naga-Mandala and The Dreams of Tipu Sultan. He worked in films and in TV across various languages – Kannada, Hindi, Tamil, Telugu, Malayalam, English and Assamese – and in a number of capacities, including as actor, screenwriter and director. He served as director of the Film and Television Institute of India (1974–75), chairman of the Sangeet Natak Akademi (1988–93), and director of the Nehru Centre, London (2000–3). His work brought him numerous honours, including multiple National Film Awards and Filmfare Awards, the Kalidas Samman, the Sangeet Natak Akademi Award, the Padma Shri, the Padma Bhushan and the Jnanpith Award.

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    Ye Jeevan Khel Mein - Girish Karnad

    Cover.jpg

    यह जीवन खेल में

    ‘साहित्य और रंगमंच से जुड़ी एक विराट प्रतिभा का शानदार, बेहद पठनीय संस्मरण।’

    —अमिताभ घोष

    ‘यह एक छोटे से शहर के उस लड़के का बहुत आकर्षक संस्मरण है जो दुनिया को अपने सपनों की दुनिया बनाने निकला। महत्वाकांक्षा, मेहनत, ज्ञान की एक अमिट भूख और अनुभव मिलकर इस जिज्ञासु जीवन में एक शुभ युति रचते हैं, लेकिन वास्तव में इस युवक को हमारी सदी के नाटककार के रूप में प्रेरित करने वाला तत्व है उसकी विलक्षण प्रतिभा। सहज स्पष्टवादिता से काम लेते गिरीश कर्नाड अपने उल्लेखनीय जीवन की कहानी बताते हैं—बहुत अच्छी तरह जिया गया एक समृद्ध जीवन। लेकिन यह एक नवस्वतंत्र राष्ट्र में, एक जवान होती पीढ़ी के कला के क्षेत्र में परंपरा और यथास्थिति को चुनौती देने वाली, आधुनिकता को अपनी शर्तों पर समझने और उसमें रहने की कोशिश करने वाली भाषा रचने की भी कहानी है। इस किताब को केवल एक असाधारण लेखक की कहानी के लिए ही नहीं बल्कि हमारी समकालीन संस्कृति की जड़ों के लिए एक घोषणापत्र के रूप में पढ़ें।’

    —अर्शिया सत्तार

    ‘एक आत्मकथा जो इस महाकाय की हर रचना जैसी ही जीवंत रूप से नाटकीय है, यह कागज़ पर नहीं बल्कि रंगमंच पर खुलती सी लगती है।’

    —भारद्वाज रंगन

    ‘इसे पढ़ते लगता है जैसे वह हम से बात कर रहे हों। कोई हिसाब-किताब बराबर नहीं किया जा रहा, कुछ साबित नहीं किया जा रहा। बस याद करना, हर पंक्ति के पीछे हँसी के साथ, हर दूसरी-तीसरी पंक्ति के पीछे मनन, और अनुच्छेदों के बीच, कुछ उदासी। कर्नाड का बेहद मोहक काम।’

    —गोपालकृष्ण गाँधी

    यह जीवन खेल में और कई बातों के अलावा सिरसी में बीते उस बचपन का एक मंत्रमुग्ध कर देने वाला विवरण है जिसने निर्णायक रूप से, मनुष्य और लेखक गिरीश कर्नाड को गढ़ा। बहुसांस्कृतिक दुनिया, उसकी रंगमंच परंपरा के उनके निर्बाध रसास्वादन को आनंदपूर्वक पढ़ें, और समझें कि इन सबने कैसे उनकी अद्भुत प्रतिभा का पोषण किया। धारवाड़ में विद्यार्थी जीवन के दिनों के ब्योरे की जीवंतता और अंतरंगता ने मुझे चकित कर िदया। उस समय हुए विचारों और आदर्शों से परिचय ने ही उन्हें वह सिद्धान्तवादी और अडिग दिशाबोध दिया जो हमारे सांस्कृतिक जीवन के हर क्षेत्र में और सार्वजनिक सरोकारों वाले बुद्धिजीवी के रूप में, उनके नेतृत्व की विशिष्टता रहा।’

    —मारिया औरोरा कोटो

    ‘कैसा अद्भुत आदमी। कितना अद्भुत जीवन। उस बीते युग का एक स्मरणपत्र जब एक अच्छा इंसान होने का मतलब एक सार्वजनिक सरोकारोंवाला व्यक्ति होना होता था।’

    —नागेश कुकुनूर

    ‘लेखक, अभिनेता, निर्देशक और प्रशासनिक अधिकारी के रूप में आधुनिक भारत के सांस्कृतिक इतिहास में गिरीश कर्नाड का योगदान अमिट है। अब... इस गर्मजोशी से भरे, विनोदी और गहरी समझदारी से भरे संस्मरण के रूप में उन्होंने अपने देहावसान के बाद, हमें संजोए रखने के लिए एक उपहार दिया है। इसकी सामग्री से मुग्ध और शिक्षित होता हुआ मैं इसे एक बार में पढ़ गया हूँ।’

    —रामचंद्र गुहा

    ‘किसी जीवन की कहानी उतनी ही समृद्ध होती है, जितना वह जीवन जिसे वह दर्ज करती है। शीर्षक कहता है कि यह जीवन खेल में लगा है। लेकिन आप इसमें निहित अगाम्भीर्य के भुलावे में न आएँ। दरअसल गिरीश कर्नाड का संस्मरण लोगों, स्थानों, आयोजनों, पड़ताल, जानकारियों, समझदारियों, टिप्पणियों और इन सबसे बढ़ कर, रचनात्मक अभिव्यक्ति से भरा है जो कविता से फिल्म निर्माण, फिर अभिनय की ओर बढ़ती है और इस सबके बीच रंगमंच प्रबल स्थायी स्वर है। यहाँ अगंभीरता है तो बस कहन के अंदाज़ में, सिरसी गाँव से धारवाड़, वहाँ से बॉम्बे और बॉम्बे से ऑक्सफोर्ड और फिर वापस आने के क्रम में गिरीश कर्नाड के खुद पर स्पष्टवादिता, और कुछ विडंबनात्मक ढंग से निगाह डालने में।’

    —शांता गोखले

    ‘एक लेखक के बनने की प्रक्रिया की हृदयग्राही झलकियों से भरा, शानदार उपलब्धियों और दोस्तों से समृद्ध जीवन का एक शानदार और अंतरंग लेखाजोखा।’

    —शशि देशपांडे

    ‘स्वर्गीय गिरीश कर्नाड एक महान व्यक्ति, विलक्षण मौलिक रचनाकार थे, उनके विचार प्रभावशाली, उनकी उपस्थिति मंत्रमुग्ध करनेवाली होती थी, उन्होंने अपनी उपस्थिति से भारतीय रंगमंच और सिनेमा पर बड़ी छाप छोड़ी। कभी विनोदपूर्ण और कभी विचलित कर देने वाली और हमेशा गहरी समझदारी से भरा यह जीवन खेल में, हमें हमारे देश की महानतम राष्ट्रीय निधियों में से एक के जीवन और समय की याद दिलाता है, यह उनके दुर्जेय कलात्मक कार्य का पूरक है।’

    —शशि थरूर

    समर्पण

    धारवाड़ 1973

    आई (मेरी माँ), बप्पा (मेरे पिता) और मैं दिन का खाना खा रहे थे। मेरी पहली फिल्म संस्कार को राष्ट्रपति का स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ था। मेरी दूसरी फिल्म वंश वृक्ष काफी सफल फिल्म थी और उसे सर्वोत्तम निर्देशन के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। मेरी नई फिल्म काडू निर्माण के आख़री चरण में थी। मुझे संगीत नाटक अकादमी का पुरस्कार मिल चुका था। और अब मुझे फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया का निर्देशक बनाया गया था। घर आत्मतोष से गमक रहा था।

    आई ने बप्पा की ओर देखा और बोलीं, ‘और हम सोच रहे थे कि इसे पैदा न करें।’

    बप्पा का चेहरा लाल हो गया। ज़रा हकलाने के बाद, किसी तरह बोले, ‘यह तुमने सोचा था, मैंने नहीं। अब यह सब क्यों कह रही हो?’ और अपना चेहरा सामने रखी प्लेट में बस गड़ा ही लिया।

    मुझे इस बारे में और जानना था। मैंने आई से पूछा तो उन्होंने बतायाः ‘तू पेट में आया तो हमारे पहले ही तीन बच्चे थे। मैंने सोचा इतने काफी हैं, इसलिए हम पूना की एक डॉक्टर मधुमालती गुने के पास चले गए।’

    ‘फिर?’

    ‘उन्होंने कहा था कि मैं क्लीनिक में मिलूंगी, लेकिन मिली नहीं। हमने घंटाभर इंतज़ार किया फिर चले आए।’

    ‘और फिर?’

    ‘कुछ नहीं। हम फिर वहाँ नहीं गए।’

    मैं सन्न रह गया। तब मैं पैंतीस बरस का था। लेकिन फिर भी मैं इस सम्भावना के बारे में सोच कर बेजान सा हो गया कि यह दुनिया मेरे बिना ही चलने वाली थी। कुछ देर अपने आस-पास से बेखबर बैठा मैं अपने न होने की बात पर विचार करता रहा। अचानक एक विचार आया। कुछ अचकचाते हुए मैंने अपनी छोटी बहन के बारे में पूछा, ‘तो फिर लीना... कैसे?’

    आई ने कुछ शर्माते हुए बताया, ‘ओहो, तब तक हम ऐसा कुछ सोचना छोड़ चुके थे।’ वह हँस पड़ीं। बप्पा एकाग्रता से अपनी प्लेट को निहारते रहे।

    अगर डॉक्टर अपने वादे के अनुसार क्लीनिक पहुंच जाती तो यह स्मृतियाँ और उनको कहने वाला, इस दुनिया में मौजूद न होते। इसलिए, मैं अपनी आत्मकथा उस व्यक्ति की स्मृति को समर्पित कर रहा हूं जिसकी वजह से यह सब संभव हो सका: डॉक्टर मधुमालती गुने।

    गिरीश कर्नाड

    बैंगलौर, 19 मई 2011

    1. प्राक्

    पूर्वरंग

    मेरी माँ का नाम कृष्णाबाई था। कृष्णाबाई मानकीकर। लेकिन वे परिवार के बड़े लोगों के लिए कुट्टाबाई थीं और अपने से छोटों के लिए कुट्टक्का। 1984 में, जब वह बयासी बरस की थीं, मेरी भाभी सुनन्दा ने उन्हें अपनी आत्मकथा लिखने को राजी कर लिया। वह आत्मकथा तीस पृष्ठों में, मेरे पिता की एक पुरानी डायरी में, उनके रोज़ के हिसाब लिखने के बाद छूटी खाली जगह में, कोंकणी में लिखी गई थी। उस आख्यान को पढ़ने से पहले तक मैं और मेरे भाई-बहन उन ढेरों दुःश्चिंताओं और दुःस्वप्नों से समझौते करते जूझते रहे थे जो बचपन की रातों में हमें परेशान किए रखते थे। उनकी आत्मकथा ने उन डरों को सामने ला कर उन्हें हल करने में मदद की।

    कुट्टाबाई का जन्म 1902 में हुबली में हुआ था। लेकिन वह बचपन में ही मद्रास एंड सदर्न मराठा रेलवे में काम करने वाले अपने पिता के साथ पूना चली गई थीं। उस समय पूना सामाजिक और कलात्मक उत्साह से सराबोर था। आधुनिकता की चुनौतियों का सामना मराठी भाषा सामाजिक अनुभव के नए क्षेत्रों का संधान कर रहे साहित्य से कर रही थी, उसकी ऊर्जावान पत्रकारिता मांग कर रही थी कि मराठी समाज स्वयं को अजा़दी के लिए तैयार करे। फिर मराठी रंगमंच था जो बाल गंधर्व और केशवराव भोंसले जैसे अभिनेताओं के बूते व्यवसायिक रूप से अपने चरम पर था, लेकिन अभिजात वर्ग भी मराठी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने के लिए उसका स्वागत कर रहा था। कुट्टाबाई पढ़ने की भारी व्यसनी थीं और पूना के यह कुछ बरस उनके जीवन के कुछ सबसे सुखद बरसों में से थे। इस शहर में शिक्षा के भरपूर अवसरों का होना उनको सबसे ज़्यादा उत्साहित करता था। महाराष्ट्र में मिशनरियों, समाजसुधारकों और सरकार के नेतृत्व में महिला शिक्षा आंदोलन प्रबल था और इससे खुले अवसर एक पीढ़ी पहले तक अकल्पनीय थे। ‘सरलाबाई नायक नाम की किसी स्त्री ने तो एमए तक किया था,’ पिचहत्तर बरस बाद वे याद करती हैं।

    लेकिन जब वे नौ बरस की थीं और मराठी की तीसरी कक्षा में पढ़ती थीं, उनके पिता का तबादला अचानक एक छोटे से शहर गडग में हो गया। यहाँ कुट्टाबाई ने अगले कुछ बरसों में झेली अनेक निराशाओं में से पहली का सामना किया। गडग में पढ़ाई का मध्यम कन्नड़ थी जो उन्हें एकदम शुरू से सीखनी पड़ी। कन्नड़ का साहित्य अभी अपने मध्ययुगीन नौबन्ध से उभरा नहीं था। सच तो यह है कि मराठी परिवेश के मोह से ग्रस्त लोग खुलेआम कन्नड़ संस्कृति को पिछड़ा कहते। गडग सामाजिक रूप से रूढ़िवादी था, वहाँ लड़कियों की पढ़ाई की सुविधा नहीं थी।

    वे लिखती हैं: ‘मैं अपने स्कूल की प्रधानाचार्या के पास पहुंच रोने लगी। मैंने कहा, ‘मैं गडग नहीं जाना चाहती। मैं और पढ़कर बीए करना चाहती हूँ। और वहाँ तो कन्नड़ के अलावा कुछ भी नहीं है।’ प्रधानाचार्या और उनकी बहन, जो हुज़ूरपगा (लड़कियों का एक प्रतिष्ठित विद्यालय) में पढ़ाती थीं, हमारे घर आईं और मेरे पिता से मेरी हिमायत की: ‘कृष्णी में शिक्षा पाने की भूख है। आप उसे यहीं रहने दें। वह हुजूरपगा के होस्टल में रह सकती है। आपको उसकी पढ़ाई के लिए कुछ भी खर्च नहीं करना पड़ेगा। उसके रहने-खाने का सारा खर्चा सरकार उठाएगी।’ लेकिन मेरे माता-पिता इसके लिए माने नहीं।

    उन्हें डर था कि अगर उसे अकेले छोड़ दिया गया तो उसे ईसाई बना लिया जाएगा। इसलिए कुट्टाबाई को गडग जाना पड़ा और एक कन्नड़ विद्यालय में प्रवेश लेना पड़ा जहाँ अपनी कक्षा में वह अकेली लड़की थी। लगभग आधी सदी बाद भी जब वे मुझे यह सब बता रही थीं, उस घटना को याद करके उनकी आंखें भर आई थीं।

    रजस्वला हुईं तब कुट्टाबाई अविवाहित ही थीं। रिश्तेदारों और पड़ोसियों से इस शर्मनाक बात को छुपाने की प्राणपण से महीनों तक की गई कोशिशों के बाद आखिरकार उनके परिवार को उनके लिए गोकर्ण परिवार का लड़का मिल ही गया।

    उनकी शादी हो गई। उनका एक बेटा हुआ: भालचंद्र। और दो ही बरस बाद, उनके पति की एनिमिया और मलेरिया से मृत्यु हो गई। उनके सास-ससुर ने उनसे मिलने आना भी ज़रूरी नहीं समझा। वह लिखती हैं: ‘मेरे पिता के दिए गहनों के अलावा मेरे पास एक पैसा नहीं था। एक लाइफ इंश्योरेंस पॉलिसी थी भी तो किसी के भी उसकी किस्तें भरने की ज़रूरत न समझने के कारण वह भी लैप्स हो गई थी।’

    इस तरह कृष्णाबाई और उनका नन्हा बेटा उनके माता-पिता के पास गडग वापस आ गए। कृष्णा के लिए भविष्य की कोई आस नहीं बची थी।

    तब—और आज भी—आमतौर पर भारत में मध्यवर्ग के वंचित किस्म के परिवारों की विधवाओं का यही भाग्य था। सौभाग्य से 1920 के दशक में चित्रपुर सारस्वत ब्राह्मण समुदाय ने विधवाओं के सिर उस्तरे से मूंडने का चलन छोड़ दिया था, इसलिए कुट्टाबाई के घुटनों तक पहुँचते लंबे बाल नाई के उस्तरे से बच गए।

    आई

    इतनी कठिन स्थिति में भी कुट्टाबाई पढ़ाई करने की ठाने थीं। वह कुछ बहुत खास हासिल करना चाहती थीं, सम्भव हो तो डॉक्टर बनना चाहती थीं। हालांकि गडग बॉम्बे स्टेट के दूरदराज़ इलाके में था लेकिन वहां से ट्रेन से एक ही दिन में पूना और बॉम्बे पहुंचा जा सकता था। लेकिन उनके परिवार में किसी की भी न इच्छा थी और न ही इतना समय था कि वह उनके साथ इनमें से किसी शहर में जा कर उनका नाम किसी शिक्षण संस्थान में लिखवा देता।

    उस समय उनकी मदद करने के लिए उनके जीजा मंगेश राव सशित्तल आगे आए। वह मामलातदार थे, सरकारी राजस्व विभाग के मझोले दर्जे के एक अधिकारी। पहले हावेरी और फिर धारवाड़ में, उनके घर बहुत बड़े अनाथालय जैसे थे। अपनी सात संतानों के अलावा, हमारी मौसी शांता और मंगेश राव ने दूर के रिश्तेदारों के कई अनाथ बच्चों को आश्रय दिया हुआ था।

    मंगेश राव को यह निश्चित करने का जूनून था कि बच्चों की यह पूरी जमात अच्छी तरह से पढ़-लिखकर सुसंस्कृत बने। एक शिक्षक एकदम सुबह ही बच्चों को संस्कृत पढ़ाने के लिए आ जाते। शाम को बच्चे जैसे ही विद्यालय से वापस आते, एक अन्य शिक्षक उन्हें पढ़ाने के लिए दरवाज़े पर ही खड़े मिलते। स्वयं मंगेश राव भी जिज्ञासु, उत्साही किस्म के अध्यापक थे और घर में बच्चों को उनके पाठ याद करवाने में घंटों बिताते थे। इस व्यस्त प्रशिक्षण कार्यक्रम से कुट्टाबाई को स्वयं को शिक्षित करने में मदद मिली। वह लिखती हैं: ‘मैं बच्चों के साथ पढ़ने के लिए बैठ जाती थी क्योंकि मुझे पढ़ना अच्छा लगता था। अगले पांच-छह महीने में मैं अंग्रेज़ी के कक्षा चार के स्तर पर पहुँच गई—बीजगणित, अंश के सवाल, समय-कार्य-गति आदि से जुड़े सवाल। एक विषय संस्कृत अनुवाद भी था, जिसमें मुझे महारत हासिल थी। और मैंने निश्चय किया कि मैं घर में ही पढ़ाई करके मैट्रिक की परीक्षा दूंगी। उन दिनों मेडिकल कॉलेज में दाखिले के लिए मैट्रिक की पढ़ाई काफी होती थी और मैं डॉक्टर बनने को व्याकुल थी।’

    लेकिन मंगेश राव की बदली बैलहोंगल हो गई जो एक काफी बड़ा गाँव ही था, वहां पढ़ाई की कोई सुविधा नहीं थी। एक बार फिर कुट्टाबाई को, कुछ छोटे बच्चों के साथ, एक अस्थाई इंतजाम के तहत धारवाड़ जाना पड़ा।

    कुट्टाबाई बताती हैं: ‘मेरे बहनोई को अक्सर अपने काम के कारण बेलगाम, अदालतों में आना होता था। तब वे हमारे एक रिश्तेदार डॉक्टर (रधुनाथ) कर्नाड के घर ठहरते थे। वहाँ उन्होंने अस्पताल में नर्सों को काम करते हुए देखा तो उन्हें मुझे वहाँ भेज कर नर्स के रूप में प्रशिक्षित करने का विचार आया। उन्होंने डॉक्टर से पूछा कि क्या इसे भी नर्सिंग के कोर्स में दाखिला मिल जाएगा। डॉक्टर मान गए। मैंने विरोध किया कि मैं तो चिकित्सा शास्त्र पढ़कर डॉक्टर बनना चाहती हूँ। लेकिन मेरे बहनोई ने ज़ोर दिया कि मैं नर्सिंग का प्रशिक्षण लेते हुए भी अपनी पढ़ाई कर सकती हूँ और परीक्षा दे सकती हूँ। उन्होंने यहाँ तक कहा कि वे मुझे पढ़ाने के लिए कोई ट्यूटर ढूंढ लेंगे।

    ‘उन्होंने मुझे दाई के एक बरस के कोर्स में दाखिला दिला दिया और चले गए। हमारे पूरे परिवार में एक वही थे जो मेरी मदद करना चाहते थे, इसलिए मेरे पास उनकी बात मान लेने के अलावा कोई चारा भी नहीं था। मेरे पास न तो पैसा था, न गहने। माँ ने मुझे एक हार, एक सोने की बंदी और कलाइयों में पहनने के लिए चार या पाँच तोले के तोड़े दिए थे। मुझे पता नहीं कि हार के अलावा बाकी गहने कहाँ गायब हुए। मेरे विवाह के समय मेरी सास ने अपना पारंपरिक पुतली हार मुझे दिया था जो मेरे पेट तक पहुंचता था। घर लौटते हुए उन्होंने वह हार वापस ले लिया। उस समय मैंने इस सब पर ध्यान ही नहीं दिया।

    ‘मैंने दाई के प्रशिक्षण के लिए बेलगाम में दाखिला लिया तो मेरे वहाँ ठहरने की समस्या उठी। मुझे हर महीने बीस रुपये की छात्रवृत्ति मिलती थी। अस्पताल में सिर्फ हेड नर्स के ही लिए क्वार्टर था। डॉक्टर ने कहा कि मैं उनके घर में रह सकती हूँ। मेरे पास उनके इस प्रस्ताव को स्वीकार करने के अलावा चारा नहीं था। किसी रोग से ग्रसित डॉक्टर की पत्नी पूरी तरह बिस्तर पर पड़ी थीं। न नहा सकती थीं, न उठ या चल फिर सकती थीं। उनके पास ही एक स्टूल रखा था जिस पर खाना रखा जाता था। घर में एक रसोइया और उनकी देखभाल के लिए एक नर्स थी।

    ‘डॉक्टर बहुत ही खूबसूरत थे। लगभग छह फीट लंबे। घुंघराले बाल। गोरा रंग। किसी को भी आकर्षित कर ले, ऐसी चाल। आकार न मोटा, न पतला। वह अस्पताल जाते हुए हैट पहनते थे जिसकी वजह से लोग उन्हें एंग्लो-इंडियन समझते थे। उस समय वे चौंतीस-पैंतीस बरस के थे। डॉक्टर ने मुझसे पूछा कि क्या तुमने पुनर्विवाह के बारे में सोचा है, और यह विचार मेरे दिमाग में घर करने लगा। उस समय मैं बाईस बरस की थी।’

    यूं डॉक्टर के घर कुट्टाबाई के वे पाँच बरस शुरू हुए जो हमारी किशोरवय में हम भाई-बहनों को घायल किए रहे। यह सच है कि अंततः उन्होंने विवाह कर लिया था, लेकिन इस दौरान उनका रिश्ता कैसा रहा था, क्या वह शारीरिक था? यह विचार मात्र ही कि हमारी माँ का एक विवाहित पुरूष के साथ अनैतिक सम्बन्ध रहा था-भले ही वे हमारे पिता थे-बेहद पीड़ादायक था। जब हम किशोर थे, तब अगर मैं इस बात का इशारा भर देता कि वे कभी-कभार साथ सोते रहे होंगे, मेरी बहनें गुस्से से भर जातीं या फूट-फूट कर रोने लगती थीं। कुट्टाबाई की आत्मकथा ने हमारी सनकी चिंताओं के स्पष्ट उत्तर दिए और उनसे हमें शांत होने में बहुत मदद मिली, हालांकि तब तक हमने तय कर लिया था कि यह दिखावा करना कि इतिहास हमारे लिए कोई मायने नहीं रखता, समस्या से निबटने का ज़्यादा परिपक्व तरीका है।

    बहरहाल, मुझे हमेशा ही इस बात में कुछ पेंच सा लगता रहा और ताज्जुब भी होता रहा कि मंगेश राव क्या सोच कर एक खूबसूरत युवा विधवा को यूं ही एक पैंतीस वर्षीय विवाहित व्यक्ति को सौंप गायब हुए होंगे? उस दौर के हिंदू समाज के कौन से मानदडों ने समाज के इस स्तम्भ को इस बेहद असामान्य बात के लिए औचित्य उपलब्ध करवाए होंगे? उन्होंने सहज ही यह तो नहीं ही मान लिया होगा कि यह स्थिति इन दोनों को स्वतः ही विवाह की ओर ले जाएगी। वास्तव में ऐसा हुआ भी नहीं। क्या वह यह माने बैठे थे कि सारस्वत ब्राह्मण समाज के संस्कार इन दो जवान लोगों को संयम की संकरी राह पर रखेँगे? या फिर उन्होंने यह निर्णय ले लिया था कि यह एक निराशाजनक स्थिति है, एक विधवा का कोई भविष्य नहीं है और वह उसकी मदद करते अपना समय बर्बाद नहीं कर सकते थे? जो भी हो, मंगेश राव हमारे परिवार के पुराण पुरुष साबित हुए।

    अगले पाँच बरस डॉक्टर ने विवाह के बारे में आगे कोई बात नहीं की। उन दिनों पहली पत्नी के ज़िंदा रहते दूसरा विवाह करना अवैध नहीं था। कुट्टाबाई कहती हैं, ‘महाराष्ट्र में कई पुरुषों की चार-पाँच पत्नियाँ थीं। लेकिन डॉक्टर लोगों की बातों से डरते थे।’ वह यह नहीं बतातीं कि डॉक्टर के डर क्या थे, बहरहाल यह स्पष्ट है कि उनका डर दो विवाह करने को ले कर इतना नहीं था जितना कि विधवा से विवाह करके होने वाली बदनामी को लेकर था।

    उन्होंने अपना नर्सिंग का कोर्स तीन बरस में खत्म कर के नौकरी की खोज शुरू कर दी। बेलगाम के सिविल सर्जन ने पेशकश की कि अगर वे उनके घर में रह कर उनकी बीमार पत्नी की देखभाल करें तो वह आगे पढ़ाई के लिए उन्हें लंदन भिजवा देंगे। वह सीधे मना नहीं कर पाईं इसलिए कह दिया कि मेरा परिवार इस बात के लिए राजी नहीं होगा। एक बड़े अस्पताल में नौकरी पाने के लिए वह अकेली दूर बैंगलोर तक गईं लेकिन उन्हें वहाँ नौकरी नहीं मिली क्योंकि उनकी अंग्रेज़ी़ वहाँ के एंग्लो-इंडियन स्टाफ के स्तर की नहीं थी। नौकरी के लिए बाहर जाना और खाली हाथ बेलगाम में डॉक्टर की शरण में लौटना उनके जीवन में बार-बार होने लगा।

    ‘हमारी अंतरंगता बढ़ चुकी थी लेकिन अब लोगों के कटाक्ष मैं झेल नहीं पाती थी। फिर 1928 में डॉक्टर का तबादला धारवाड़ के सिविल अस्पताल में हो गया। उन्होंने मुझे बताया कि वहाँ एक स्टाफ नर्स की जगह खाली है और मुझे उसके लिए आवेदन देना चाहिए। इस तरह मैंने धारवाड़ के सिविल अस्पताल में नौकरी शुरू की। एक और बरस बीत गया और वह अभी भी आगे बढ़ने में रुचि नहीं दिखा रहे थे। फिर मैंने ही कदम आगे बढ़ाने का फैसला किया।

    ‘मैंने उनसे कहा कि आप का लिहाज करके मैंने काफी जहरीली बातें सुनी हैं, क्या अब मुझे मझधार में छोड़ देंगे? मैंने ज़ोर देकर कहा कि आप अपना तबादला कहीं और करवा लें; इतनी दूर जहाँ विधवा से विवाह करने की बदनामी हम तक न पहुँच पाए। हम शादी करके वहां चले जाएंगे।’

    डॉक्टर की अनिच्छा पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। सारस्वत ब्राह्मण समाज अपने बच्चों को साहसी बनने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए नहीं जाना जाता। सारस्वत ब्राह्मण बच्चों को हमेशा ही सुरक्षित कदम उठाना सिखाया जाता है। डॉक्टर बहुत ही साधारण आर्थिक स्थिति वाले एक लम्बे-चौड़े परिवार में पैदा हुए थे, पढ़ाई के लिए उन्हें बचपन में अपने चचेरे-तएरे-ममरे भाइयों के घरों में रहना पड़ा था। जोखिम उठाने का खतरनाक विचार उन्हें सहमा देता था। उन्होंने अपने जीवन में केवल स्थिरता की कामना की थी, शांति की नहीं बस अशांति की किसी भी संभावना से दूरी।

    उन्हें इतिहास पसंद था लेकिन चिकित्साशास्त्र के क्षेत्र में इसलिए चले गए क्योंकि तब उस विषय के भारतीय छात्रों के लिए खास छात्रवृत्तियां थीं। और फिर वे नियमित आय से मिलने वाली सुरक्षा की आशा में जल्दी ही सरकारी नौकरी में चले गए।

    उन्होंने शव परीक्षण में विशेषज्ञता ली क्योंकि इससे और आमदनी होती थी, इस क्षेत्र में उनका काम इतना अच्छा रहा कि सरकार ने उन्हें ‘राव साहब’ की उपाधि दी। वे हमें विदेश जा कर नाम कमाने वाले अपने ‘प्रतिभाशाली’ साथियों के बारे में प्रशंसाभरी बातें बताते लेकिन उन्हें खुद यह कभी न सूझा कि वह भी नए अवसरों का उपयोग करके अपनी स्थिति को बेहतर बना सकते हैं।

    उन्होंने हमें, अपने बच्चों को, हर कदम पर सावधानी बरतने की आवश्यकता और बहुत महत्वाकांक्षी न होने के फायदों पर ज़ोर देने की बात समझाई। वे हमें बार-बार चेतावनी देते कि ‘भविष्य की सुख-सुविधाओं के लिए वर्तमान सुख का बलिदान करना होगा।’ हमें बाकी लोगों जैसा ही होना चाहिए, बाकी लोगों की तरह ही जीना चाहिए। औरों से अलग दिखने का प्रयास करना मूर्खता है। उनके पूरे जीवन का एकमात्र साहसभरा काम एक विधवा से विवाह करना था और वहाँ भी श्रेय निःसंदेह हमारी माँ को ही जाता है।

    आखिरकार वे अलग-अलग श्री वैद्य से मिलने बॉम्बे पहुँचे जो वैदिक अनुष्ठान के अनुसार विवाह करवाते थे। उन्होंने सभी चीज़ों का इंतज़ाम किया हुआ था, मंगलसूत्र तक का। आई लगभग आह भरते हुए लिखती हैं, ‘आखिरकार अग्नि को साक्षी मानकर हमारा विवाह हो गया। बस मैं ही जानती हूँ कि उन पाँच-छह बरसों में मैंने कितना मानसिक कष्ट झेला।’

    इस घटना को दर्ज करने के बाद बहुत जल्द कृष्णाबाई की आत्मकथा अचानक समाप्त हो जाती है। पूछने पर वह हँसते हुए कहती हैं, ‘कहने को और क्या था? एक एक करके तुम सब आ गए। यही संसार है!’

    बाद में आई अक्सर कहती थीं कि उन कठिन वर्षों को छोड़ उनका जीवन उल्लेखनीय रूप से सुखी था। वह अपने बच्चों, पोते-पोतियों, आश्रितों और नौकरों से घिरी हुई थीं जो जल्दी ही परिवार के सदस्य बन गए थे। वह उत्साह से भरी रहती थीं, दुनिया भर में यात्रा करती थीं, दोस्त बनाती थीं, ऑल इंडिया रेडियो धारवाड़ के लिए कोंकणी में कार्यक्रम लिखती थीं। उन्होंने अपने बच्चों को अपने पति के सावधानीपूर्वक जीवन जीने के दर्शन को ठुकराने को प्रेरित किया और जीने के अवसर थाली में परोस कर मिलने के बावजूद गृहणी बन कर जीने वाली अपनी बेटियों को कभी माफ नहीं किया। खुद वे नब्बे बरस से ऊपर की उम्र में नर्मदा बचाओ आंदोलन के समर्थन में एक सार्वजनिक प्रदर्शन में भाग लेतीं, एक तख्ती लिए तेज़ धूप में बैठी रही थीं।

    फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टिट्यूट आॅफ इंडिया (एफटीआईआई) का निर्देशक होते जब मैं शहर आने-जाने के लिए दफ्तर की जीप इस्तेमाल करता था, तब उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि इंस्टिट्यूट के डायरेक्टर की माँ होने के कारण वे दफ्तर की जीप में घूमती हुई नज़र आना पसंद नहीं करेंगी। वह विदेश से मंगवाई गई लिमोजिन का इस्तेमाल करने पर ही ज़ोर देती थीं। और मैं जानता था वह मानती हैं कि वे खुद मुझ से बेहतर निर्देशक साबित होतीं।

    लेकिन उन्होंने कभी भी इस बात पर अफसोस करना बंद नहीं किया कि मेरे पिता की पत्नी या हमारी माँ होने के अलावा, उनके पास अपनी उपलब्धि के रूप में कुछ भी नहीं था। वह दुःखी जीव नहीं थीं, असंतुष्ट थीं। उनकी आत्मकथा के कई मसौदों में से एक पैराग्राफ यूं शुरू होता हैः ‘कभी-कभी मैं इस एकाकी जीवन से थक जाती हूँ। मैं उम्र के इस पड़ाव पर पहुँच चुकी हूँ पर किसी के खास काम नहीं आ पाई हूँ। अब, अपने जीवन के उन्यासीवें वर्ष के कगार पर, पीछे मुड़कर देखने पर मुझे अपनी गलतियों के अलावा कुछ नहीं दिखता। मैं बचपन से ही (हर बात में) असफल रही हूँ। मैंने जो चाहा, वह हासिल नहीं हुआ।’ और कहीं और उन्होंने लिखा है: ‘अक्सर जब क्रोध या गहरी उदासी मन पर हावी हो जाती है तब मुझे लगता है कि मुझे अपने विचार लिख लेने चाहिएं। मैं अपने जीवन में, अपनी एक भी इच्छा पूरी नहीं कर पाई। मैं बहुत पढ़ना चाहती थी। बीए या एमए करना चाहती थी, गाना और हारमोनियम बजाना सीखना चाहती थी, और बहुत पढ़ना-लिखना चाहती थी। पढ़ने के अलावा कुछ हासिल नहीं हुआ।’

    अपने नाटक नाग-मंडल पर समाजशास्त्री वीना दास के साथ विचार-विमर्श करते हुए मैंने पारंपरिक शब्दों में उपसंहार का सार प्रस्तुत कियाः ‘और फिर रानी को अपने पति और बच्चे वापस मिल गए और वह सदा सुखी रही।’ वीना बोल उठीं: ‘नहीं-नहीं, वह अपने व्यक्तित्व को अपने घरेलूपन में डुबो कर अकिंचन बन गई।’ मुझे लगता है कि कृष्णाबाई भी उनके इस निष्कर्ष से सहमत होतीं।

    कृष्णाबाई गुस्सैल थीं और उन्होंने खुद मुझे बताया था कि जब भालचंद्र धारवाड़ में सशित्तल परिवार के साथ रहता था, उनकी मंगेश राव के साथ उनके परिवार के बीच में अपने बेटे की स्थिति को लेकर लड़ाई चलती रही थी। उस घर में लगभग पंद्रह बच्चे रहते थे और उनके बीच अक्सर खटपट होती रही होगी। लेकिन अपने ही ढंग से उन्होंने उनके लिए जो कुछ किया, उसके लिए उनकी आभारी रहीं। जब उनकी बहन शांता अपने जीवन के अंतिम कुछ महीनों में बिस्तर पर थीं, उनके बच्चे भारत में दूर-दूर रह रहे थे और किरायेदार उनका धारवाड़ का घर खाली करने से इंकार कर रहा था, मेरे माता-पिता उन्हें सिरसी के अपने भीड़भाड़ वाले घर में ले गए और उनकी देखभाल की। जब शांता की मृत्यु हुई तो उनके पति के समझ में न आने वाले व्यवहार के परिणामस्वरूप जन्मे हम भाई-बहन ही उनके आसपास थे।

    इन घटनाओं के अस्सी बरस बाद, मेरी बेटी शाल्मली भी शादी करने से पहले अपने प्रेमी के साथ पाँच बरस रही। तब तक शादी का फैसला करने से पहले अपने प्रेमी के साथ रहना शिक्षित युवतियों की जीवनशैली का एक स्वीकृत हिस्सा बन चुका था। जब यह आधुनिकाएँ मेरी माँ को घेर कर उल्लास से कहतीं ‘आप कितनी साहसी थीं! हमें आप पर गर्व है! आप हमारी हीरोइन हैं!’ आई अपनी प्रसन्नता छुपाये बिना उनकी प्रशंसा स्वीकार करतीं।

    पर विवाह होते ही डॉक्टर और कृष्णाबाई अपनी शादी से पहले के इतिहास के हर चिन्ह, हर स्मृति को मिटा देने के उद्यम में जुट गए। ‘कृष्णाबाई गोकर्ण’ अब ‘कृष्णाबाई कर्नाड’ बन गई थीं, वह कृष्णाबाई मनकीकर होतीं तो भी इस परिवर्तन से उन्हें गुज़रना ही पड़ता।

    खुद हमारे कानून ही किसी युवती के विवाह से पहले के जीवन का सफाया करने की पहल करते हैं। शादी के बाद डॉक्टर ने अपना तबादला धारवाड़ से दूर बागलकोट में करवा लिया, जहाँ वे अपने अतीत को दूर रख नए सिरे से जीवन की शुरुआत कर सकते थे। कृष्णाबाई गोकर्ण के नर्सिंग की पढ़ाई के प्रमाणपत्र फ्रेम न हुए और लपेट कर धूलधूसरित पुराने बक्से में रख दिए गए। उनका नाम लिखी काॅपी-किताबों के पहले पृष्ठ खो गए या वे गायब ही हो गईं। हिंदू रूढ़िवादिता को चुनौती देने और समकालीन समाज को हिला देने का साहस दिखाने वाले इन दोनों लोगों ने ऐसे व्यवहार किया जैसेकि वे ही दोषी थे, लोगों की नज़रों से दूर भागने का प्रयास किया। अतीत को मिटाने की इस महान योजना में डॉक्टर की पहली पत्नी सहज ही गायब हो गईं। हम भाई-बहनों ने कभी भी माता-पिता को उनका ज़िक्र करते न सुना।

    आर्यसमाज द्वारा शुरू की गई सामाजिक क्रांति ने मेरे माता-पिता की शादी को संभव बनाया था। उनकी शादी का आयोजन करने वाले श्री वैद्य आर्यसमाज के अनुयायी थे-इस तथ्य के प्रति आभार प्रकट करते हुए कृष्णाबाई द्वारा सुनहरे रेशमी धागों से कढ़ाई करके और उसमें समुद्री सीपियों की सजावट करके बनाई गई स्वामी दयानंद सरस्वती की एक फोटो हमारे देवस्थान में स्थापित कर दी गई थी। हमारे बचपन में वह फोटो चुपचाप वहीं टंगी हुई थी, बिना किसी स्पष्टीकरण के कि वह वहाँ क्या कर रही थी।

    उनकी शादी के तीन बरस के अंदर हम बच्चे आने लगे-वसंत, उसके बाद प्रेमा, मैं और लीना। जब मैं पाँच-छह बरस का हुआ मेरे भाई भालचंद्र ने ‘गोकर्ण’ उपनाम छोड़ ‘कर्नाड’ उपनाम अपना लिया क्योंकि आधिकारिक कागज़पत्तरों में कुलनाम होना आवश्यक होता था, ‘भालचंद्र आत्माराम गोकर्ण’ ‘भालचंद्र रघुनाथ कर्नाड’ में बदल गए जिसकी वजह से हम स्वाभाविक रूप से उन्हें अपना बड़ा भाई मानते बड़े हुए।

    वसंत, प्रेमा और मेरे साथ आई

    1943 में, जब मैं चार बरस का था, तब तक पूना के ससून अस्पताल में काम कर रहे बप्पा सेवानिवृत्त हो गए। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध अपने चरम पर था और मोर्चे पर युवा डॉक्टरों की मांग थी, इसलिए सरकार ने उन्हें सेवाविस्तार देने की पेशकश की। आश्चर्य नहीं कि आई के भयंकर विरोध के बावज़ूद, जो चाहती थीं कि वह पूना में मिली अपार सद्भावना का सदुपयोग करते हुए निजी प्रैक्टिस शुरू करें, उन्होंने छह वर्षों का सेवा विस्तार स्वीकार कर लिया और सिरसी चले आए जो पश्चिमी घाट के दूरदराज़ अंदरूनी हिस्से में जंगल से घिरी जगह थी। सिरसी में बिजली नहीं थी, वहाँ मलेरिया का प्रकोप था और आमतौर पर यहाँ भेजा जाना सज़ा माना जाता था।

    लेकिन जो इतिहास मेरे माता-पिता को लगता था कि उन्होंने बड़ी सावधानी से दफना दिया है, वह उन जंगलों में भी हम बच्चों का पीछा करता रहा। वह फुसफुसाता, आँखें झपकाता, हमारे चारों तरफ कई वेशों में मंडराता रहा क्योंकि हमारे माता-पिता ने हमें कभी अपने अतीत के बारे में नहीं बताया था। इस ने हमारा बचपन दुःखी बना दिया था। हमें लगता कि उनका रिश्ता किसी ऐसी बात पर टिका था जो बहुत रहस्यमय, शायद कोई ऐसी असहनीय घटना थी जिसे हमारे साथ-साथ हमारे पड़ोसियों की भेदती सी निगाहों से भी छुपाए जाना ज़रूरी था।

    एक दिन जब मैं आंगन में बतियाती औरतों के झुंड के पास से जा रहा था, एक औरत ने मुझसे पूछा, ‘तुम्हारे पिता तुम्हारी माँ से उम्र में इतने ज़्यादा बड़े क्यों हैं?’ उसकी साथिनों ने अपनी तिरछी मुस्कुराहटों को इतने स्पष्ट उल्लास के साथ दबाया कि सवाल के साथ ही जैसे कई सींग और नुकीले दांत उग गए। प्रेमा को उसकी ही उम्र की एक लड़की ने, जिसे मेरी छोटी बहन की देखभाल के लिए रखा गया था, बताया कि भालचंद्र तुम्हारा सगा नहीं सौतेला भाई है। वह कई दिनों तक चेहरा छुपाकर रोती रही। मेरी कक्षा के एक लड़के ने बड़ी गंभीरता से मुझे बताया कि ‘मेरी दादी सब जानती हैं, उन्होंने मुझे बताया कि जब तुम्हारी माँ का पहली बार ब्याह हो रहा था, उनके हाथ का मंगलसूत्र एक साँप में बदल गया। जब उन्होंने उसे ज़मीन पर फेंका तो उसने दूल्हे को काट लिया और गायब हो गया। दूल्हा तुरंत ही मर गया।’ उसके बाद कई रातों मैं उसे छोटे-छोटे टुकड़ों में काट डालने, भयानक यातना देने की योजना बनाता रहा था। लेकिन इस में मेरी मदद करने को कौन बैठा था?

    आखिर 1948 में बप्पा सेवानिवृत्त हो गए। 1952 में हम लोग धारवाड़ आकर सारस्वतपुर में रहने लगे जो सिर्फ सारस्वत ब्राह्मण परिवारों का रिहायशी इलाका था और हर कोई हर परिवार का इतिहास जानता था। मैंने अपने से थोड़े ही बड़े एक लड़के से अपने परिवार के बारे में पूछा। उसने मुझे पाँच मिनट में सारी बातें बता दीं और मैंने चैन की साँस ली। उस समय मैं चौदह बरस का था!

    अपने परिवार के इतिहास से हमारी आँखें बंद रखने की कोशिश करने के बजाय अगर हमारे माता-पिता ने हमें सच बता दिया होता, तो हम बच्चों का बचपन कुछ कम तकलीफदेह होता।

    मेरी माँ के विवाहित जीवन के तूफानी महाकाव्य में जो व्यक्ति बार-बार लहरों द्वारा पटका गया लेकिन किसी तरह जीवित रह गया, वह मेरा बड़ा भाई भालचंद्र था। वह सुंदर दिखता था। मेरी पत्नी सरस्वती-जो उस समय मेरी मंगेतर थी-को याद है कि जब वह भाई से न्यूयॉर्क में मिलने वाली थी, उसने भाई से पूछा था कि वह उन्हें कैसे पहचानेगी? और उन्होंने जवाब दिया था, ‘मैं गिरीश जैसा दिखता हूँ पर उस से ज़्यादा सुंदर हूँ।’ वह मेधावी था, उसका शानदार अकादमिक कैरियर था और वह कलात्मक रूप से भी प्रतिभाशाली था-चित्रकारी करता था, सितार बजा लेता था। वह जितना स्नेह का भूखा था उतना ही स्नेह देने को भी आतुर रहता। वह बेहद ऊर्जावान था और कोई काम बताए जाते ही वह उसे करने में जुट जाता। जब वह सिरसी में हमसे मिलने आता तो भारतीय रेल सेवा (आईआरएस) का यह अधिकारी रोज़ सुबह जागकर पिछवाड़े के कुंए से पानी निकालकर हमारे नहाने के लिए बड़े-बड़े हंडे भर देता। छुट्टियों में हम उसके आने का बड़ी उत्सुकता से इंतज़ार करते और उसे एक उत्सव के ही रूप में देखते थे। मेरी छोटी बहन लीना यह बताते न थकती कि उसका आदर्श पति भाई जैसा होगा।

    वह बहुत संवेदनशील भी थे। मुझे वह पत्र याद है जो उन्होंने आई को धारवाड़ में, उनकी शादी के बाद पहली बार देखने के बारे में लिखा था। ‘उस दिन, पहली बार, मैंने तुम्हें माथे पर कुमकुम लगाए देखा। तुमने बालों में फूल लगाए हुए थे और तुम्हारे गले में मंगलसूत्र था। तुम्हारा चेहरा खुशी से दमक रहा था। तुम जानती हो कि उस दिन तुम कितनी सुंदर लग रही थीं!’ उनका बप्पा के साथ बेहद सहज रिश्ता था। वे बैठे बातें करते या फिर घंटों चुपचाप बरामदे में बैठे रहते...लेकिन आई से उनके रिश्ते खटास भरे रहे।

    सत्तर के दशक में एक दिन, जब वह लगभग पचपन बरस के थे, मैंने मेज पर एक पत्र रखा देखा जो उन्होंने आई को लिखा था। तब तक आई ने इन पत्रों को गुप्त रखना, यहाँ तक कि इस बारे में परवाह करना भी छोड़ दिया था। उन्होंने लिखा था ‘तुमने मुझे कभी भी अपना बेटा नहीं माना।’ मैंने आई से पूछा कि भाई ने ऐसा क्यों कहा, और आई के स्पष्टीकरण ने उस पीड़ा का संकेत दे दिया जो उसके जीवन को मथती रही थी।

    अपनी शादी के तुरंत बाद जब बप्पा और आई बागलकोट में थे, भालचंद्र स्कूल की छुट्टियों में उनके पास आए हुए थे। एक नर्स ने आई से पूछा कि यह लड़का कौन है। आई को समझ न आया कि एक ग्यारह बरस के लड़के को अपनी कुछ ही महीने की शादी में कैसे फिट किया जाए। उन्होंने कहाः ‘मेरा भाँजा,’ भालचंद्र सब सुन रहे थे। यह बात याद करके वह फीके ढंग से मुस्कुरार्इं: ‘यह चालीस बरस पहले हुआ था, अब वह पचास बरस का है, और अभी भी इसे भूला नहीं। अब मैं क्या कहूँ?’

    भालचंद्र की ज़िंदगी के बारे में सोचते मुझे तमाम दु:ख, कष्टों के बीच भी उत्फुल्लता बनाए रखने की उनकी क्षमता पर आश्चर्य होता है। उन्होंने शैशव में ही पिता को खो दिया था, उन्हें एक ऐसी माँ ने पाला था जो अपने दुर्भाग्य के लिए अपने भाग्य को दोष देती, एक कोने में माला जपती बैठी असहाय विधवा नहीं थी। वह महत्वाकांक्षी और बेचैन, अपने जीवन को नया रूप देने को उत्सुक थी, जल्दी भड़क उठती थी, और तीखे जवाब देती थी।

    जब वह बेलगाम में थी, भाई कोई पंद्रह बच्चों के साथ, धारवाड़ में माननीय मंगेश राव सशित्तल के घर में रहते थे। अपनी माँ के बारे में उसे जो सुनने को मिलता होगा, उन भद्दी टिप्पणियों और दुर्भावनाभरे प्रहारों की कल्पना करना मुश्किल नहीं है।

    लेकिन भालचंद्र के सौभाग्य से इसी दौरान सारस्वतपुर के इज्ज़तदार लोगों में से एक, राव बहादुर देव राव कोप्पिकर, गोकर्ण परिवार की लगभग बिल्कुल अनपढ़ लड़की ताराबाई को, जो भालचंद्र की बुआ थीं, अपनी तीसरी पत्नी के रूप में धारवाड़ लाए। देव राव ने उन्हें पढ़ाने का बीड़ा उठाया, यहाँ तक कि उन्हें मेडिकल कॉलेज पूना भी भेजा। उन्होंने अपनी पत्नी के दो भाइयों को भी बुलवा लिया और सारस्वतपुर के अपने घर के एक हिस्से में उन्हें बसा दिया। उनमें से एक ने वन विभाग में नौकरी की और दूसरे ने दर्जी की दुकान खोल ली। गोकर्ण

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